जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत का वर्णन कीजिए। जॉन रॉल्स के न्याय के सिद्धान्त की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये। जॉन रॉल्स के विचार स्पष्ट कीजिए। जॉन रॉल्स क
जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत का वर्णन कीजिए।
- जॉन रॉल्स के न्याय के सिद्धान्त की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये।
- जॉन रॉल्स के विचार स्पष्ट कीजिए।
- जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत को आकार प्रदान (configure) कीजिए।
- जॉन रॉल्स के अनुसार समाज के सभी लोग क्या कामना करते हैं।
जॉन राल्स का न्याय सिद्धांत
जान रॉल्स ने अपनी विख्यात कृति ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस' (न्याय सिद्धांत) 1971 के अन्तर्गत यह तर्क दिया है कि उत्तम समाज (Good Society) में अनेक सद्गुण (Virtues) अपेक्षित हैं; उनमें न्याय का स्थान सर्वप्रथम है। न्याय उत्तम समाज की आवश्यक शर्त है, परन्तु यह उसके लिये पर्याप्त नहीं (Necessary but not a sufficient condition) है। किसी समाज में न्याय के अलावा दसरे नैतिक गुणों की प्रधानता हो सकती है, परन्तु अन्यायपूर्ण समाज विशेष रूप से निन्दनीय होगा। जो विचारक यह माँग करते हैं कि सामाजिक उन्नति के कार्यक्रम में न्याय के विचार को आड़े नहीं आने देना चाहिये, वे समाज को नैतिक पतन की ओर ले जाने का खतरा मोल ले रहे होते हैं।
राल्स के अनुसार न्याय की समस्या प्राथमिक वस्तुओं (Primary Goods) के न्यायपूर्ण वितरण की समस्या है। ये प्राथमिक वस्तुयें हैं - अधिकार और स्वन्त्रतायें (Rights and Liberties), शक्तियाँ और अवसर (Powers and Opportunities), आय और सम्पदा (Income and Wealth) तथा आत्मसम्मान (Self-Respect) के साधन। राल्स ने अपने न्याय सिद्धांत को शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय (Pure Procedural Justice) की संज्ञा दी है। इसका अर्थ यह है कि न्याय के जो सिद्धांत सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिये जायेंगे, उनके प्रयोग के फलस्वरूप जो भी वितरण-व्यवस्था अस्तित्व में आयेगी, वह अनिवार्यतः न्यायपूर्ण होगी। राल्स ने उन सिद्धांत की कटु आलोचना की है जो व्यक्ति की नैतिक मूल्यवत्ता की उपेक्षा करते हए किसी पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की पूर्ति करना चाहते हैं। उपयोगितावाद (Utilitarianism) का सिद्धान्त 'अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख' (Greatest Happiness of the Greatest Number) का हिसाब लगाते समय यह नहीं देखता कि इससे किसी व्यक्ति-विशेष को कितनी क्षति हो सकती है, जैसे कि उसे दास बनाकर उसका जीवन बर्बाद किया जा सकता है। राल्स के अनुसार, सुखी लोगों के सुख को कितना ही क्यों न बढ़ा दिया जाये, उससे दुःखी लोगों के दुःख का हिसाब बराबर नहीं किया जा सकता।
न्याय की सर्वसम्मत प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए राल्स ने एक विशेष तर्कप्रणाली का सहारा लिया है। सामाजिक अनुबन्ध (Social Contract) की तर्क-प्रणाली का अनुसरण करते हुए राल्स ने ऐसी मूल स्थिति (Original Position) की कल्पना की है जिसमें पृथक्-पृथक् व्यक्ति विवेकशील कर्ता (Rational Agents) की हैसियत से 'अज्ञान के पर्दे' (Veil of Ignorance) के पीछे बैठे हैं, अर्थात् वे अपनी-अपनी आवश्यकताओं (Wants), हितों (Interests), निपुणताओं (Skills), योग्यताओं (Abilities) इत्यादि से बिल्कुल बेखबर हैं, और यह भी नहीं जानते कि समाज में कौन-कौन सी बातें संघर्ष (Conflict) पैदा करती हैं। ये मनुष्य अपने-अपने लिये 'प्राथमिक वस्तुओं' की अधिकतम वृद्धि का तरीका ढूँढना चाहते हैं, परन्त इसके लिये जोखिम उठाने या जुआ खेलने को तैयार नहीं हैं।
जॉन रॉल्स के अनुसार , "ऐसी अनिश्चितता की हालत में प्रत्येक मनुष्य अपने-आपको 'हीनतम स्थिति' (The Least Advantaged Position) में मानते हुए यह कामना करेगा कि जो कोई 'हीनतम स्थिति' में है, उसके लिये 'अधिकतम लाभ' (Greatest Benefit) की व्यवस्था होनी चाहिये।" इस तर्क-प्रणाली के अनुसार, अन्ततः न्याय के तीन नियम - इसी क्रम से स्वीकार किये जायेंगे -
1. समान स्वतन्त्रता का नियम (Principle of Equal Liberty) अर्थात् व्यक्ति है की स्वतन्त्रता को किसी भी तरह के अन्य लाभ के लिये कुर्बान नहीं किया जा सकता। इसमें सामाजिक सहभागिता (Political Participation) का समान अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता (Freedom of Expression), धार्मिक स्वतन्त्रता (Religious Liberty), कानून के समक्ष समानता, इत्यादि सम्मिलित हैं।
2. अवसर की उचित समानता का नियम (Principle of Fair Equality of Opportunity); और
3. भेदमूलक नियम (Difference Principle) - इसके अनुसार, 'प्रारम्भिक वस्तुओं' के 'समान वितरण' से किसी भी तरह की छूट को तभी उचित ठहराया जा सकता है जब यह सिद्ध किया जा सके कि इससे हीनतम स्थिति' वाले मनुष्यों को अधिकतम लाभ' होगा। दूसरे शब्दों में, किसी व्यक्ति की असाधारण योग्यता और परिश्रम के लिये विशेष पुरस्कार तभी न्यायसंगत होगा जब उससे समाज के दीन-हीन वर्गों को अधिकतम लाभ पहुँचे। ये शर्ते पूरी हो जाने के बाद प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था (Competitive Economy) के अन्तर्गत कार्यकुशलता के मानदण्ड को लागू किया जा सकता है।
जॉन रॉल्स के न्याय के सिद्धांत की आलोचना
जॉन रॉल्स के आलोचक यह आरोप लगाते हैं कि उसने कुछ शर्तों के साथ पूँजीवादी व्यवस्था को कायम रखने का ‘न्यायसंगत' आधार ढूँढ लिया है। परन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि ये शर्ते पूरी हो जाने के बाद पूँजीवादी व्यवस्था का एक नया मानवीय रूप उभरकर सामने आयेगा। ‘‘पुनर्वितरणवादी’’ भी अपनी समालोचनाए¡ प्रस्तुत करते हैं। तदनुसार, म्यैर एफ. प्लैटनर न्याय-संबंधी दृष्टिकोण के खिलाफ़ दो दावे पेश करते हैं। पहला, उनका विश्वास है कि यद्यपि समानता एक स्नेह-पालित मूल्य है, इसे सामर्थ्य की कीमत पर हासिल करना संभव नहीं हो सकता। प्लैटनर के अनुसार, यह समानता बनाम बढ़ी समृद्धि की समस्या रॉल्स को एक परस्पर विरोध में डाल देती है। इस प्रकार, एक ओर रॉल्स ‘‘उनको इस बात को स्वीकार करने से एकदम इंकार करते हैं कि वे जो ज़्यादा आर्थिक योगदान देते हैं, ज़्यादा आर्थिक प्रतिफल का हक रखते हैं’’। यद्यपि, दूसरी ओर उनका ‘‘विभिन्नता सिद्धांत’’ (जो यह निर्दिष्ट करता है कि ‘‘सामाजिक व आर्थिक असमानताओं को व्यवस्थित किया जाना है, ताकि वे न्यूनतम लाभांवितों के अधिकतम लाभ हेतु हों’’) फिर भी दृढ़तापूर्वक कहता है कि उन्हें अधिक आर्थिक पारितोषिक प्रदान करना न्याय-संगत है, जहां तक कि वे उन तरीकों से अपने योगदान में वृद्धि करने हेतु प्रोत्साहनों के रूप में काम करते हों जो अन्तोगत्वा अलाभांवितों को लाभ पहुंचाते हों।
दूसरा दावा जो प्लैटनर करते हैं, वो हैं कि पुनर्वितरणवादी चाहता है कि व्यक्ति को उसके ‘‘खरे परिश्रम’’ के पारितोषिक से इंकार कर दिया जाए, और उसकी बजाय वह सारे उत्पादन को समग्र समान की ‘‘सार्वजनिक सम्पत्ति’’ के रूप में मानते हें। साथ ही, प्लैटनर हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि यह ‘‘निजी सम्पत्ति संबंधी नैतिक आधारों और उसके साथ ही उदारवादी समाज’’ को गुप्त रूप से क्षति पहुंचाता है।
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