शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक सिद्धांत: शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक सिद्धांत निम्नलिखित हैं- 1. आदर्शवाद, 2. प्रकृतिवाद 3. यथार्थवाद 4. व्यावहारिक वास्तवि
शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक सिद्धांत (Sharirik Shiksha ke Darshnik Siddhant)
शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक सिद्धांतों और व्यावहारिकताओं का जन्म यूनान में हुआ। आज से लगभग 2500 वर्ष पहले भी खेलों की परम्परा यूनान में अपने चरम पर थी। प्लेटो और अरस्तू ने शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक सिद्धांत की नींव रखी तथा आज भी वही सिद्धांत उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं जितना कि पहले रखते थे। शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक सिद्धांत निम्नलिखित हैं- 1. आदर्शवाद, 2. प्रकृतिवाद 3. यथार्थवाद 4. व्यावहारिक वास्तविकतावाद। इन सभी सिद्धांतों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित रूप में दिया गया है -
शारीरिक शिक्षा का आदार्श्वादी सिद्धांत (Idealism)
वस्तुत: आदर्शवाद की उत्पत्ति विचारवाद से मानी जाती है। इसके प्रतिपादन का श्रेय प्लेटो और अरस्तू जैसे महान् दार्शनिकों को है। शुद्ध आदर्शवाद के अनुसार मानव का मन उसके अस्तित्व का केन्द्र है। यह उन आदर्शों तथा प्रभावों की ओर संकेत करता है जिनका जीवन में हम प्रयोग इसलिए करते हैं कि जीवन का स्तर अधिक से अधिक ऊंचा हो। सत्यं शिवम् सुन्दरं की प्राप्ति इस सिद्धांत का मुख्य ध्येय है। हमारे सामान्य जीवन में आदर्शवाद का एक महत्वपूर्ण योग हो। इससे हमें ज्ञात होता है कि उत्तम जीवन के लिए प्रभाव तथा आदर्श क्या है ? तथा उसके साथ ही साथ हमारी अपनी सीमायें क्या हैं। ये आदर्श समाज द्वारा उचित स्वीकार किये गये हैं चाहे वे भले ही समय के अनुसार बदलते रहते हैं।
आरम्भ में शिक्षा की नींव आदर्शवाद पर ही पड़ी तथा पुरातनकाल में यूनानियों की अपनी शारीरिक शिक्षा की बुनियाद भी "सुन्दर शरीर" जैसे आदर्शों पर रखी। प्लेटो का यह विचार था कि मानव शारीरिक रूप से स्वस्थ, आकर्षक, शक्तिशाली, सुदृढ़ तथा प्रभावशाली होना चाहिए। अरस्तू ने शारीरिक गुणों के अतिरिक्त बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक गुणों को भी व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण स्थान माना। अरस्तू का विचार था कि आदर्श व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न होना चाहिए। यही कारण था कि यूनानी शिक्षा में गणित, संगीत और व्यायाम महत्वपूर्ण विषय थे। प्राचीनकाल में जन्म के समय प्रत्येक यूनानी बच्चे का यूनानी उच्चाधिकारी निरीक्षण किया करते थे। यदि वह किसी भी दृष्टि से शरीर से दुर्बल अथवा विकृत होता था तो उसे जीने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था। उनका एक ही आदर्श था 'सबल शरीर एवं सबल जाति।'
आदर्शवाद में निरोग एवं स्वस्थ शरीर शारीरिक शिक्षा का एक उद्देश्य था। आदर्श शारीरिक शिक्षा ऊंचे आदर्शों को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाती है। आत्मानुशासन के लिए ओजस्वी क्रीड़ाओं का होना आवश्यक होता है। आदर्श शिक्षाशास्त्री शारीरिक शिक्षा को केवल शरीर तक सीमित नहीं रखता बल्कि नैतिक मानसिक बौद्धिक तथा सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति भी इससे होने की अपेक्षा रखता है।
प्रकृतिवाद / शारीरिक शिक्षा का जैविक सिद्धांत
प्रकृतिवाद शारीरिक शिक्षा के सभी सिद्धांतों में सबसे प्राचीन सिद्धांत माना जाता है। इसे सामान्यतः भौतिकवादी सिद्धांत माना जाता है। प्रकृतिवाद / जैविक सिद्धांत का केन्द्र बिन्दु संसार के भौतिक तत्व ही है। भौतिक अस्तित्व के परे की वस्तुएँ एवं तत्व सब कपोल कल्पित है। सत्य प्रकृति के अस्तित्व में ही निहित है। इस प्रकार प्रकृतिवाद केवल भौतिक संसार को ही सत्य मानता है। प्रकृति जीवन मूल्यों का स्रोत है तथा वह स्वयं प्रत्येक व्यक्ति के निर्माण की शिक्षा का निर्धारण करती है।
प्रकृतिवाद उन नियमों और सिद्धांतों की ओर संकेत करता है जिससे व्यक्ति के नैसर्गिक आत्म का विकास तथा अभिवृद्धि संबंधित है। यह व्यक्ति को एक जैविक इकाई मानता है तथा उसके आंगिक विकास की पृष्ठभूमि पर आधारित तथ्यों पर बल देता है। प्रकृति मूल्यों का मापदण्ड है। शारीरिक शिक्षा की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि सब साधारण बच्चे नैसर्गिक तौर पर साधारणतः शरीर में सक्रिय जिससे नये अनुभव आकांक्षी अत्यधिक क्रीड़ाशील तथा सामाजसेवी स्वभाव के होते हैं। अतः शारीरिक शिक्षक को बच्चे की नैसर्गिक क्रियाओं पर अधिक से अधिक से जोर दिया जाना चाहिए। प्रकृतिवाद के अनुसार पूर्ण शारीरिक शिक्षा वह है जिसमें शारीरिक एवं मानसिक कौशल्य का समन्वय हो। यह सर्वविदित है कि प्रत्येक बच्चे में शिक्षण के नैसर्गिक उपकरण जन्म से ही रहते हैं तथा उनके शिक्षण का प्रथम चरण उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हैं। यह तभी सम्भव है जब बच्चे को अपने आप पर छोड़ दिया जाये अर्थात् उसे आत्म क्रीड़ा में लीन रहने दिया जाये। उस पर बाहर से कोई अनुचित दबाव न डाला जाये। वह अपने कार्यक्रम का स्वयं निर्माण करे तभी शिक्षा के ध्येय की पूर्ति सम्भव है।
प्रकृतिवाद का दृष्टिकोण जैविक है। यह बच्चे के मनोभौतिक योग को स्वीकार करता है और इसलिए यह इस बात पर जोर देता है कि अच्छे वातावरण में ही बच्चे के जन्मजात गुणों का विकास हो सकता है। प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से ही भाग लेने से विकास सम्भव होता है। शरीर वह उपकरण है जिसके द्वारा मन अपनी अभिव्यक्ति करता है तथा शरीर एवं मन एकांकी रूप से विकसित नहीं होते। अतः शारीरिक शिक्षा में इन्हीं क्रियाओं का समावेश होना चाहिए जो व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है। प्रकृतिवाद शारीरिक शिक्षा में अधिक स्पर्धाओं के पक्ष में नहीं हैं परन्तु उच्चतर की उपलब्धियों एवं अनुष्ठानों में इसकी आस्था भी कम नहीं है।
प्रकृतिवाद/ शारीरिक शिक्षा का व्यावहारिक वास्तविकतावादी सिद्धांत
व्यावहारिक वास्तविकतावाद का सिद्धांत को 'प्रयोगवाद के नाम से भी जाना जाता है। व्यावहारिक दक्षता एवं अनुभव इस सिद्धांत के मूलमंत्र है। यदि कोई अनुभव हमें सफलता प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है तो केवल वही अनुभव ही अनुकरणीय है अर्थात् सफलता अनुभव एवं सत्य की कुंजी है। सत्य की अनुभूति हमारी व्यावहारिकता एवं दक्षता के द्वारा ही होती है। कल का सत्य आज का असत्य और भूत का सत्य आज का असत्य हो सकता है। व्यावहारिक वास्तविकता उसी परिवर्तन को जीवन तथा सत्य का अभिन्न अंग स्वीकार करती है तथा विज्ञान की अपनी समस्याओं के समाधान का उत्तम साधन मानती है। मनुष्य जन समूह का एक अक्षण्णु अंग है तथा उसके अनुभव एवं कार्य जन समूह पर प्रतिबिम्बित होते हैं। सत्य एवं असत्य का व्यक्ति स्वयं निर्धारण करता है। वह स्वयं अपने जीवन के मूल्यों का निर्धारण करता है।
शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में व्यावहारिक वास्तविकतावाद का महत्व इसलिए है कि यह सिद्धांत शिक्षा के दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है अर्थात् शारीरिक शिक्षा सारणी केवल उन्हीं सिद्धांतों और विश्वासों को मान्यता देती है जिनका व्यायाम व्यावहारिकता पर पड़ता है। यह सिद्धांत राजनीतिक शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष को प्रदर्शित करता है जिससे अभिप्राय यह है कि क्रीड़ायें केवल करने से ही सीखी जा सकती है। व्यावहारिक वास्तविकतावादी शारीरिक शिक्षण अपने कार्यक्रम का निर्माण बच्चों के कार्यक्रम का केन्द्र मानकर करता है। वह बच्चों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। वह इन्हीं प्रक्रियाओं और व्यायामों को प्रोत्साहन देता है जो सामाजिक दृष्टिकोण से स्वीकार्य है। इस सिद्धांत के अनुसार शारीरिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप व्यक्ति केवल शारीरिक और मानसिक दृष्टिकोण से न केवल स्वस्थ हो अपितु उसमें नैतिकता, चरित्र, सहयोग, सहानुभूति जैसे सामाजिक गुणों का भी विकास होना चहिए।
इस प्रकार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि शारीरिक शिक्षा का दर्शन एक प्रवृत्य दर्शन है जिसमें जीव विज्ञान की विभिन्न धाराओं ने इस विषय के सिद्धांतों का निर्माण किया है क्योंकि अच्छे एवं अनुकूल सिद्धांत तो सर्वव्यापी एवं सर्वग्राह्य होते हैं।
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