राजनीतिक दल की परिभाषा दीजिये और लोकतंत्र में राजनीतिक दल की भूमिका तथा कार्यों की व्याख्या कीजिए ?

राजनीतिक दल की परिभाषा दीजिये और लोकतंत्र में राजनीतिक दल की भूमिका तथा कार्यों की व्याख्या कीजिए ? लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीतिक दलों के...

राजनीतिक दल की परिभाषा दीजिये और लोकतंत्र में राजनीतिक दल की भूमिका तथा कार्यों की व्याख्या कीजिए ?

  1. लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीतिक दलों के कार्यों का वर्णन कीजिए।
  2. लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का महत्व समझाइए
  3. लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की विभिन्न भूमिकाओं का वर्णन कीजिए

    राजनीतिक दल की परिभाषा

    राजनीतिक दल की परिभाषा के सम्बन्ध में विभिन्न विचारकों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं

    1. एडमण्ड बर्क के मतानुसार, "राजनीतिक दल ऐसे लोगों का एक समूह होता है जो किसी ऐसे सिद्धान्त के आधार पर जिस पर वे एकमत हों, अपने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा जनता के हित में काम करने के लिए एकता में बँधे होते हैं।"
    2. गेटल के अनुसार, "राजनीतिक दल न्यूनाधिक संगठित उन नागरिकों का समूह होता है जो राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करते हैं और जिनका उद्देश्य अपने मतदान बल के प्रयोग द्वारा सरकार पर नियन्त्रण करना व अपनी सामान्य नीतियों को क्रियान्वित करना होता है।"
    3. गिलक्राइस्ट के शब्दों में, "राजनीतिक दल की परिभाषा उन नागरिकों के संगठित समूह के रूप में की जा सकती है जो राजनीतिक रूप से एक विचार के हों और जो एक राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य कर सरकार पर नियन्त्रण करना चाहते हों।" ।
    4. मैकाइवर के शब्दों में, "राजनीतिक दल एक ऐसा समुदाय है जो किसी ऐसे सिद्धान्त अथवा ऐसी नीति के समर्थन के लिए संगठित हुआ हो, जिसे वह वैधानिक साधनों से सरकार का आधार बनाना चाहता हो।"

    राजनीतिक दलों की उत्पत्ति

    ब्राइस ने अपनी पुस्तक 'आधुनिक प्रजातन्त्र' में लिखा है कि "राजनीतिक दल जनतन्त्र से कहीं अधिक प्राचीन है।" लेकिन इस प्रकार का मत व्यक्त करते हुए ब्राइस के द्वारा प्राचीन समय में स्थापित क्लब घर, राजनीतिक समाज और संसदीय गोष्ठियों को राजनीतिक दल मान लिया गया है। आधुनिक समय के राजनीतिक दल वर्तमान युग की ही उपज है और आधुनिक राजनीतिक दलों का विकास जनतन्त्र और मताधिकार के साथ-साथ ही हआ है। राजनीतिक दलों के उद्गम के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से निम्नलिखित विचारों का प्रतिपादन किया जाता है।

    (1) मानव स्वभाव का सिद्धान्त-मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर राजनीतिक दलों को मानव स्वभाव में निहित मूल प्रवृत्तियों पर आधारित कहा जाता है। कुछ लोग स्वभाव से ही रूढ़िवादी होते हैं और किसी प्रकार का परिवर्तन पसन्द नहीं करते, कुछ लोग शनैः शनैः परिवर्तन चाहते हैं और कुछ लोग तुरन्त आमूलचूल परिवर्तन के पक्ष में होते हैं। परिस्थितियों में परिवर्तन और आयु में वृद्धि के साथ भी मानव स्वभाव में इस प्रकार का परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है। इस स्वभाव भेद के आधार पर मनुष्य में विचार भेद पाया जाता है और इस प्रकार के विचार भेद राजनीतिक दलों को जन्म देते हैं।

    (2) आर्थिक हित और विचार-राजनीतिक दल आर्थिक विचार के भेद के भी परिणाम होते हैं और वर्तमान समय के तो सभी राजनीतिक दल आर्थिक विचारों पर आधारित हैं। आर्थर होलकौम्ब (Arthur Holcombe) ने ठीक ही कहा है कि "राष्ट्रीय दल क्षणिक आवेगोंया अस्थाई आवश्यकताओं के आधार पर नहीं चल सकते; उन्हें स्थाई सामुदायिक हितों, विशेषत, आर्थिक हितों, पर आधारित होना चाहिए।" सर्वसाधारण में सम्पत्ति विषयक भेदभाव, उनके आर्थिक दृष्टिकोण और उनकी आर्थिक समस्याएँ मुख्य रूप से राजनीतिक दलों के निर्माण में सहायक होती हैं और उन्हें स्थायित्व भी प्रदान करती हैं।

    (3) वातावरण सम्बन्धी प्रभाव-सामान्यतया कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक संस्कारों के समान ही राजनीतिक संस्कार भी साथ ही लेकर उत्पन्न होता है। अपने इन राजनीतिक संस्कारों के आधार पर वह किसी विशेष राजनीतिक दल से सम्बद्ध होता है। अनेक बार एक व्यक्ति के पारिवारिक सदस्य और उनके मित्र भी उनके लिए राजनीतिक दल का मार्ग खोजते हैं लेकिन राजनीतिक चेतना के विकास के साथ-साथ वातावरण सम्बन्धी प्रभाव कम होता जा रहा है।

    (4) धार्मिक और साम्प्रदायिक भावनाएँ-पाश्चात्य देशों के नागरिकों में धार्मिक और साम्प्रदायिक भावनाएँ बहुत अधिक बलवती न होने के कारण धार्मिक और साम्प्रदायिक भावनाओं पर आधारित राजनीतिक दल नहीं पाए जाते हैं, किन्तु भारत और पूर्व के कुछ देशों में इस प्रकार के साम्प्रदायिक दल विद्यमान हैं। वस्तुतः ये दल सम्पूर्ण राज्य के हितों से सम्बन्धित नहीं होते और इस कारण इन्हें विशुद्ध राजनीतिक दल नहीं कहा जा सकता है।

    सर हेनरीमैन जैसे कुछ लेखकों का विचार है कि राजनीतिक दल मानव की संघर्षी प्रवृत्ति पर आधारित होते हैं, किन्तु इस कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः राजनीतिक दल संघर्ष नहीं, वरन् सहयोग की प्रवृत्ति पर आधारित होते हैं।

    मानव स्वभाव तथा मूलभूत राजनीतिक और आर्थिक विचारों पर आधारित राजनीतिक दलों को ही स्वस्थ राजनीतिक दल कहा जा सकता है और प्रजातन्त्र के लिए इस प्रकार के राजनीतिक दल ही उपयोगी हो सकते हैं।

    लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का क्या भूमिका है ?

    लोकतंत्र में राजनीतिक दल, राजनैतिक व्यवस्था के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सामान्यतया कानून-निर्माण और प्रशासन की शक्ति एक ही राजनीतिक दल के हाथ में होती है। राजनैतिक दल किसी सामाजिक व्यवस्था में शक्ति के वितरण और सत्ता के आकांक्षी व्यक्तियों एवं जन समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनकी भूमिका को निम्न बिंदुओं में समझा जा सकता है।

    (1) लोकमत का निर्माण- वर्तमान समय में राज्य सम्बन्धी विषय बहुत अधिक जटिल और व्यापक होते हैं और साधारण व्यक्ति के लिए इस प्रकार के विचार विषय का चुनाव और उसे समझ सकना सम्भव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल सार्वजनिक समस्याओं को जनता के सम्मुख इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि साधारण जनता उन्हें समझ सकें। जब विविध राजनीतिक दल समस्याओं के सम्बन्ध में अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन करते हैं, तो साधारण जनता इन समस्याओं को भली प्रकार समझ कर निर्णय कर सकती है और लोकमत का निर्माण हो सकता है। ब्राइस के शब्दों में, "लोकमत को प्रशिक्षित करने, उसके निर्माण और अभिव्यक्ति में राजनीतिक दलों के द्वारा अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य किया जाता है।"

    (2) चुनावों का संचालन- जब मताधिकार बहुत अधिक सीमित था और निर्वाचकों की संख्या कम थी, तब स्वतन्त्र रूप से चुनाव लड़े जा सकते थे, लेकिन अब वयस्क मताधिकार के प्रचलन के कारण स्वतन्त्र रूप से चुनाव लड़ना लगभग असम्भव हो गया है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल अपने दल की ओर से उम्मीदवारों को खड़ा करते और उनके पक्ष में प्रचार करते हैं। चुनाव के समय होने वाला भारी खर्च भी इन राजनीतिक दलों द्वारा ही किया जाता है। यदि राजनीतिक दल न हों तो आज के विशाल लोकतन्त्रात्मक राज्यों में निर्वाचन का संचालन लगभग असम्भव ही हो जाए। चुनावों के संचालन में राजनीतिक दलों का महत्व स्पष्ट करते हुए डॉ० फाइनर ने लिखा है कि "राजनीतिक दलों के बिना निर्वाचक या तो नितान्त असहाय हो जायेंगे या उनके द्वारा असम्भव नीतियों को अपनाकर राजनीतिक यन्त्र को नष्ट कर दिया जायेगा।"

    (3) सरकार का निर्माण-निर्वाचन के बाद राजनीतिक दलों के द्वारा ही सरकार का निर्माण किया जाता है। अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था में राष्ट्रपति अपने विचारों से सहमत व्यक्तियों की मन्त्रि-परिषद् का निर्माण कर शासन का संचालन करता है। संसदात्मक शासन में जिस राजनीतिक दल को व्यवस्थापिका में बहुमत प्राप्त हो, उसके प्रधान द्वारा मन्त्रि-परिषद् का निर्माण करते हुए शासन का संचालन किया जाता है। मन्त्रि-परिषद् व्यवस्थापिका में अपने राजनीतिक दल के समर्थन के आधार पर ही शासन कर सकती है। इस प्रकार संसदात्मक और अध्यक्षात्मक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्थाओं में सरकार का निर्माण

    और शासन-व्यवस्था का संचालन, राजनीतिक दलों के आधार पर ही किया जा सकता है। राजनीतिक दलों के अभाव में तो व्यवस्थापिका के सदस्यों द्वारा अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग' का रुख अपनाया जा सकता है, जिसके कारण शासन सम्भव ही नहीं होगा। इस सम्बन्ध में ब्राइस ने ठीक ही कहा है कि "अनियन्त्रित प्रतिनिधियों द्वारा शासन-व्यवस्था के संचालन का प्रयत्न वैसा ही है जैसा कि कम्पनी ने अविज्ञ साझेदारों के मतों द्वारा रेलमार्गों का प्रबन्ध किया जाए अथवा किसी जहाज के यात्रियों के मतों द्वारा जहाज का मार्ग निश्चित किया जाए।"

    (4) शासन सत्ता को मर्यादित करना- शासन-व्यवस्था में बहुसंख्यक राजनीतिक दल के साथ-ही-साथ अल्पसंख्यक राजनीतिक दल या विरोधी दल भी बहुत अधिक महत्व रखते हैं। सामान्यतः राजनितिक दल विपक्ष के रूप में कार्य करते हुए शासन शक्ति को सीमित रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। संगठित विरोधी दल के अभाव में शासक दल अधिनायकवादी रुख अपना सकता है।

    (5) सरकार के विभिन्न विभागों में समन्वय और सामंजस्य- सरकार के द्वारा उसी समय ठीक प्रकार से कार्य किया जा सकता है जबकि शासन के विषय अंग परस्पर सहयोग करें और यह सहयोग राजनीतिक दलों द्वारा ही सम्भव होता है। संसदीय शासन में तो सामान्यतया कानून-निर्माण और प्रशासन की शक्ति एक ही राजनीतिक दल के हाथ में होती है तथा दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका व्यवस्थापिका से अपनी इच्छानुसार कानूनों का निर्माण करवा सकती है। अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था वाले संयुक्त राज्य अमरीका जैसे देशों में, जहाँ पर कि व्यवस्थापिका और कार्यपालिका शासन के दो बिल्कुल पृथक् अंग होते हैं, राजनीतिक दलों की सहायता के बिना शासन का भली प्रकार संचालन सम्भव हो ही नहीं सकता। अमरीका में दलीय व्यवस्था ने ही व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के बीच सहयोग स्थापित कर संविधान की कमी को दर कर दिया है।

    (6) राजनीतिक चेतना का प्रसार-राजनीतिक दल नागरिक चेतना और राजनीतिक शिक्षा के अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन के रूप में कार्य करते हैं। सार्वजनिक समस्याओं के सम्बन्ध में किए गए निरन्तर प्रचार और वाद-विवाद के आधार पर वे सामान्य जनता में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति रुचि जाग्रत करते हैं। उनका उद्देश्य अपनी लोकप्रियता बढ़ाकर शासन शक्ति पर अधिकार करना होता है। इसलिए वे प्रेस, प्लेटफार्म और अन्य साधनों के आधार पर अपनी विचारधारा का अधिक-से-अधिक प्रचार करते हैं और उदासीन मतदाता को भी सार्वजनिक जीवन का कुछ ज्ञान तो प्रदान कर ही देते हैं। लावेल ने इस सम्बन्ध में कहा है कि "राजनीतिक दल राजनीतिक विचारों के दलाल' के रूप में कार्य करते हैं।"

    (7) जनता और शासन के बीच सम्बन्ध-प्रजातन्त्र का आधारभूत सिद्धान्त जनता और शासन के बीच सम्पर्क बनाए रखना है और इस प्रकार का सम्पर्क स्थापित करने का सबसे बड़ा साधन राजनीतिक दल ही है। प्रजातन्त्र में जिस दल के हाथ में शासन शक्ति होती है उसके सदस्य जनता के मध्य सरकारी नीति का प्रचार करते हैं तथा जनमत को अपने पक्ष में रखने का प्रयत्न करते हैं। विरोधी दल की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करते हैं। इसके अतिरिक्त, ये सभी दल जनता की कठिनाइयों एवं शिकायतों को शासन के विविध अधिकारियों तक पहुँचाकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते हैं।

    इस प्रकार राजनीतिक दलों द्वारा शासन-व्यवस्था से सम्बन्धित सभी प्रकार के कार्य किए जा सकते हैं। इस सम्बन्ध में प्रो० मेरियम (Merriam) अपनी पुस्तक 'American Party System' में लिखते हैं कि "राजनीतिक दलों का कार्य अधिकारी वर्ग का चुनाव करना, लोकनीति का निर्धारण करना, सरकार को चलाना और उसकी आलोचना करना, राजनीतिक शिक्षण और व्यक्ति एवं सरकार के बीच मध्यस्थता का कार्य करना है।"

    वस्तुतः राजनीतिक दल प्रजातान्त्रिक शासन की धुरी के रूप में कार्य करते हैं और प्रजातन्त्र शासन के संचालन के लिए राजनीतिक दलों का अस्तित्व नितान्त अनिवार्य है। प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों के महत्व को स्पष्ट करते हुए हूबर (Huber) के शब्दों में कहा जा सकता है कि "प्रजातन्त्रीय यन्त्र के चालन में राजनीतिक दल तेल के तुल्य हैं।"

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