राजनीतिक संघर्ष / द्वंद्व के सिद्धांत : राजनीतिक संघर्ष प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में अनिवार्य रूप से दृष्टिगोचर होता है। व्यवस्था में सदैव विभिन्न व
राजनीतिक संघर्ष क्या है ? राजनीतिक द्वन्द्व के सिद्धांतों को रेखांकित कीजिए।
राजनीतिक संघर्ष / द्वंद्व के सिद्धांत
राजनीतिक संघर्ष प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में अनिवार्य रूप से दृष्टिगोचर होता है। व्यवस्था में सदैव विभिन्न वर्गों के मध्य संघर्ष की अवस्था विद्यमान रहती है। यह संघर्ष एक असन्तोष के रूप में रहता है कभी-कभी यह प्रत्यक्ष हिंसक संघर्षों का भी रूप धारण कर लेता है। विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से इन संघर्षों की पहचान व विश्लेषण करने का प्रयास किया है, इन्हीं को राजनीतिक संघर्ष के सिद्धांत कहा जाता है।
राजनीतिक संघर्ष के सिद्धांत व्यवस्था के भीतर विद्यमान रहने वाले राजनीतिक संघर्षों की व्याख्या करने का प्रयास करते हैं और इन संघर्षों को व्यवस्था परिवर्तन का कारण मानते हैं। वस्तुतः राजनीतिक संघर्ष के प्रमुख सिद्धांतों की बात की जाए तो, वो हैं - 1. मार्क्स का संघर्ष सिद्धांत, 2. डेहरन डोर्फ का सिद्धांत एवं 3. कोजर का सिद्धांत। इनका विस्तृत वर्णन अग्रलिखित है :
1.मार्क्स का वर्गसंघर्ष सिद्धांत
मार्क्स ने राजनीतिक संघर्ष को वर्ग संघर्ष के रूप में उल्लिखित किया है। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक व्यवस्था में दो वर्ग पाये जाते हैं, प्रथम वह होता है जिनका उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता है इस वर्ग को मार्क्स शासक या बर्जुआ वर्ग कहते है। मार्क्स के अनुसार द्वितीय वर्ग उन लोगों का होता है जो बर्जुआ अथवा शासक वर्ग के अधीन आजीविकोपार्जन हेतु श्रम करते हैं। मार्क्स इन्हें श्रमिक या सर्वहारा वर्ग कहते हैं। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक व्यवस्था में प्रत्येक समय बर्जुआ वर्ग व सर्वहारा वर्ग के मध्य संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। मार्क्स के अनुसार यह संघर्ष एक तनाव को व्यक्त करता है इसका अभिप्राय प्रत्यक्ष हिंसात्मक संघर्ष से नहीं है। मार्क्स का मानना है कि प्रत्येक व्यवस्था में शासक व शासितों के मध्य सदैव असन्तोष पनपता रहता है और परिवर्तन अथवा क्रान्ति का 'कारण बनता है। यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है। मार्क्स का मानना है कि यही वर्ग संघर्ष व्यवस्था को गतिशीलता व परिवर्तनशीलता प्रदान करता है।
मार्क्स द्वारा वर्ग संघर्ष सिद्धांत के द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया गया था। मार्क्स का मानना था कि पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग के शोषण के विरूद्ध सर्वहारा वर्ग की संख्या और असन्तोष बढ़ता जाएगा और एक दिन यह असन्तोष चरम पर पहुँचकर सर्वहारा के अधिनायक तंत्र के रूप में पूँजीपतियों का खात्मा कर देगा। तत्पश्चात् एक वर्ग-विहीन साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना होगी। इस प्रकार मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के रूप में राजनीतिक संघर्ष को व्यवस्था परिवर्तन का सशक्त माध्यम माना है। यद्यपि शोषण व शोषितों की स्थिति की वास्तविकता से अवगत कराने की दृष्टि से मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत सत्य प्रतीत होता है। परन्तु जैसा कि मार्क्स ने कहा है कि एक दिन पूँजीवादी व्यवस्था स्वतः समाप्त हो जाएगी, यह स्वयं में अपने पतन के बीज बोए हुए है, यह सत्य सिद्ध न हो सका। परन्तु इससे मार्क्स के वर्ग संघर्ष सिद्धांत का महत्व कम नहीं होता। मार्क्स ने पूँजीवाद को बदलावों के लिए विवश कर दिया और सकारात्मक (कल्याणकारी) उदारवाद के उदय का कारण बना।
2. डेहरन डोर्फ का सिद्धांत
डेहरन डोर्फ ने अपनी पुस्तक "Class and class conflict in Industrial Society" के अन्तर्गत राजनीतिक सामाजिक संघर्ष का विश्लेषण किया है। डोर्फ का संघर्ष सिद्वान्त मुख्यतया सत्ता के सम्बन्धों पर आधारित है। डोर्फ का मानना है कि सत्ता संरचना जो कि प्रत्येक सामाजिक संगठन का एक अभिन्न भाग होती है, अनिवार्य रूप से स्वार्थ समूहों को संगठित करती है और उन्हें निश्चित स्वरूप प्रदान करती है और इस रूप में अनायास ही संघर्षों की सम्भावनाओं को जन्म देती है। उसका मानना है कि चूँकि समाज में सत्ता का बंटवारा समान नहीं होता अतः सरलता से संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
समाज में स्वयं के लिए अधिकाधिक सत्ता प्राप्त करना सम्मानजनक अनुभूति होती है तो वहीं दूसरी ओर जो लोग सत्ता प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं, वे उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और जिनके पास सत्ता है वे उसे बनाये रखने का हर सम्भव प्रयास करते हैं इसी से दोनों पक्षों के मध्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है।
डोहरन डॉर्फ के अनुसार "संघर्ष का बीज प्रत्येक सामाजिक संरचना में ही सम्मिलित होता है एवं समाज का प्रत्येक भाग निरन्तर परिवर्तित हो रहा है। सामाजिक संरचना में परिवर्तन वर्गों के बीच होने वाले संघर्ष के ही फलस्वरूप होते हैं।" इस प्रकार डोर्फ राजनीतिक व सामाजिक संघर्ष को ही व्यवस्था व समाज परिवर्तन का उपकरण मानते हैं।
3. कोजर का राजनीतिक संघर्ष द्वारा सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत
लुईस ए० कोजर ने अपनी पुस्तक दि फंकशन्स ऑफ सोशल कॉन्फलिक्ट में लिखा है कि "स्थिति शक्ति और सीमित साधनों के मूल्यों और अधिकारों के लिए होने वाले परिवर्तन को सामाजिक संघर्ष या सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है। इसके अन्तर्गत जान-बूझकर दूसरों की इच्छाओं का विरोध किया जाता है।"
इस प्रकार व्यक्तियों तथा स्थिति शक्ति व साधनों पर अधिकार करने का प्रयास ही नहीं है, अपितु इसी कार्य में लगे अन्य व्यक्तियों को हानि पहुँचाना भी है।
कोजर ने इस प्रकार यह स्पष्ट करते हुए कहा कि सामाजिक संघर्ष के द्वारा ही सामाजिक परिवर्तन होता है।
कोजर का संघर्ष द्वारा सामाजिक परिवर्तन सिद्धांत
इसके अध्ययन के द्वारा समाज में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है अर्थात् इन उद्देश्यों व लक्ष्यों को प्राप्त करने वाले समूहों के बीच पाए जाने वाले संघर्ष का अध्ययन किया जाता है। कोजर ने इस परिवर्तन हेतु दो रूप बतलाये हैं, जो इस प्रकार से है
संगठनात्मक - इसमें समूहों की समाज में मौलिक मूल्यों के प्रति समान आस्था होती है।
विघटनात्मक - इसमें समूहों के प्रति कोई आस्था नहीं रह जाती है।
कोजर ने इस बात पर बल दिया है कि दो रूपों के कारण संघर्ष होता है और सामाजिक परिवर्तन होता है। कोजर के अनुसार, संघर्ष सामाजिक परिवर्तन के विकास में सहायक प्रक्रिया है संघर्ष कुछ मात्रा में अनिवार्य रूप से आकार्यात्मक होने की अपेक्षा समूह के निर्माण व सामूहिक जीवन की निरन्तरता के लिए यह केवल विघटनकारी या अव्यवस्था उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया नहीं है बल्कि समूह के निर्माण में संघर्ष एवं संगठन दोनों का महत्व होता है। उनके शब्दों में "संघर्ष केवल कुछ मात्रा में आवश्यक रूप से अवास्तविक हो सकता है।" संघर्ष में निम्नलिखित दो कारक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं
- विरोधी वस्तु अथवा व्यक्ति।
- विरोध का आवेग।
कोजर यह बताना चाहते हैं कि सामाजिक अन्तर्किया का परिणाम यह होता है कि सहयोग व संघर्ष दोनों साथ-साथ चलते हैं। कई बार संघर्ष स्वयं सहयोग का भी परिणाम हो सकता है और इन्हीं के परिणामस्वरूप सामाजिक परिवर्तन होता है उदाहरणार्थ जहाँ घनिष्ठता होती है वहाँ सहयोग व विश्वास होता है वहाँ अपने तनावों व संघर्षों को प्रकट करने में कठिनाई नहीं होती।
कोजर के सिद्धांत के कार्य
कोजर के सिद्धांत के निम्नलिखित कार्य हैं जो इस प्रकार से हैं
- बाह्य समूह से संघर्ष, समूह के आन्तरिक विघटन को रोकता है, इस वृद्धि से संघर्ष प्रकार्यात्मक भूमिका निभाते हैं।
- संघर्ष शक्ति व सन्तुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- अन्य समूहों से संघर्ष करने वाले समूह अपने अस्तित्व के लिए निरन्तर जागरुक हो जाते हैं।
- संघर्ष के माध्यम से विरोध व तनावपूर्ण भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है।
- संघर्ष समूह के संरक्षण में सहायक होता है।
- संघर्ष आचरण सम्बन्धी नियमों की स्थापना करने में सहायता देता है।
- बाह्य समूह से संघर्ष के कारण समूह की आन्तरिक एकता सुदृढ़ हो जाती है और सामाजिक परिवर्तन में सहायक होते हैं।
प्रोफेसर कोजर संघर्ष द्वारा होने वाले परिवर्तन को भी सामाजिक परिवर्तन की श्रेणी में रखते हैं। वे कहते हैं कि जैसे-जैसे किसी सामाजिक संरचना की कठोरता में वृद्धि होने लगती है वैसे-वैसे किसी सामाजिक संरचना में सुरक्षा तत्वों की आवश्यकता बढ़ती जाती है।
अतः इस वृद्धि से संघर्ष नवीन परिस्थितियों के अनुकूल आदर्शों का सामंजस्य करने को एक तन्त्र है नवीन गतिशील समाज संघर्ष से लाभ उठाता है क्योंकि इस प्रकार का व्यवहार आदर्शों की उत्पत्ति व परिष्कार करने में सहायता करके परिवर्तित दशाओं में इसकी निरन्तरता को विश्वास दिलाता है।
COMMENTS