वित्तीय समावेशन निबंध। Financial Inclusion Essay in Hindi for UPSC
वित्तीय समावेशन विगत कुछ वर्षों से भारतीय अर्थव्यवस्था का एक चर्चित शब्द बना हुआ है। आर्थिक उदारीकरण एवं अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के इस युग में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकासशीलता का लाभ समाज के निर्धनतम व्यक्ति तक पहुंचे और वह भी आर्थिक विकास में भागीदार बने यही वित्तीय समावेशन का मूल आधार होना है। आर्थिक विकास की मुख्यधारा में सबको सम्मिलित करना जिससे आर्थिक विकास के लाभ से सभी लोग समान रूप से लाभान्वित हो सकें को समावेशी विकास कहा जाता है। वस्तुत: यह एक प्रक्रिया है जिसमें विभिन्न वर्ग के लोग अपने को आर्थिक विकास से लाभान्वित महसूस करते हैं। सामान्यतया इसमें लक्षित वर्ग ग्रामीण तथा शहरी गरीब, लघु कृषक, अनुसूचित जाति, जनजाति के तथा अल्पसंख्यक समुदाय के निर्धन तथा वे लोग जो अभी तक आर्थिक विकास की सामान्य प्रक्रिया अथवा बाजार व्यवस्था पर आधारित विकास की सामान्य प्रक्रिया में शामिल नहीं हो पाये हैं।
समावेशी विकास के दो पहलू होते हैं एक है आर्थिक विकास की ऊंची दर जिससे राष्ट्रीय उत्पाद
का आकार बड़े तथा दूसरा है आर्थिक विकास से उत्पन्न लाभ का बंटवारा जिससे शहरी
तथा कमजोर वर्ग को अधिकाधिक लाभी प्राप्त हो। विकास की सह अवधारणा नई नहीं है।
2007 में एशियन डेवलमेंट बैंक के एक सम्मेलन ‘फोरम ऑन इंक्लुसिव ग्रोथ एंड पावर्टी रिडक्शन’ में इसकी चर्चा की गयी। इसी क्रम में जहां 11वीं पंचवर्षीय योजना
(2007-2012) के दृष्टिकोण पत्र ‘तीव्र तथा समावेशी विकास’ उपशीर्षक को स्थान देकर विकास की इस अवधारण को और बल प्रदान किया गया
वहीं 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) को भी इस केन्द्रित रखा गया। यह वास्तव में
पहले से चली आ रही सामाजिक न्याय की अवधारणा की ही एक रूप है। सामाजिक न्याय को
हमारे संविधान में न केवल स्थान दिया गया है बल्कि इसे काफी महत्व भी दिया गया
है।
रिजर्व
बैंक ऑफ इंडिया द्वारा जारी बुकलेट में वित्तीय समावेश को समावेशी विकास का
अपरिहार्य अंग बताया गया है। इसके अनुसार वित्तीय समावेशन से अभिप्राय अल्प आय
तथा कमजोर वर्ग के उस बड़े समूह को जो सामान्य रूप से प्रचलित बैकिगं प्रणाली से
लाभ प्राप्त करने से वंचित रहा जाता है, कि वहनीय लागत पर बैंकिगं सेवाएं एवं बैंकिगं उत्पादों
से प्राप्त होने वाले लाभ उपलब्ध कराना है। यह ऐसा वर्ग है जो जानकारी के अभाव
के चलते तथा जटिल एवं लम्बी प्रक्रियाओं के कारण बैंकिगं लाभ से प्रभावित नहीं हो
सका है।
वित्तीय समावेश : विकास का मूल आधार
वित्तीय
समावेशन समावेशी विकास का एक आवश्यक प्रभाग है। विकास के इस सिद्धांत में सरकारी
नीतियों में वित्तीय क्षेत्रों समावेशी प्रवृत्तियों को अलग से विशेष स्थान
दिया जाता है। समावेशी विकास अपने आप में समग्र और परिपूर्ण अवधारणा भले हो किन्तु
क्रियान्वयन के स्तर पर इसे राजकीय नीतियों की ओर उन्मुख होना पड़ता है। बजट
में या राष्ट्र की वित्तीय नीतियों में समावेशी विकास का उल्लेख कर देने मात्र
से इसके लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शासन तंत्र को अपनी
नीतियों में पर्याप्त बदलाव लाने की आवश्यकता होती है। गरीबों, वंचितों तथा विकास के लाभ से
कोसों दूर रहे व्यक्तियों, समुदायों को समावेशी विकास की
अवधारणा के अंतर्गत लाने के लिए सार्थक प्रयास की आवश्यकता होती है। इसके लिए
समाज को भी आगे आना पड़ेगा।
सामाजिक
बदलाव की अनवरत जारी रहने वाली प्रक्रिया में समाज के बहिष्कृत लोगों को शामिल
करना समावेशी विकास का प्रथम चरण है। कुछ सेचतन, सोद्देश्य, सामाजिक प्रयासों और
नीतियों द्वारा वित्तीय समावेशन को विस्तार देना, समावेशन
की शर्तों को न्यायोचित बनाना तथा वंचित सवर्गों के लिए समचित, लगातार चलने वाली और सारवान प्रक्रिया को लक्षित समूह तक मोड़ना इस
प्रक्रिया का दूसरा चरण है। प्राय: हम इसी चरण की उपेक्षा कर जाते हैं जिसका दुष्परिणाम
वंचितों को भोगना पड़ता है, जो आज तक भोग भी रहे हैं।
वित्तीय समावेशन का विचार मात्र आज की जरूरत हो ऐसा नहीं है। आज से सौ वर्ष पहले भी वित्तीय
समावेशन की जरूरत थी और आगे सौ वर्ष बाद भी यह प्रासंगिक रहेगा। यह विकास का मूल
आधार है और इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। किसी भी आधुनिक बाजार आधारित तथा
अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय अर्थव्यवस्था की परिकल्पना मौद्रिक तथा वित्तीय
व्यवस्था के बिना अर्थहीन है। विनिमय का आधार मुद्रा है और उपयोगी वस्तुओं का
उत्पादन आधार वित्त व्यवस्था है। इसी तरह निजी कंपनीगत तथा सामाजिक बचत का
निवेश वित्तीय उपकरणों या उत्पादों जिसमें बैंक से संबंधित सेवाएं शेयर, बीमा,
वायदा बाजार आते हैं के अभाव में एक महंगा और जेखिम भरा काम हो जायेगा। वित्तीय
क्षेत्रों तथा उसके अंतर्गत कार्यरत संगठित या असंगठित क्षेत्र की संस्थाएं चाहे
वे बैंक हो या अन्य तरह की वित्तीय संस्था चाहे उनका आधार राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय
आज वित्तीय समावेशन का आवश्यक उपकरण बन चुकी हैं। किसी भी अर्थव्यवस्था में
इनका होना आवश्यक है। ये शरीर की रक्त वाहनियों की भांति अपरिहार्य हो चुकी हैं।
वित्तीय समावेशन में समावेशी मे समावेशी विकासके लिए इनकी जरूरत के नजरअंदाज नहीं
किया जा सकता है।
वित्तीय समावेशी : भारत की तस्वीर
आजादी के
इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद भी देश की 41 फीसदी आबादी वित्तीय सेवा से अछूती
है। ग्रामीण भारत में यह आंकड़ा 61 फीसदी है। इसमें अधिकतर सीमांत कृषक, कृषि मजदूर, भूमिहीन मजदूर, असंगठित क्षेत्र के स्वरोजगार, वनोपज पर आश्रित समुदाय, शहरी निर्धन, सामाजिक रूप से बहिष्कृत या उपेक्षित समूह,
ग्रामीण कारीगर इत्यादि शामिल हैं। यह आंकड़े बताते हैं कि देश की वर्तमान
बैंकिंग प्रणाली वित्तीय समावेशन के लिए निर्धारित लक्षित समूह तक अपनी पहुंच
नहीं बना पा रहा है। सामान्य बैंकिंग प्रणाली का निष्पादन इस प्रकार से न तो उत्साहवर्धक
है और न ही परिणामूलक।
वित्तीय
समावेशन की रिपोर्ट कार्ड तैयार करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि देश की वयस्क
आबादी में से कितने वयस्कों के पास बैंक खाता है। हालांकि यह सर्वमान्य और अंतिम
तरीका नहीं है। वित्तीय समावेशन की उपलब्धि को जानने के लिए इससे एक झलक प्राप्त
की जा सकती है। आंकड़ों से पता चलता है कि 59 फीसदी वयस्क आबादी के पास बैंक खाते
हैं अर्थात 41 फीसदी आबादी अभी बैंकिंग प्रक्रिया से नहीं जुड़ सकी है। ग्रामीण
क्षेत्रों की वयस्क आबादी का मात्र 39 प्रतिशत ही बैंक में खाता खोल सका है, अर्थात 61 फीसदी हिस्सा बैंकिंग
प्रणाली में नही जुड़ा है। यह औसत स्थिति है। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र, पूर्वोत्तर राज्यों
के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र में देखें तो यह आंकड़ा और भी भयावह तस्वीर प्रस्तुत
करता है।
बैंकों से
ऋण संबंधी सेवाएं लेने वाली वयस्क आबादी के आंकड़े और भी निशानजनक हैं। देश की
कुल आबादी का मात्र 14 प्रतिशत ही ऋण खातों की सुविधा से मुक्त है। ग्रामीण भारत
में यह औसत 9.5 फीसदी ही है। पूर्वोत्तर राज्यों तथा झारखंड, बिहार, उत्तर
प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में स्थिति और भी
निराशाजनक है। एक सर्वेक्षणके अनुसार कुल कृषक परिवारों में से 73 प्रतिशत परिवार
बैंक से मिलने वाले कर्ज से वंचित हैं। ये सूदखोर, महाजन, अपने परिचितों, रिश्तेदारों अथवा निजी वित्तीय
संस्थाओं से कर्ज लेने को विवश है।
ऊपर प्रस्तुत
किये गये आंकड़े देश की वित्तीय समावेशन की भयावह तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि वित्तीय सुधारों और उदारीकरण की नई व्यवस्था के बाद
देश में देशी और विदेशी बैंको की बाढ़-सी आ गयी है। लेकिन इसके बावजूद भी ग्रामीण
भारत के अधिकांश हिस्सा इन बैंकों से मिलने वाली सेवाओं से वंचित है।
वित्तीय समावेशन: बैंकों की भूमिका
भारत में
स्वतंत्रता के पश्चात बैंकिंग तंत्र का विस्तार शहरी क्षेत्र में तेजी से हुआ।
1969 के बैंकिंग राष्ट्रीयकरण के पश्चात ग्रामीण क्षेत्र के चुनिदां स्थानों पर
वाणिज्यिक बैंको की शाखाएं खुली। इससे लगा कि अब ग्रामीण भारत सूदखोरों के चंगुल
से मुक्त हो जायेगा। किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। 1970 के दशक में वंचितों, गरीबों और ग्रामीण के क्षेत्र के
छोटे निवेशकों को ध्यान में रखकर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गयी।
इन ग्रामीण बैंकों के लिए प्राथमिकता क्षेत्र पहले से ही तय कर दिए गए थे। इन्हें
उन लोगों को कर्ज देने का कार्य सौंपा गया जिनके पास प्रत्याभूति के लिए कुछ नहीं
था। ऋण के साथ अनुदान की भी व्यवस्था सरकार द्वारा की गयी। किन्तु यह व्यवस्था
पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को नहीं प्राप्त कर सकी। अनुदान को चट कर जाने वाले
दलालों, बिचौलियों तथा नौकरशाहों के कारण इसका लाभ वास्तविक
व्यक्ति तक नहीं पहुंच सका। इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए तत्कालीन
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी स्वयं स्वीकार किया था कि ग्रामीण क्षेत्र के
वंचितों के लिए जारी की गयी धनराशि का मात्र 20 प्रतिशत ही उन तक पहुंच जाता है।
वित्तीय
समावेशन में बैंकों की भूमिका पूरी तरह निष्क्रिय रही हो ऐसा नहीं कहा जा सकता
है। इंदिरा गांधी के काल में शुरू की गयी ऋण के साथ अनुदान की नीति को त्यागने के
बाद इसमें कुछ सुधार दिखाई दिया। बांग्लादेश के मोहम्मद युनुस (नोबल पुरस्कार
विजेता) द्वारा शुरू की गयी माइक्रो क्रेडिट व्यवस्था में जिसमें महिला समूहों
को ऋण दिया जाता था, से प्रेरित होकर भारत में शुरू की गयी स्वयं सहायता समूह योजना ने देश
की तमाम ग्रामीण महिलाओं को न केवल स्वरोजगार हेतु प्रेरित किया बल्कि उन्हें
स्थानीय बैंक से जोड़ने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। केंद्र सरकार द्वारा इस
क्रम में ग्रामीण अवसंरचना विकास निधी की स्थापना की गयी है। इसका उद्देश्य कृषि
क्षेत्र में उधार देने में वाणिज्यिक बैंकों की कमी को पूरा करना है।
वित्तीय सहायता
किसी भी
अर्थव्यवस्था में अभी तक ऐसी कोई प्रणाली विकसित नहीं हो पायी है जो आर्थिक
सुधारों का लाभ स्वचालित प्रणाली से नीचे के तबके पहुंच सके। ऐसी प्रणाली का
विकास यदि कर भी दिया जाय तो प्रशासन तंत्र के कमजोर पड़ते ही बिचौलिए और दलाल
सक्रिय होकर इसके लाभ को बीच में ही रोक लेते हैं। ऐसी स्थिति में गरीबों के लिए
वित्तीय समावेशन वित्तीय निष्कासन का रूप ले लेता है। स्वतंत्रता के बाद से आज
तक ग्रामीण क्षेत्र का निर्धन वर्ग वित्तीय निष्कासन का ही देश झेल रहा है।
बैंकिंग सेवाओं की जटिलता तथा कुछ मामलों में आस-पड़ोस के साक्षर या पढ़े लिखे
लोगों पर आश्रित होने की उनकी मजबूरी उन्हें वास्तविक लाभ से वंचित करने से महत्वपूर्ण
भूमिका निभाती है। वित्तीय समावेशन के साथ-साथ अब इसी को ध्यान में रखते हुए
वित्तीय शिक्षण की बात भी की जा रही है।
इन्वेस्ट
इंडिया इंकम्स एंड सेविंग्स सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों
में ही नहीं वरन् शहरी क्षेत्र के भी तमाम लोग वित्तीय मामलों में पूरी तरह से
शिक्षित नहीं हैं। सर्वे के अनुसार शहरों में 5 लाख रुपए से अधिक आय वाले लगभग 10
प्रतिशत लोग यह समझते हैं कि राष्ट्रीकृत बैंक जमा राशियों पर कोई गारंटी नही
देते। उच्च आय वर्ग के 25 प्रतिशत लोग नियमित बचत को कोई महत्व नहीं देते।
ग्रामीण क्षेत्रों में तो 80 प्रतिशत लोग नियमित बचत को महत्व नहीं देते। बचत
संबंधी बैंकिंग उत्पादों से तो वे पूरी तरह अनभिज्ञ ही होते हैं। वित्तीय
साक्षरता की यह कमी उन्हें सूदखोर महाजन के पास जाने के पास जाने को विवश करती
है। वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया में यह बहुत बड़ी बाधा है जिसे दूर करने के लिए
भारत जैसे देश में अभियान चलाने की आवश्यकता है। ऋण के संबंध में भी वित्तीय
साक्षरता की कमी ग्रामीणों को वांछित लाभ से दूर करती है।
वित्तीय
समावेशन को प्रोत्साहन करने के उद्देश्य से भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा सार्थक
पहल करते हुए करेंसी मैटर्स और ‘बैंक मैटर्स’ नाम से कॉमिक बुक का प्रकाशन शुरू किया
गया है। ‘राजूऔर मनी ट्री’ नामक एक
कॉमिक बुक का भी प्रकाशन किया गया है। स्कूली बच्चों को वित्तीय साक्षर बनाने
के लिए पोस्टर, पुस्तिकाओं, वीडियो
फिल्मों, प्रदर्शनी जैसे माध्यमों का सहारा लिया जा रहा
है। किंतु वित्तीय साक्षरता के क्षेत्र में इससे भी आगे अभी किया जाना बाकीहै।
वित्तीय
समावेशन हो या समावेशी विकास दोनों का यदि मापन करना हो तो भारत के ग्रामीण
क्षेत्रों का अवलोकन करें। शहरों में रहने वाले निर्बल वर्ग की जीवन स्थिति को
देखकर भी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले एक दशक से केंद्र सरकार इन्हीं
वर्गों को लक्षित कर योजनाएं बना रही हैं। बैंकों को भी जनोन्मुखी होने का सबक
सिखाया जा रहा है। इस दिशा में कुछ प्रगति हुई है। लेकिन इस ‘कुछ’से
संतोष करना इस वर्ग के साथ अन्यायपूर्ण होगा। हमें इस दिशा में कुछ ठोस प्रयास
करने होंगे। इन प्रयासों को लघु रूप में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं:
- वित्तीय साक्षरता को बढ़ाया जाय। इसके लिए साक्षरता और जागरूकता हेतु कार्यक्रम चलाया जाय।
- बैंकों को दलालों व बिचौलियों के चंगुल से मुक्त किया जाय।
- ग्रामीण क्षेत्र के अधिकतम निवासियों को किसान क्रेडिट कार्ड, स्वयं सहायता समूह, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम तथा अन्य विकास योजनाओं से जोड़ा जाय।
- आधारभूत आवश्यक वस्तुओं तक सभी की पहुंच को सुनिश्चित किया जाय।
- शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले सभी के लिए रोजगार के अवसरों की वृद्धि की जाय।
- शिक्षा स्वस्थ्य, आवास तथा खाद्य सुरक्षा पर अधिक सार्वजनिक व्यव किया जाय।
- आधारभूत बैंकिंगसे सभी को परिचित कराया जाय। इसके लिए व्यापक कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है।
- बैंकों द्वारा लिंकेज कार्यक्रम शुरू किया जाय तथा प्रत्येक गांव के सभी वयस्कों को बैंक से जोड़ा जाय।
हालांकि
केंद्र सरकार, भारतीय
रिजर्व बैंक तथा वित्त मंत्रालय द्वारा इस दिशा में पिछले कुछ एक वर्षों में काफी
कुछ किया गया है। नाबार्ड, जिला स्तरीय कोआपरेटिव बैंक, राष्ट्रीयकृत बैंक तथा विशेष तौर पर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा इस
दिशा में नए-नए कार्यक्रम तथा योजनाओं की घोषणा कर निर्बल वर्ग को वित्तीय
साक्षरता हेतु प्रेरित किया गया है। स्वयं सहायता समूहों ने तो इसमें महती भूमिका
निभाई है किन्तु इसमें और तेजी लानी होगी। 12वीं पंचवर्षीय योजना में इस पर और बल
देने की आवश्यकता होगी तभी समावेशी विकास की अवधारणा को हम कागज पर नहीं साक्षात
जमीन पर देख सकेंगे। यही तो गांधी और अम्बेडकर की इच्छा थी।
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