राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुत्थान पर प्रकाश डालिए। राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुत्थान के प्रमुख कारण बताइए। राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुत्थान की विवेचना कीजि
राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुत्थान पर प्रकाश डालिए।
- राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुत्थान के प्रमुख कारण बताइए।
- राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुत्थान की विवेचना कीजिए
- राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुद्धार पर निबंध
राजनीतिक सिद्धांत का पुनरुत्थान / पुनरुद्धार
अपनी दुर्बलताओं के बावजूद राजनीतिक सिद्धांत अब भी जीवित है और एक नए जोश के साथ उसका पुनः पुनरुत्थान हो रहा है। 20वीं शताब्दी में होने वाले विभिन्न युद्धों एवं संकटों ने राजनीतिक विचारों में अत्यधिक अभिरुचि जाग्रत की है और सामाजिक व राजनीतिक प्रश्नों पर सिद्धांतकार अपनी अभिरुचि दर्शाने लगे हैं। अनुभववादी सिद्धांतकारों ने, जिन्होंने पारम्परिक राजसिद्धांत और दर्शन की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाई, स्वयं बौद्धिक दृष्टि से बांझ साबित हुए। अनुभववादी रचनाएँ मुश्किल से ही पारस्परिक राजनीतिशास्त्रियों की महान रचनाओं की तुलना में श्रेष्ठ साबित हुई। आज भी प्लेटो, अरस्तू, एक्विनास, हॉब्स, लॉक, रूसो, जे० एस० मिल, मार्क्स आदि की रचनाएँ किसी भी व्यवहारवादी-आनुभविक रचनाकार की कृति से कहीं कमजोर नहीं हैं। कोई भी व्यवहारवादी लेखक राजनीतिक सिद्धांत की दृष्टि से ई० एफ० केरिट, एल० टी० हॉबहाउस, आर० एच० टॉनी, ए० डी० लिण्डसे तथा अर्नेस्ट बार्कर के योगदान की तुलना में ठहर नहीं पाता है। अनुभववादियों ने सामाजिक सेवा वाले राज्य (Social Service State); जैसे लास्की के सिद्धांत जैसा कोई सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किया है। वस्तुतः मूल्यों और तर्क बुद्धि की अनुपस्थिति में राजनीतिक सिद्धांत आगे पहुँच ही नहीं सकता है। अनुभववादी सिद्धांत कई गलत मान्यताओं पर भी आधारित है -
- यह इस गलत मान्यता पर आधारित है कि तथ्य ही वास्तविकता है,
- यह वैज्ञानिक पद्धति की गलत मान्यता पर आधारित है,
- यह इस गलत मान्यता पर आधारित है कि अनुसन्धानकर्ता और आँकड़ों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तुतः उसके आँकड़े और तथ्य उसकी अपनी मान्यताओं और भावनाओं से प्रभावित होते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि मूल्य निरपेक्ष राजनीतिक सिद्धांत के निर्माण का अनुभववादी प्रयत्न सफल नहीं हो पाया है।
आज पश्चिम में परंपरावादी राजनीतिक सिद्धांत की निरन्तरता के प्रतिनिधि विचारक माइकल ऑकशाट, हन्ना आरेण्ट, बट्रेण्ड जुवैनल, लियो स्ट्रॉस, इरिक, वागोविन आदि माने जाते हैं। इनके चिंतन में हमें दार्शनिक एवं मूल्यात्मक चिंतन की झलकियाँ मिलती हैं।
1950 के दशक में डेविड ईस्टन और कोबान ने राजनीतिक सिद्धांत के ह्रास (पतन) के बारे में जो तर्क प्रस्तुत किए उनका खण्डन इसायाह बर्लिन ने अपने प्रबल तर्कों से किया है। बर्लिन का मत है कि राजनीतिक सिद्धांत के किसी अंश ने अप्रचलित होने के कारण अपनी सार्थकता या अपना महत्व खो दिया हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सारा विषय ही अस्तित्वविहीन हो गया है।
बर्लिन की भांति ब्लांडेल का भी मत है कि व्यवहारवादी परंपरा क्लासिकी परंपरा के पुनरुत्थान में उपयोगी हो सकती है। सेबाइन, ओकशॉट व लियो स्ट्रास के विचारों का सन्दर्भ देते हए वह आग्रह करता है कि “महान क्लासिकी ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन करना और बार-बार पनः चिंतन करना ऐसा मानसिक व्यवहार पैदा करता है जिससे मनुष्य और उसके भाग्य के प्रति सही दृष्टिकोण पैदा किया जा सके।"
राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुद्धार की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण योगदान शिकागो विश्वविद्यालय के प्रो० लियो स्ट्रास का है जिसका कहना है कि यद्यपि राजनीतिक सिद्धांत (दर्शन) पतन और शायद निधन की स्थिति में हो सकता है, किन्तु यह पूर्णतया अदृश्य नहीं हो गया है। वह महान क्लासिकी विचारकों की तरह सिद्धांत के दर्शन से तादात्म्य करता है आर उससे बढ़कर वह निश्चयवाद, इतिहासवाद तथा भौंडे व्यवहारवाद के आधारों को प्रबल रूप में हटाकर अपने को स्वप्नलोकीय राजनीतिक दार्शनिक की भाँति पेश करता है। महान् सामाजिक एवं राजनीतिक विचारकों के बारे में उसका अध्ययन इतना गहरा है और उसके वक्तव्य इतने प्रभावपूर्ण हैं कि आधुनिक युग में उसी को आदर्शी (मानकात्मक) राजनीतिक सिद्धांत के पुनरुत्थान हेतु एकमात्र संघर्षकर्ता कहा जा सकता है। ई० पी० मिलर ने लिखा है : “शायद ही पहले कभी किसी व्यक्ति को महान राजनीतिक दार्शनिकों की ऐसी देदीप्यमान एवं सारगर्भित व्याख्याओं को प्रस्तुत करने पर इतना सम्मान मिला होगा।"
संक्षेप में, दर्शन के क्षेत्र में हुई क्रान्ति से राजनीतिक सिद्धांत कहा जाने वाला एक व्यापक दार्शनिक विषय उभर कर सामने आया है जो शैली में विश्लेषणात्मक है तथा रीतिविधान, संकल्पनाओं के स्पष्टीकरण और तार्किक निश्चयवादियों के विपरीत राजनीतिक मूल्यांकन से इसका सम्बन्ध है। आज के कुछ महान विद्वानों, जैसे जॉन राल्स और नाजिक ने इस विषय में नए जीवन का संचार किया है जिससे यह कहना कि राजनीतिक सिद्धांत मृत हो चुका है, अतिश्योक्ति मात्र होगा।
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