ईसाई अल्पसंख्यक की समस्या - Isai Alpsankhyak ki Samasya
भारत के अल्पसंख्यकों में मुसलमानों के बाद दूसरा स्थान ईसाइयों का है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या में ईसाइयो की संख्या लगभग 2.50 करोड़ है। अंग्रेजी शासनकाल में ईसाइयों की संख्या कम होने के बाद भी उन्हें सभी तरह का राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था। फलस्वरूप उन्होंने कभी भी अपने आपको अल्पसंख्यक के रूप में नहीं देखा। इस अवधि में हिन्दुओं को निम्न जातियों से सम्बन्धित एक बड़ी संख्या में लोगों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। स्वतन्त्रता के बाद भी ईसाई मिशनरियों ने अनेक जनजातियों की गरीबी का लाभ उठाकर उन्हें ईसाई धर्म ग्रहण करने की प्रेरणा दी। इसी के फलस्वरूप धार्मिक आधार पर अनेक ईसाई मिशनरियों का विरोध किया जाने लगा तथा अनेक ईसाई संगठन अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगे। नागालैण्ड, मेघालय, मणिपुर और असम में ईसाइयों की संख्या काफी बढ़ जाने से उन्होंने क्षेत्रीय आधार पर अपने लिए पृथक अधिकारों की माँग करना आरम्भ कर दी। सच तो यह है कि अधिकांश ईसाई शिक्षित है तथा उनका सम्बन्ध समाज के मध्यम वर्ग से है। इसके बाद भी जो लोग धर्म परिवर्तन करके ईसाई बने, उन्हें चर्च और सामाजिक जीवन में वे अधिकार नहीं मिल सके जो परम्परागत ईसाइयों को प्राप्त है। एक अल्पसंख्यक समूह के रूप में ईसाइयों के एक वर्ग ने भी विभिन्न सेवाओं में मुसलमानों का अनुकरण करके अपने लिए आरक्षण की माँग की है लेकिन लोकताबिक ढाँचे में उनकी संख्या शक्ति कम होने के कारण राजनीतिक दलों द्वारा ईसाई समुदाय की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया।