परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ परम्परागत राजनीतिक का सिद्धांत की सीमाए
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत एवं परम्परागत राजनीतिशास्त्र की विशेषताएँ मिलती जुलती हैं। पहले दोनों एक-दूसरे के पर्याय माने जाते थे। इस प्रकार राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताओं को इस प्रकार गिनाया जा सकता है
- संस्थागत पहलू पर अधिक जोर दिया गया है। उदाहरणार्थ राज्य, सरकार आदि संस्थाओं को राजनीति-शास्त्र के अध्ययन का प्रमुख आधार माना गया है।
- सम्बन्धित संस्था की संरचना का वर्णन किया जाता है, जैसे राज्य के तत्वों पर प्रकाश डाला जाता है, सम्प्रभुता, सरकार के रूप, सरकार के अंग, शक्ति-पृथक्करण आदि का वर्णन किया जाता है।
- राज्य के कार्यों पर अधिक जोर नहीं दिया जाता, उन्हें गौण विषय माना जाता है।
- ये परिभाषाएँ राज्य के लक्ष्य पर विशेष प्रकाश नहीं डालतीं और न ही संस्थाओं तथ उनके कार्यों का मूल्यांकन करती हैं।
- मूल्यों और लक्ष्यों में इन परिभाषाओं का संबंध भौतिक रूप में है, अनुभव के आधार पर इन्हें सिद्ध करने का प्रयास नहीं है।
- राजनीतिक प्रक्रिया के औपचारिक तथा कानूनी दृष्टिकोणों पर अधिक जोर दिया गया है। विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक शक्तियों के बीच क्या पारस्परिक संबंध रहता है, ये एक-दूसरे पर क्या प्रभाव डालती हैं, आदि में इसकी कोई रुचि नहीं है।
- राजनीतिशास्त्र का अध्ययन एक व्यापक प्रणाली के रूप में किया गया है, उसका झुकाव आज की भाँति वैज्ञानीकरण की ओर नहीं है।
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत की सीमाएँ
परम्परागत राजसिद्धांत में मूल्यों, आदर्शों, परम तत्वों आदि को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। प्लेटो का न्याय-सिद्धांत, अरस्तू का मध्यम-प्रजातन्त्र, लॉक का प्राकृतिक कानून, रूसो की सामान्य-इच्छा आदि इसी प्रकार की हैं। सभी सिद्धांत सिद्धांत-निर्माताओं की मान्यताओं से निकले हैं। उनके समक्ष आनुभविक तथ्यों, जाँच, प्रमाण, अवलोकन आदि का महत्व नहीं है। वे सभी ‘चाहिए' की प्रकृति के हैं, उनको प्राप्त एवं प्रकाशित किया जाना 'चाहिए'। सभी व्यक्तियों, संस्थाओं, विधियों आदि को उन्हीं के प्रकाश में देखा जाता है। कॉबन के अनुसार, परम्परागत राजसिद्धान्ती सदैव क्रियात्मक उद्देश्य लेकर लिखते रहे हैं। उनका उद्देश्य सधार, समर्थन या विरोध करना होता है। ये लोग मूल्यों, मान्यताओं आदि को इतना अधिक महत्व देते हैं कि इनके लिए राजसिद्धांत, राजदर्शन और राजविज्ञान एक ही बन जाते हैं।
इनकी एक सामान्य विशेषता यह भी है कि ये आधुनिक या आनुभविक राजसिद्धांत के कट्टर विरोधी हैं। वे उसे बेकार, मानव-समाज के लिए घातक, शब्दाडम्बर और अयथार्थ मानते हैं। उनके अनुसार, आधुनिक राजसिद्धांत अपने आपको मूल्य-निरपेक्ष कहता हुआ भी छिपे तौर पर कतिपय मूल्यों पर आधारित है। आधुनिक राजसिद्धान्ती इन्द्रियों की भौतिक दुनिया में रहते हैं। वास्तविक ज्ञान एवं मानव का परम लक्ष्य अतीन्द्रिय जगत में है। किन्त ब्लम जैसे गजवैज्ञानिकों ने प्राचीन राजदार्शनिकों के चिन्तन में अपने विश्लेषण के द्वारा यह बताया है कि उनमें भी आनुभविक सिद्धांत की अनेक विशेषताएँ पायी जाती हैं। कतिपय प्राचीन विचारकों के अनुसार मूल्यों का भी वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है।
शास्त्रीय (classical) सिद्धांत परम तत्वों, शाश्वत सत्यों, सम्पूर्ण जीवन या उसके किसी अंश, विचारों, मल्यों आदि का विवेचन करता है। उसकी पद्धतियाँ दार्शनिक, चिन्तनात्मक, विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक अथवा अन्तर्पज्ञात्मक (intuitive) होती हैं। परन्तु वह व्यवहारवादियों की भाँति अपने समाज और पर्यावरण के प्रति तटस्थ नहीं होती। शास्त्रीय राजसिद्धांत समस्याओं और घटनाओं के अमर्त स्वरूप के भीतर जाता है। वह 'समझ' या अवबोधन (understanding) पर बल देता है। इनके चिन्तन में निरन्तरता, समग्रता, आत्मनिष्ठता, तथा सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति पायी जाती है। वे शीघ्र ही आध्यात्मिक तथा सत्तामूलक (ontological) गहराइयों में डूब जाते हैं। वे राजसिद्धांत को एक स्वतन्त्र क्षेत्र मानते हैं, जिसमें प्रवेश करने से पूर्व अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट कर लेना आवश्यक होता है। अध्यात्मशास्त्र, विचारवाद, व्यवहार का विज्ञान आदि उसके अनेक रूप हैं। इनमें 'विचारों के विश्लेषण' को प्रधानता दी जाती है।
वास्बी के अनुसार, सैंकड़ों वर्षों तक राजसिद्धांत पर दर्शन का प्रभाव रहा है। उसके विषय विवेकपूर्ण मनुष्य, राज्य का अस्तित्व, उत्पत्ति और स्वरूप, प्राकृतिक विधि, आदर्शलोकवादी भविष्य, समुदाय व सामान्य हित आदि रहे हैं। आगे चलकर इसमें व्यक्तिवाद, सम्प्रभुता, राष्ट्रवाद, विधि का शासन आदि महत्वपूर्ण हो गये। व्यक्तिनिष्ठ होने के कारण परम्परागत राजसिद्धांतों में विविधता, अस्पष्टता, अमूर्तता तथा परस्पर तुलना का अभाव पाया जाता है। उनकी समस्त विचार-योजना कतिपय शाश्वत मान्यताओं पर आधारित होती है। उन्हें स्वीकारने पर ही राजसिद्धांत को समझा जा सकता है। उन मान्यताओं का उपलब्ध तथ्यों से मेल खाना जरूरी नहीं है। तथ्यों को मान्यताओं के अनुसार ढालने पर जोर दिया जाता है।
परम्परागत का पतन - परम्परागत राजशास्त्र की शास्त्रीय विचारधारा पश्चिम और पूर्व में समाप्त या विदा नहीं हो गई है। अन्तर केवल इतना ही है कि जहाँ पश्चिम में इसका प्रभाव सीमित और मन्द हो गया है, यहाँ पूर्व में परम्परावाद अतिशय उग्र और आक्रामक हो गया है। इसका कारण यह है कि पश्चिम में परम्परावाद विज्ञान और व्यवहारवाद के सन्मुख दुर्बल हुआ है, परन्तु पूर्व में वह धर्म एवं दर्शन के प्रभाव तथा विज्ञान एवं व्यवहारवाद के अभाव से प्रबल हआ है। पश्चिम में परम्परागत राजनीतिक 'सिद्धांतों की निरन्तरता' के प्रतिनिधि विचारक माइकेल ऑकशॉट, हन्ना आरेन्ट, बट्रेण्ड जुवैनल, लिओ स्ट्रॉस, इरिक वोगेलिन आदि माने जाते हैं। इन्होंने न केवल शास्त्रीय दार्शनिक अथवा मानवीय दवतउंजपअमद्ध चिन्तन का समर्थन एवं प्रतिपादन किया है, अपितु उस ओर नवीन दिशाओं में चिन्तन भी किया है।
परम्परावादी विचारक शास्त्रीय (classical) 'सिद्धांत' की मृत्यु या अपक्षय (decay) से दुखी हैं और उसका पुनरुत्थान चाहते हैं। उनकी दृष्टि से शास्त्रीय सिद्धांत' के मार्ग में बाधक तत्व रहे हैं-व्यवहारवाद, स्वयं की अपूर्णतायें, इतिहासवाद और नैतिक सापेक्षता तथा तकनीकी क्रान्ति। उनमें से कतिपय विचारकों का यह भी विश्वास हो चला है कि राजनीतिक शास्त्रीय 'सिद्धांत' पुनर्जीवित, जाग्रत और प्रभावपूर्ण हो रहा है। उनके अनुसार, आधुनिक राजविज्ञानियों ने मूल्यों तथा आदर्शों को अलग करके राजनीति को 'अराजनैतिक' बना दिया है। उनकी दृष्टि से मानवता और मानव-मूल्यों की रक्षा के लिये शास्त्रीय सिद्धांत को शक्तिशाली बनाया जाना चाहिये। उन्होंने वर्तमान अनुभववादी तथा वैज्ञानिक सिद्धांत सम्बन्धी धारणाओं की तीव्र आलोचना की है। वे व्यवहारवादी या व्यवहारपरक सिद्धांतों को नीरस, ऊसर, अनैतिक, घातक तथा राजविज्ञान के विकास के लिये हानिकारक मानते हैं। इन उग्र शास्त्रीय सिद्धान्तियों (theorists) ने, जिनका प्रतिनिधित्व लियो स्ट्रॉस, माइकेल ऑकशॉट आदि करते हैं, परम्परावाद के प्रति अतिशय कट्टरपंथी दृष्टिकोण अपनाया है। किन्तु कुछ मध्यमार्गी भी हैं, यथा यूजीन जे० मीहान, रॉबर्ट ए० डहल, डेविड हैल्ड आदि जिन्होंने एक सन्तलित एवं संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है।
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