भारत में भाषा संबंधी समस्या पर निबंध : 1000 से अधिक भाषाओं वाला भारत निश्चित रूप से आज विश्व में सर्वाधिक बहुभाषायी राष्ट्र है। इस देश की दो राजभाषाएं, संविधान में अनुसूचित अट्ठारह मुख्य भाषाएं और 418 ऐसी सूचीबद्ध भाषाएं हैं जो 10,000 अथवा उससे ज्यादा व्यक्तियों द्वारा बोली जाती है। इसके अतिरिक्त यहां 146 से अधिक विभिन्न अभिलिखत उपभाषाएं तथा बड़ी संख्या में अन्य उपभाषाएं बोली जाती हैं। भाषाओं का यह बाहुल्य भारत के विस्तृत और भाषा विविध इतिहास को प्रतिबिंबित करता है। अतीत काल से ही भारत में कभी भी भाषाई परिपाटियों में किसी भी तरह की एकरूपता नहीं थी। भाषा को सर्वप्रथम मौखिक रूप से संरक्षित किया जाता था। इस तरह के संप्रेषण की विधि में अल्पायु से ही भाषाई शब्दों को स्मरण किया जाना शामिल था। उत्तर वैदिक काल में संस्कृत की पहचान शिष्ट अर्थात् अभिजात वर्ग के लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के रूप में होने लगी।
1000 मिलियन से ज्यादा
की आबादी और 1000 से अधिक भाषाओं वाला भारत निश्चित रूप से आज विश्व में
सर्वाधिक बहुभाषायी राष्ट्र है। इस देश की दो राजभाषाएं,
संविधान में अनुसूचित अट्ठारह मुख्य भाषाएं और 418 ऐसी सूचीबद्ध भाषाएं हैं जो 10,000
अथवा उससे ज्यादा व्यक्तियों द्वारा बोली जाती है। इसके अतिरिक्त यहां 146 से
अधिक विभिन्न अभिलिखत उपभाषाएं तथा बड़ी संख्या में अन्य उपभाषाएं बोली जाती
हैं। भाषाओं का यह बाहुल्य भारत के विस्तृत और भाषा विविध इतिहास को प्रतिबिंबित
करता है।
विगत कुछ हजार वर्षों
के दौरान भारत उपमहाद्वीप विभिन्न साम्राज्यों के शासन के अंतर्गत संगठित होने
के साथ ही छोटे छोटे साम्राज्यों में विभाजित भी हुआ है। अतीत काल से ही भारत में
कभी भी भाषाई परिपाटियों में किसी भी तरह की एकरूपता नहीं थी। भाषा को सर्वप्रथम
मौखिक रूप से संरक्षित किया जाता था। इस तरह के संप्रेषण की विधि में अल्पायु से
ही भाषाई शब्दों को स्मरण किया जाना शामिल था। उत्तर वैदिक काल में संस्कृत की
पहचान शिष्ट अर्थात् अभिजात वर्ग के लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के रूप में
होने लगी। यह जनसाधारण द्वारा बोली जाने वाली भाषा नहीं थी वरन यह अभिजात वर्गों
की ऐसी संरक्षित भाषा थी जिसका प्रयोग वे अपनी श्रेष्ठता कायम रखने के लिए करते
थे। आम जनसाधारण द्वारा प्राकृत (इसका अर्थ है सामान्य अथवा असभ्य) अथवा पालि
भाषा बोली जाती थी। उत्तर कालीन संस्कृत नाटकों में अभिजात वर्ग के पात्र संस्कृत
में वार्तालाप करते हैं और अन्य पात्र प्राकृत में वार्तालाप करते हैं। अत: बोली
वर्ग पर निर्भर करती है। भाषा का विकास और प्रयोग विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों
के मध्य अवरोध उत्पन्न करने के लिए किया गया। प्रत्येक साम्राज्य एक पृथक देश
की भांति था। अत: धर्मग्रंथों के अनुसार किसी भी देश की सीमा अधिक से अधिक 480 मील
होती थी और इस सीमा के बाहर प्रत्येक वस्तु को विदेशी माना जाता था। इसका परिणाम
यह हुआ कि उनके बीच कभी भी अपनेपन की भावना का विकास नहीं हुआ। यह कारक भाषा में
बहुविविधताओं के विकास में सहायक सिद्ध हुआ। भारत के दक्षिणी भाग में तमिल का एक
ऐसी प्रमुख भाषा के रूप में अविर्भाव हुआ, जिसमें अटूट साहित्यिक परिपाटियां शामिल थीं।
अपेक्षाकृत वार्तालाप
संबंधी भाषाई रूप के साथ एक अत्यधिक व्यापक शिष्ट भाषा के सहअस्तित्व से आज भी
पृथक्करण उत्पन्न हो रहा है। बोली जाने वाली बंगाली भाषा लिखे जाने वाली बंगाली
भाषा से इतनी ज्यादा भिन्न है कि यह एक बिल्कुल ही अन्य भाषा के सामान प्रतीत
होती है। तेलगु भाषा के विद्वानों ने 20वीं शताब्दी के आरंभ में उचित भाषाई शैली
के ऊपर एक तीक्ष्ण युद्ध लड़ा। यह सामाजिक अवरोधों को बल प्रदान करता है। भाषा
शक्ति का ही एक रूप है। सत्तासीन व्यक्ति अपने सामाजिक समूह के भीतर स्वयं
को पृथक एकात्मकता स्तर पर रखने के लिए भाषाई रूपों का प्रयोग करते हैं। जब व्यक्तियों
से उनकी मातृ भाषा के बारे में पूछा जाता है तो वे प्राय: अपने वर्ग,
स्थान अथवा अपने पेशे के नाम के बारे में बताते हैं। भाषा उनकी सामाजिक अस्तित्व
और एकात्मकता में ही बुनी होती है।
मुगल शासन के दौरान
राजकीय भाषा फारसी हो गई। तथापि 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान हिन्दी और
उर्दू का भी अंतर-क्षेत्रीय संप्रेषण की भाषाओं के रूप में विकास हुआ। 1947 में
ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता प्राप्त करने पर इस नए राष्ट्र के नेताओं ने
एक सामान्य सार्वभौमिक भाषा द्वारा देश के लोगों को संगठित करने के अवसर को
पहचाना। गांधी जी ने हिंदुस्तानी- जो हिन्दी और उर्दू का मिश्रण है,
का सर्वोत्तम विकल्प के रूप में अथक समर्थन किया। लेकिन देश का विभाजन होने के
साथ ही नेताओं ने हिंदी पर जोर दिया। हालांकि हिंदी का देश का विद्यमान अन्य
भाषाओं पर सुनिश्चित आधिपत्य नहीं था फिर भी हिन्दी क्षेत्रीय संप्रेषण को आसान
बनाने तथा राष्ट्रीय पहचान को प्रोत्साहित करने हेतु सर्वाधिक स्पष्ट विकल्प
के रूप में देखा गया। सभी भारतीय भाषाओं में सर्वाधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाने
वाली भाषा हिन्दी थी। हालांकि इसका दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ कोई संबंध नहीं
था, तथापि यह विचार किया गया कि दक्षिण भारतीय लोग इससे
पूर्णतया अपरिचित नहीं थे। नेतागण भारत के बहुभाषायी परिवेश में एक ही भाषा अपनाने
में आने वाली अनेक अंतर्निहित कठिनाइयों से अवगत थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन और
नागरी प्रचारिणी सभा जैसे अनेक संगठनों ने हिंदी भाषा को प्रोत्साहित करने के लिए
एक स्पष्ट समय सीमा निर्धारित की। वास्तव में उनके अत्यधिक हठधर्मी दृष्टिकोण
ने ही हिंदी को अपनाने के मार्ग में बाधा उत्पन्न की। स्वयं नेहरू ने संसद में
घोषण की कि हिंदी प्रचारक समूहों के नेताओं की अति हठधर्मिता ही हिंदी भाषा के
प्रसार के मार्ग में बाधक सिद्ध हुई। भारत सरकार ने भाषा संबंधी सीमाओं के आधार पर
राज्यों का गठन किया।इन भाषाई सीमाओं के कारण हिंदी का कार्यान्वयन और अधिक कठिन
हो गया। उनसे लोगों में एक-दूसरे के प्रति पराएन की भावना जागृत हुई क्योंकि न
केवल वे भाषाई अवरोधों द्वारा विभाजित हो गए वरन उन्हें सरकार द्वारा भी विभाजित
किया गया और अभी भी किया जाता है। दक्षिण भारतीय राज्यों ने यह महसूस किया कि उच्च
सरकारी स्तरों पर और वाणिज्य और रोजगार के मामलों में हिंदी का प्रमुखता से
प्रयोग होने से अहिन्दी भाषी आबादी का अहित होगा। इन्होंने हिंदी को राजभाषा
बनानेका विरोध किया और इस प्रकार वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियत पारित किया गया
जिसमें यह निर्धारित था कि हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भी राजभाषा के रूप में बनी
रहेगी इस कानून को 1967 के संशोधन द्वारा पुन: सुदृढ किया गया। भाषा सबंधी दुविधा
के निवारणार्थ सरकार ने त्रिभाषीय फार्मूले का सूत्रपात किया। इससे यह उल्लेख था
कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों के लोगों को हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के साथ एक क्ष्ोत्रीय
उपभाषा का अध्ययन करेंगे। हिंदी भाषी लोगों को हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा के साथ एक
क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन करना होता था। यह विभिन्न दबाव समूहों की मांगों के
मध्य एक समझौता था और इसे किसी जटिल समस्या के लगभग पूर्ण निदान के रूप में देखा
गया। तथापि इसका हिंदी भाषी राज्यों के विद्यालयों में पाठ्यक्रम में कभी न तो
समर्थन ही किया गया और न ही लागू किया गया। क्षेत्रीय समुदायों ने यह अनुभव किया
कि उनकी भाषा, महत्व और अंकित मूल्य में अंग्रेजी और हिंदी
भाषा के पश्चात तीसरे स्थान पर है। यह भारत में पूर्ण रूप से असफल रहा है।
विद्यमान भाषाई विभाजन से अधिकांश लोगोंमें अत्यधिक क्षेत्रीयवादी दृष्टिकोण को
बढ़ावा मिला है। यदि भारत को भाषा के आधार पर इस ढंग से विभाजित किया जाता जिससे
कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लोग परस्पर मिश्रित होकर एक-दूसरे को अलग-अलग
भाषाओं का आदान-प्रदान करें तो यह उससे ज्यादा मेल-मिलाप तथा समझ-बूझ बढ़ाता
जितना कि आज विद्यमान है। यदि लोगों को केवल हिंदी सीखने के लिए ही प्रोत्साहित
किया जाता तो शायद यह आज और भी अधिक व्यापक रूप से बोली जाती।
आज हिन्दी के साथ-साथ
अंग्रेजी को भी राज भाषा का दर्जा प्राप्त है। यह अंतर्राष्ट्रीय भाषा और
प्रतिष्ठित भाषा, दोनों के रूप में कार्यरत रही है। अंग्रेजी अध्ययन
और इसे बोलने वाले व्यक्तियों को होने वाला लाभ पहले की अपेक्षा अधिक प्रणाली
होता जा रहा है। छोटे और ग्रामीण क्षेत्रों में भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों
और अंग्रेजी भाषी संस्थानों की अंधाधुंध वृद्धि होना इस भाषा के प्रति लोगों के
आकर्षण का साक्ष्य हैं। जिन क्षेत्रों के लोग यह सोचते हैं कि उन्हें हिंदी की
कम आवश्यकता है वहां अनेक क्षेत्रों में हिंदी बुरी स्थिति में है। सरकार प्रत्येक
वर्ष कार्यालयों में एक विशेष हिन्दी सप्ताहका आयोजन करती है ताकि अधिकारियों को
हिन्दी में कार्य करने के लिए स्मरण कराया जा सके, जिससे हमारी राजभाषा
की दयनीय स्थिति स्पष्टत: प्रदर्शित होतीहै। एक सर्वेक्षण के अनुसार हिंदी
साहित्य की बाजार में बहुत कम मांग है। मुख्यतया यह मांग शहरी क्षेत्रों में अत्यधिक
कम है जहां औसत ने हिंदी के विकास में अड़चनें पैदा की हैं वहीं अन्य प्रमुख
भारतीय भाषाओं ने हिंदी के विकास में दीवार खड़ी की है। ये भाषाएं अत्यधिक विकसित
होती हैं जिनमें इनकी प्रभावी साहित्यिक परिपाटियां निहित होती हैं। लोग यह समझने
में असमर्थ होते हैं कि हिंदी को अन्य भाषाओं के वक्ताओं में मनोवैज्ञानिक
नाराजगी उत्पन्न होती हैं। भारत में अंग्रेजी ही इसका माध्यम बन गया है। जब भी
सरकार भाषा से संबंधित किसी भी प्रकार का मानकीकृत करने का अथवा छोटी-सी सुविधा
प्रदान करने का प्रयास करती हैतो हमेशा ही कोई समस्या उत्पन्न हो जाती है। इन
सुविधाओं से भाषा विषयक बहुलता के लिए खतरा पैदा होता है। सामाजिक विविधता के लिए
इसके थोड़े से समायोजन से भी व्यापक और क्षणिक प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हो सकती हैं।
उर्दू भाषा संबंधी टीवी कार्यक्रम शुरू करने हेतु 1994 में बैंगलोर में लाए गए
प्रस्ताव से यह स्वत: ही उजागर हो गया। इस प्रस्ताव की घोषणा के पश्चात सप्ताह
भर शहर में दंगे हुए, जिसके कारण दर्जनों हताहत हुए और और संपत्ति की
अपार क्षति हुई है। 1993 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह बताया गया था कि विश्व
में 6700 भाषाएंहैं। यह आशा की गई थी कि इनमें से 25 प्रतिशत भाषाएं आगामी बीस
वर्षों में लुप्त हो जाएंगी भारत भी ऐसी ही समस्या का सामना कर रहा है। यह स्थिति
अत्यधिक भयावह है और अनेक गौण भाषाएं और उनकी समृद्ध भाषाई परम्पराएं लुप्तप्राय
होने के कगार पर हैं। अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों पर बोली जाने वाली अंडमानी
एक ऐसी ही संकटापन्न भाषा है। भारतीय संविधान के ढांचे में भाषा संबंधी उपबंध
शामिल किए गए हैं। वस्तुत: संविधान में चार ऐसे अनुच्छेद हैं जो भाषाई अल्पसंख्यकों
के अधिकारों का संरक्षण करते हैं। अनुच्छेद 350 प्रत्येक राज्य और स्थानीय
प्राधिकरण के लिए भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को प्राथमिक शैक्षिक स्तर
पर मातृभाषा में शिक्षा देने हेतु उचित सुविधाएं प्रदान करने के लिए बाध्यकारी
बनाता है। अनुच्छेद 30, 20 और 350 भाषाई अल्पसंख्यकों को व्यापक
अधिकार प्रदान करता है ताकि वे अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि और संस्कृति का
संरक्षण कर सके। हालांकि संविधान में उपबंध विद्यमान हैं तथापि ये उपबंध इस बात की
गारंटी नहीं देते कि ये भाषाएं मान्यता प्राप्त हैं ही अथवा किसी भी स्तर पर
शिक्षा संबंधी सुविधाएं प्रदान की ही जाएंगी। इन भाषाओं का उचित मान्यता देने के
लिए इन भाषाओं को आठवीं सूची में शामिल किया जाना चाहिए। इस अनुसूची में प्रतीकात्मक
हित निहित होते हैं। यह एक ऐसा संघर्ष है जो भाषा संबंधी युद्ध में अभी भी चल रहा
है। हाल के वर्षों में भाषा संबंधी मुद्दों पर पहले की अपेक्षा कम ध्यान दिया गया
है। 1965 के भारत-पाक युद्ध में भाषा संबंधी केवल कुछ समय के लिए ही पृष्ठभूमि पर
छाया रहा, लेकिन 1971 के दूसरे युद्ध ने इस मुद्दे को
प्रशमित कर दिया। जनसंख्या विस्फोट, गरीबी और बेरोजगारी आदि जैसी कई और गंभीर समस्याएं
भी सरकार के ध्यान को भाषा विषयक मामलों की ओर से हटाने में सहायक सिद्ध हुईं। जब
आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं पर निश्चित रूप से ध्यान दिया जाता है तो लोगों के
पास भाषा संबंधी मतभेदों जैसे विषयों पर चिंता मनन करने का समय ही नहीं होता। डी
एम के जैसे राजनीतिक दल जिसने अपने हिंदू विरोधी विचारों के कारण आरंभिक
लोकप्रियता तथा शक्ति प्राप्त की अब मतों के लिए भाषा,
राष्ट्र मुद्दों पर निर्भर नहीं करता। तथापि किसी को इससे यह अनुमान नहीं लगाना
चाहिए कि भाषा संबंधी विषय का समाधान हो गया है। फरवरी 1996 में तमिलनाडु के
शिक्षा मंत्री ने यह वक्तव्य दिया था कि राज्य सरकार तमिल तथा अंग्रेजी वाले एक
द्वि-भाषी फार्मूले का समर्थन करेगी तथा हिंदी के किसी भी रूप को लागू करने के सभी
प्रयासों को विफल बनाएगी। इन वक्तव्यों से भाषा तनाव अभी भी कायम है। अभी भी
अधिकांश भारतीय भाषा संबंधी विषयको सतत महत्ता को सुनिश्चित करते हुए प्रतिदिन
अनेक भाषाओं का प्रयोग करते हैं।
Admin


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