अनुलोम और प्रतिलोम विवाह - हिंदुओं में विवाह साथी चुनाव में अनेक निषेधों का पालन किया जाता है उनमें अनुलोम एवं प्रतिलोम के नियम भी महत्वपूर्ण हैं। एक
अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की विवेचना कीजिये।
अनुलोम और प्रतिलोम विवाह - हिंदुओं में विवाह साथी चुनाव में अनेक निषेधों का पालन किया जाता है उनमें अनुलोम एवं प्रतिलोम के नियम भी महत्वपूर्ण हैं। सम्पूर्ण विवेचना इस प्रकार है -
(1) अनुलोम विवाह (Anuloma Marriages)
जब एक उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं गोत्र के लड़के का विवाह ऐसी लड़की से किया जाए जिसका वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं वंश के लड़के से नीचा हो तो ऐसे विवाह को अनुलोम विवाह कहते हैं। उदाहरण - एक ब्राह्मण लड़के का विवाह एक क्षत्रिय या वैश्य लड़की से होता है तो इसे हम अनुलोम विवाह कहेंगे। वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक अनुलोम विवाहों का प्रचलन रहा है। मनु ने शूद्र कन्या से द्विज लड़के का विवाह अनुचित बताया है। ऐसे विवाह से द्विज का वर्ण दूषित हो जाता है, उसके परिवार का स्तर गिर जाता है और उसकी सन्तान को शूद्र की स्थिति प्राप्त होती है। ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान को मनु 'पार्षव' (एक जीवित पशु) की संज्ञा देते हैं और उसे सम्पत्ति में भी कोई अधिकार नहीं होता है। डॉ राधाकृष्णन का मत है कि भारत में अनुलोम विवाह का प्रचलन दसवीं शताब्दी तक रहा हैं।
अनुलोम विवाह के प्रभाव-हानियां
अनुलोम विवाह ने समाज में अनेक समस्याओं को जन्म दिया। उसके निम्नांकित दुष्परिणाम निकलेः
1. वर-मूल्य-प्रथा - जब नीचे कुल वाले उच्च कुल के लड़कों को वर के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं तो लड़कों का अभाव हो जाता है। ऐसी स्थिति में वर-मूल्य प्रथा प्रचलन बढ़ जाता है।
2. सामाजिक बुराइयाँ - अनुलोम विवाह प्रथा ने समाज में रूढ़िवादिता तथा सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक जीवन में अनेक समस्याओं, को जन्म दिया है। निम्न कुल की लड़कियों का देर तक विवाह न होने पर समाज में भ्रष्टाचार व नैतिक पतन की समस्या पैदा होती है।
3. उच्च कुलों में लड़कों की कमी - जो कुल सामाजिक दृष्टि से ऊँचा माना जाता है उस कुल के लड़कों से नीचा समझे जाने वाले कुल के लोग अपनी कन्या का विवाह कराना चाहते हैं, परिणामस्वरूप ऊँचे कुल की लड़कियों के लिये वर का अभाव हो जाता है और उन्हें अविवाहित ही रहना पड़ता है।
4. कन्या-मूल्य का प्रचलन - अनुलोम विवाह के कारण नीचे कुलों में कन्याओं का अभाव हों जाता है जिसके फलस्वरूप कन्या-मूल्य का प्रचलन होता है।
5. बाल विवाहों का प्रचलन - अनुलोम विवाह में प्रत्येक पिता यह चाहता है कि उसकी कन्या का विवाह उच्च कल के लड़के से हो अतः ज्योंही कोई योग्य वर मिला कि कन्या का विवाह कर दिया जाता है। कई बार तो चार-पांच वर्ष से कम आयु की कन्याओं का भी विवाह कर दिया जाता है।
6. बहपति एवं बहुपत्नी विवाह का जन्म - ऊँचे कुल के लड़के से नीचे कुल के सभी लोग अपनी कन्या का विवाह करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में उच्च कुल में बहुपत्नी विवाह का प्रचलन होगा. दूसरी ओर नीचे कुल में लड़कियों का अभाव होने पर बहुपति विवाह का प्रचलन होगा।
7. नीचे कूलों में लड़कियों की कमी - नीचे कुल के सभी लोग जब अपनी कन्या का विवाह उच्च कुल में कर देते हैं तो नीचे कुल में लड़कों के लिए कन्या का अभाव हो जाता है। और कई लड़कों को अविवाहित ही रहना पड़ता है।
8. बेमेल-विवाह - अनुलोम विवाह के कारण ऊँचे कुल में लड़की का विवाह कभी-कभी प्रौढ़ या वृद्ध व्यक्ति के साथ भी कर दिया जाता है। बंगाल एवं बिहार में उच्च कुलों के कई लड़कों के तो सौ तक पत्नियाँ होती हैं जिन्हें याद रखने के लिये रजिस्टर रखना होता है। कई बार तो वधु की आयु वर की पुत्री के बराबर होती है।
9. बाल-विधवाओं में वृद्धि - अनुलोम विवाह के कारण उच्च कुल के पुरुषों के कई पत्नियाँ होती हैं। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर समाज में बाल-विधवाओं की संख्या बढ़ जाती है।
(2) प्रतिलोम विवाह (Pratilom Vivah)
अनुलोम विवाह का विपरीत रूप प्रतिलोम विवाह है। इस प्रकार के विवाह में लड़की उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल या वंश की होती है और लड़का निम्न वर्ण, जाति, उपजाति कुल या वंश का । उदाहरण - यदि एक ब्राह्मण लड़की का विवाह किसी क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र लड़के से होता है तो ऐसे विवाह को हम प्रतिलोम विवाह कहेंगे। इस प्रकार के विवाह में स्त्री की स्थिति निम्न हो जाती है। स्मृतिकारों ने इस प्रकार के विवाह की कटु आलोचना की है ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान को चाण्डाल अथवा 'निषाद' कहा जाता था। हिन्दू विवाह वैधता अधिनियम, 1949 एवं 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह दोनों को ही वैध माना गया है।
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