त्यागपत्र उपन्यास में प्रमोद का चरित्र-चित्रण: जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास "त्यागपत्र" में प्रमोद एक प्रमुख पात्र है। वह न केवल कथा का वाचक है, बल्कि क
त्यागपत्र उपन्यास में प्रमोद का चरित्र-चित्रण (Tyagpatra Upanyas Mein Pramod ka Charitra Chitran)
जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास "त्यागपत्र" में प्रमोद एक प्रमुख पात्र है। वह न केवल कथा का वाचक है, बल्कि कहानी का केंद्र भी है। उपन्यास उसकी बुआ मृणाल के जीवन की त्रासदी पर आधारित है, और प्रमोद इस त्रासदी का साक्षी और भागीदार दोनों है। प्रमोद के चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:-
अध्ययनशील: प्रमोद पढ़ाई में मेधावी है और जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है। वह अपनी शिक्षा के माध्यम से ऊंचा मुकाम हासिल करता है और एक प्रसिद्ध वकील और जज बन जाता है। यही सामाजिक प्रतिष्ठा का लोभ उसे मृणाल की मदद करने से रोकता है।
संवेदनशील और सज्जन: प्रमोद अपनी बुआ के प्रति अथाह स्नेह रखता है। वह उसके दुख को महसूस करता है और हर पल उसके सहारे खड़ा रहना चाहता है। बचपन में हमें जिससे प्रेम मिलता है, उससे हमारा प्रेम जीवन भर बना रहता है। ऐसा प्रेमी व्यक्ति चाहे जैसा भी नैतिक या अनैतिक कार्य करे, हम उसके साथ खड़े रहते हैं और यही प्रमोद भी करता है। मृणाल उसे जो काम सौंपती है, वह कर देता है। घरवालों को बिना बताए शीला के भाई को चिट्ठी दे आता है। बुआ के लिए जमालघोटा ले आता है। माँ के मना करने के बावजूद मृणाल से अपना सम्पर्क बनाए रखता है। हर बार उसे अपने घर ले जाने का आग्रह करता है। उपन्यास में वह अकेला ऐसा पात्र है, जो मृणाल को सुनता है और उसके दर्द को महसूस करता है।
सामाजिक बंधन में जकड़ा हुआ: प्रमोद समाज के रूढ़ रिवाजों और परंपराओं की जकड़न में जकड़ा हुआ है। वह मृणाल की मदद करना चाहता है परंतु समाज का डर और परिवार का विरोध उसे रोक लेता है। अपने स्वार्थ की आलोचना करते हुए वह सोचता है कि "मैं बुद्धिमान था, मूर्ख नहीं था। तौल-तौल कर चला और तराजू अपने हाथ में रखी ।" इसीलिए तो वह जज बन गया। अंततः उसका निष्कर्ष यह है कि "जो जगत की कठोरता का बोझ इच्छापूर्वक अपने ऊपर उठाकर चुपचाप चले जाते हैं और फिर समय आने पर इस धरती माता से लगकर उसी भाँति चुपचाप सो जाते हैं, मैं उनको प्रणाम करता हूँ। मैं उनको अभागा भी कह लूंगा, पापी भी कह लूँगा लेकिन मैं उनको प्रणाम करता हूँ ।
पश्चाताप से ग्रस्त: प्रमोद जब बड़ा होता है तो वह बुआ के लिए कुछ करना चाहता है। लेकिन स्वाभिमानी बुआ कुछ करने नहीं देती। अपने जीवन के अंतिम दिनों में मृणाल प्रमोद से रूपये माँगती है। वह रूपये अपने लिये नहीं माँगती वरन् जिस 'सड़ांद' में वह रहती है उस सड्रांद में रहने वालों के लिए माँगती है और प्रमोद नहीं दे पाता। प्रमोद का अपना अपराध-बोध था कि "मैं क्षुद्र था।" इसी अपराध-बोध के कारण वह 'जजी' से त्यागपत्र दे देता है।
COMMENTS