अम्लीय वर्षा पर निबंध तथा टिप्पणी। Essay on Acid Rain and Its Effects in Hindi! दोस्तों आज अम्लीय वर्षा या एसिड रेन पर निबंध लिखा गया है। जब बरसात में पानी के स्थान पर अम्ल बरसता है तो इसे अम्लीय वर्षा कहते हैं। अम्लीय वर्षा का पीएच मान 7 से कम होता है। अम्लीय वर्षा पर लिखे गए इस Essay में आप ऐसे में आप इसके प्रभाव (Effects) व रोकथाम के बारे में जानेंगे। हम सभी उस वर्षा के बारे में जानते हैं जो पानी बरसाती है। परंतु जब पानी के स्थान पर अम्ल बरसता है तो इसे अम्लीय वर्षा कहते हैं। बरसात का शुद्ध पानी पृथ्वी की तरफ आते समय रास्ते में सल्फर और नाइट्रोजन के आक्साइड से क्रिया करके अम्ल बनाता है। ये आक्साइड कहां से निकलते हैं? निस्संदेह उन उद्योगों से, जहां कोयला और तेल जलाया जाता है, तथा मोटर वाहनों के धुएं से निकलते हैं। इस तरह यह साबित हो जाता है कि अम्लीय वर्षा उन औद्योगिक गतिविधियों से होती हैं जो वायु को प्रदूषित करती हैं। इसके प्रमुख स्त्रोत वे बिजलीघर हैं जहां बिजली के उत्पादन के लिए कोयला जलाया जाता है। अधिकांश कोयले में सल्फर (गंधक) होती है जो कोयला जलाने पर सल्फर डाईऑक्साइड में बदल जाती है।
अम्लीय वर्षा पर निबंध तथा टिप्पणी। Essay on Acid Rain and Its Effects in Hindi
पानी की अम्लता या क्षारीयता पी. एच. (pH) पैमाने पर मापी जाती है। किसी द्रव में हाइड्रोजन आयन की सांद्रता ही पी एच की सूचक है। इस पैमाने में, कम पी एच का अर्थ है हाइड्रोजन आयन की अधिक सांद्रता तथा अधिक अम्लीयता। शुद्ध पानी का पी एच 7 होता है, जिसे उदासीन पी एच कहते हैं। पानी का पी. एच. 7 से कम होने पर वह अम्लीय बन जाता है 7 से ऊपर होने पर क्षारीय।
वर्षा के पानी में कार्बन डाईऑक्साइड घुल होने के कारण उसका पी एच अक्सर 7 से कम (पी. एच. 5.7, हल्का अम्ल) होता है, परंतु इतनी अम्लीयता क्षयकारी नहीं होती है। अम्लीय वर्षा के पानी का पी. एच. 2-5 होता है। इतने कम पी एच का अर्थ है अधिक अम्लीयता जिसके परिणामस्वरूप अधिक क्षयकारी होना। इसलिए 4 पी. एच. का पानी 5 पी एच के पानी से दस गुना अधिक क्षयकारी होता है। जिस पानी का पी. एच. 3 हो वह 5 पी. एच. वाले पानी से 100 गुना अधिक क्षयकारी होता है। यदि ऐसा ही है कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि अम्लीय वर्षा जिसका पी.एच. 2 और 3 के बीच है, कितनी क्षयकारी होगी।
जैसा कि बताया जा चुका है कि बरसात के पानी के पी. एच 7 से कम होता है। फिर ऐसा क्या है जो वर्षा के साधारण जल को अम्लीय बनाता है, और फिर वही अम्लीय जल वर्षा के रूप में धरती पर बरसता है? यह परिवर्तन उद्योगों से निकली गैसों (सल्फर के आक्साइड) और वाहनों के धुएं से निकली गैसों (नाइट्रोजन के आक्साइड) के कारण आता है। ये गैसों पानी की बूंदों और बर्फ के क्रिस्टलों में घुलने से पहले आक्सीकारकों, उत्प्रेरकों और सूर्य की किरणों के प्रभाव में क्रिया करके तनु (पतला) अम्लीय घोल बनाती हैं। यह अम्लीय घोल धरती पर वर्षा, बर्फ, ओला, ओस और कुहरे के रूप में गिरता है। अम्लीय वर्षा की विशेष बात यह है कि उसे बनाने वाले कारक अलग जगह से उत्सर्जित होते हैं और अम्लीय वर्षा दूसरी जगह होती है। एक देश में उत्सर्जित प्रदूषक तत्व वातावरण में प्रवेश करते हैं, हवा के साथ उड़कर हजारों किलोमीटर दूर पहुंचते हैं और दूसरे देश की धरती पर अम्लीय वर्षा के रूप में बरस जाते हैं। उदाहरण के लिए इंग्लैंड और जर्मनी में उत्सर्जित प्रदूषक अम्लीय वर्षा के रूप में स्वीडन और नार्वे में जाकर बरसे थे। कनाडा हालांकि अमेरिका की तुलना में कम प्रदूषित गैसें वातावरण में छोड़ता है फिर भी अम्लीय वर्षा कनाडा में अधिक होती है। बरसात की कोई राष्ट्रीय सीमा नहीं होती है इसलिए दूसरे प्रदूषकों की तुलना में अम्लीय वर्षा एक विश्वव्यापी घटना है।
अठारहवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के समय से ही मनुष्य विभिन्न प्रकार के पदार्थों के निर्माण के लिए ऊर्जा के विभिन्न स्त्रोतों की खोज में लगा हुआ है। अन्तत: अधिक मात्रा में कोयला और ईंधन जलाना पड़ता है और ईंधन में मौजूद सल्फर डाईऑक्साइड में बदल जाती है- इस शताब्दी में यह गैस वातावरण में सबसे अधिक उत्सर्जित की गयी है।
अम्लीय वर्षा की समस्या 1950 के दशक के आरंभिक दिनों में प्रांरभ हुई। वातावरण में उत्सर्जित होने वाले धुएं की मात्रा कम करने के उद्देश्य से कोयला जलाना कम करने के लिए गैस सिलिंडरों का प्रयोग शुरू किया गया और ताप बिजलीघरों में कोयला जलने से उत्पन्न ज्वलनशील गैसों के साथ निकलने वाली उड़नशील राख को अलग करने के लिए संयंत्रों में प्रेसिपिटेटर लगाए गए। नए बिजलीघरों को शहरों से बहुत दूर स्थापित किया गया और इनमें बहुत ऊंची-ऊची चिमनियां (अक्सर 150 मीटर से भी ऊंची) लगाई गयीं, ताकि संयंत्र से निकली सल्फर डाईऑक्साइड दूर-दूर तक फैल जाए और धरती पर अधिक सांद्रता में न पहुंचे। परंतु ये उपाय भी काफी नहीं साबित हुए। ज्यादा सल्फर डाईऑक्साइड देर तक हवा में रहने से वह सल्फ्यूरिक अम्ल में बदल जाती है।
एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार वातावरण में हर साल लगभग 15 करोड़ टन सल्फर डाईऑक्साइड छोड़ी जाती है, जो बाद में सल्फ्यूरिक अम्ल में बदल जाती है। दो-तिहाई अम्लीय वर्षा सल्फ्यूरिक अम्ल के कारण होती है। मोटर वाहनों से निकले नाइट्रोजन के ऑक्साइड वातावरण में क्रिया करके नाइट्रिक अम्ल बनाते हैं। ऐसा अनुमान है कि प्रति वर्ष लगभग 40 करोड़ टन नाइट्रोजन के ऑक्साइड वातावरण में छोड़े जाते हैं।
अम्लीय वर्षा के हानिकारक प्रभाव
नार्वे की लगभग 80 प्रतिशत झीलों और स्वीडन की लगभग 25 प्रतिशत झीलों में न तो मछलियां हैं और नही कोई अन्य जलीय जीव। संयुक्त राज्य अमेरिका की लगभग 20 प्रतिशत झीलें बंजर हो गयी हैं- पानी बिल्कुल साफ है परंतु जीवनरहित। इन झीलों के निर्जीव होने के लिए कौन जिम्मेदार है? नि:सन्देह, अम्लीय वर्षा। यह पता चला है कि स्कैन्डीनेविया और कनाडा की ज्यादातर झीलों और नदियों में ट्राउट और सालमन मछलियों की संख्या अब बहुत कम हो गयी है। जब पी एच 5.5 से कम हो जाता है (अर्थात् अम्लीयता बढ़ जाती है), तब मछलियां प्रजनन नहीं कर पातीं। उनके अंडों से बच्चे नहीं निकल पाते। यदि कुछ निकल भी गये तो वे मर जाते हैं और यदि मरने से भी बच गये तो उनमें अनेक प्रकार की विकृतियां पैदा हो जाती हैं। वयस्क मछलियों में अम्लीय पानी उनकी हड्डियों से क्रिया करता है। उनकी हडि्डयों में कैल्शियम की मात्रा कम हो जाती है। मांसपेशियां तो स्वस्थ रहती हैं पंरतु हड्डियों के कमजोर होने से शरीर में विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं। उनके गलफड़ों में एल्यूमीनियम के यौगिक जमा हो जाने से उन्हें सांस लेने में भी तकलीफ होती है। जब पानी का पी एच इतना कम हो जाए कि वह अम्लीय होने लगे तब पानी में जमा पदार्थों के घुलने से एल्यूमीनियम यौगिक बनते हैं। उभयचर प्राणियों जैसे सैलामेन्डर के अंडे यदि अम्लीय पानी में दिए गए हों तो उनमें ठीक से विकास नहीं हो पाता है। साथ ही पानी में उगने वाले पौधों की किस्में और संख्या भी कम हो जाती है। लिली जैसे बड़े पौधे बिल्कुल समाप्त हो सकते हैं। अन्तत: झीलें चश्में दोनों ही जीवरहित हो जाते हैं। यहां तक कि पक्षी भी नहीं बच पाते हैं। अम्लीय पानी की झीलों के निकट रहकर प्रजनन करने वाले पक्षी जलकीटों को खाकर उनमें मौजूद एल्यूमीनियम की विषाक्तता का शिकार हो जाते हैं।
अम्लीय पानी की बरसात से मिट्टी की ऊपरी बह जाती है जिसके पश्चात यह अम्लीय पानी मिट्टी की निचली सतह में पहुंच जाता है और भूमिगत जल को अम्लीय बना देता है। पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्व या तो बह जाते हैं अथवा पौधों को प्राप्त नहीं होते हैं। इसके विपरीत एल्यूमीनियम, सीसा और पारा जैसी अन्य धातुएं जो पौधों के लिए विषैली होती हैं अधिक घुलनशील हो जाती हैं और पौधों की वृद्धि कम कर देती हैं। इसका कुल परिणाम होता है पौधों को क्षति, उनकी कम वृद्धि और उनके रोगी हो जाने की अधिक संभावना।
आइए, अब निर्जीव वस्तुओं पर अम्लीय वर्षा का प्रभाव देखें। क्या पत्थरों को कौढ हो सकता है? संगमरमर (यह पत्थर मुख्यतया कैल्शियम कार्बोनेट का बना होता है) से बने स्मारकों, मूर्तियों, भवनों आदि को अम्लीय वर्षा का खतरा अधिक होता है। अम्लीय वर्षा में मौजूद सल्फ्यूरिक अम्ल कैल्शियम कार्बोनेट से क्रिया करके उसे जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट) में बदल देता है जिसका आयतन संगमरमर से लगभग दोगुना होता है। इसके फलस्वरूप सतह पर दबाव उत्पन्न होता है जिससे पत्थर की परतें उतर जाती हैं, उसमें गड्डे हो जाते हैं और उसका क्षय हो जाता है। और तो और, बरसात सतह पर बने जिप्सम को धो डालती है जिससे सतह के ऊपर बनायी गयी आकृतियों को काफी क्षति पहुंचती है। जनसामान्य की भाषा में इस प्रक्रिया को ‘पत्थर का कोढ़’ कहा जाता है।
यह अनेक वर्षों से ज्ञात है कि शुद्ध वायु की अपेक्षा प्रदूषित वायु में स्टील और तांबे जैसी धातुओं की तेजी से क्षति होती है। चूने के पत्थर पर भी अम्लों का प्रभाव पड़ता है इसलिए अनेक शहरों में चूने के पत्थर से बनी इमारतों और मूर्तियों को क्षति हो रही है।
विश्व के सात आश्चर्यों में से एक, ताजमहल को भी अगरा के समीप ही मथुरा में स्थित तेल शोधक कारखाने से निकली अम्लीय गैसों के कारण पत्थरों का कोढ़ हो रहा है। यूनानी शिल्पी फिडियास द्वारा पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित नारी स्तंभ अथवा संगमरमर से निर्मित कुमारियों की 6 मूर्तियां 2500 वर्षों से यूनान की राजधानी एथन्स की शोभा थीं। परंतु 1977 में उन्हें हटाकर संग्रहालय में रख दिया गया है। इसका कारण भी अम्लीय वर्षा है। 1960 के दशक में इन मूर्तियों का काफी क्षरण हो गया था, इसलिए इनके जैसी फाइबर की मूर्तियां बनाकर वहां लगाई गई हैं। ब्रिटेन में भी अम्लीय वर्षा से काफी नुकसान हुआ है जिसके प्रमाण कैन्टरबरी, आक्सफोर्ड और लंदन की ऐतिहासिक इमारतों के क्षरण से मिलते हैं।
अम्लीय वर्षा ने अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को एक नया आयाम दिया है। यह राष्ट्रों के कूटनीतिक संबंधों के बीच किरकिरी साबित हो सकती है। उदाहरण के लिए पश्चिमी जर्मनी और स्वीडन के रिश्तों में दरार है क्योंकि स्वीडन की लगभग 20 प्रतिशत झीलें जर्मनी के रूहर औद्योगिक क्षेत्र से निकली अम्लीय गैसों से हुई अम्लीय वर्षा से प्रभावित हैं। यहां तक कि स्वीडन के स्कूली बच्चों ने इन गैसों के उत्सर्जन के लिए पश्चिमी जर्मनी के विरुद्ध एक पोस्टकार्ड अभियान भी चलाया था।
भारत में अभी इस विपत्ति का गंभीर खतरा नहीं पैदा हुआ है क्योंकि यहां के कोयले में सल्फर की मात्रा कम (0.5-0.7 प्रतिशत) होती है। दूसरे देशों, विशेषकर अमेरिका में बिटुमिनस की खानों में सल्फर की मात्रा 6-8 प्रतिशत होती है। इस कोयले को जलाने से अधिक मात्रा में सल्फर डाईऑक्साइड निकलती है। फिर भी भारत में लगातार अत्यधिक सतर्कता की आवश्यकता है, क्योंकि मुंबई, कलकत्ता और दिल्ली जैसे शहरों में वातावरण में सल्फर डाईऑक्साइड की मात्रा काफी अधिक है।
अम्लीय वर्षा की रोकथाम और नियंत्रण
- जिन बिजलिघरों में ईंधन के रूप में कोयले का इस्तेमाल होता है उन्हें कम सल्फर वाला कोयला इस्तेमाल करना चाहिए अथवा ऐसा ईंधन इस्तेमाल करना चाहिए जिससे प्रदूषण कम हो।
- जहां कहीं जरूरी हो, जैसे कि प्रगलकों में, वहां सल्फर डाईऑक्साइड को अवशोषित करने की व्यवस्था करनी चाहिए।
- मोटर वाहनों में कैटालिटिक कन्वर्टर लगाने चाहिए ताकि वे धुएं को साफ रखें (नाइट्रोजन के ऑक्साइड अहानिकारक हो जाते हैं और कार्बन मोनोआक्साइड कार्बन डाईआक्साइड में बदल जाती है।) इंजनों को अच्छी तरह ट्यून होना चाहिए जिससे धुएं से निकलने वाली गैसों की मात्रा कम हो।
- उत्सर्जन नियंत्रण का सख्ती से पालन होना चाहिए।
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