राजनीतिक समाजशास्त्र से क्या तात्पर्य है राजनीतिक समाजशास्त्र से आप क्या समझते हैं? समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र में संबंध बताइये। राजनीतिक समाजशास्
राजनीतिक समाजशास्त्र से क्या तात्पर्य है
- राजनीतिक समाजशास्त्र से आप क्या समझते हैं?
- समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र में संबंध बताइये।
- राजनीतिक समाजशास्त्र व्यवस्था उपागम की व्याख्या कीजिए।
राजनीतिक समाजशास्त्र का अर्थ
राजनीतिक समाजशास्त्र से तात्पर्य समाजशास्त्र की उस शाखा से है जो मुख्य रूप से राजनीति और समाज की अन्तःक्रिया का विश्लेषण करती है। व्यापक अर्थ में राजनीतिक समाजशास्त्र समाज के सभी संस्थागत पहलुओं की शक्ति के सामाजिक आधार से सम्बन्धित है। इस परम्परा में राजनीतिक समाजशास्त्र स्तरीकरण के प्रतिमानों तथा संगठित राजनीति में इसके परिणामों का अध्ययन करता है।
राजनीतिक समाजशास्त्र की परिभाषा
लिपसेट : राजनीतिक समाजशास्त्र को समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था के तथा सामाजिक संरचनाओं एवं राजनीतिक संस्थाओं के पारस्परिक अन्तःसम्बन्धों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
बेंडिक्स : राजनीति विज्ञान राज्य से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि यह समाज को कैसे प्रभावित करता है। राजनीतिक समाजशास्त्र समाज से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि वह राज्य को कैसे प्रभावित करता है।
पोपीनो : राजनीतिक समाजशास्त्र में वृहत् सामाजिक संरचना तथा समाज की राजनीतिक संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
सारटोरी : राजनीतिक समाजशास्त्र एक अन्तःशास्त्रीय मिश्रण है जो कि सामाजिक तथा राजनीतिक चरों को अर्थात् समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित निर्गमनों को राजनीतिशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित निर्गमनों से जोड़ने का प्रयास करता है। यद्यपि राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीतिशास्त्र तथा समाजशास्त्र को आपस से जोड़ने वाले पुलों में से एक है, फिर भी इसे ‘राजनीति के समाजशास्त्र’ का पर्यायवाची नहीं समझा जाना चाहिए।
लेविस कोजर : राजनीतिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध सामाजिक कारकों तथा तात्कालिक समाज में शक्ति वितरण से है। इसका सम्बन्ध सामाजिक और राजनीतिक संघर्षो से है जो शक्ति वितरण में परिवर्तन का सूचक है।
टॉम बोटामोर : राजनीतिक समाजशास्त्र का सरोकर सामाजिक सन्दर्भ में सत्ता (पॉवर) से है। यहां सत्ता का अर्थ है एक व्यक्ति या सामाजिक समूह द्वारा कार्यवाही करने, निर्णय करने व उन्हें कार्यान्वित करने और मोटे तौर पर निर्णय करने के कार्यक्रम को निर्धारित करने की क्षमता जो यदि आवश्यक हो तो अन्य व्यक्तियों और समूहों के हितों और विरोध में भी प्रयुक्त हो सकती है।
19वीं शताब्दी में राज्य और समाज के आपसी सम्बन्ध पर वाद-विवाद शुरू हुआ और 20वीं शताब्दी में, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक विद्वानों में विभिन्नीकरण और विशिष्टीकरण की उदित प्रवृत्ति व राजविज्ञान में व्यवहारवाद क्रान्ति तथा अन्तः अनुशासनात्मक उपागम को बढ़ते हुए महत्व के परिणामस्वरूप जर्मन एवं अमरीकी विद्वानों में राजविज्ञान के समाजोन्मुख अध्ययन की एक नूतन प्रवत्ति शुरू हुई।
इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप राजनीतिक समस्याओं की समाजशास्त्रीय खोज एवं जाँच की जाने लगी। ये खोजें एवं जाँच न तो पूर्ण रूप से समाजशास्त्रीय थी और न ही पूर्णतः राजनीतिक। अतः ऐसे अध्ययनों को राजनीतिक समाजशास्त्र' के नाम से पुकारा जाने लगा।
यहाँ तक कि इस विषय के नामकरण के बारे में भी आम सहमति नहीं पायी जाती । कुछ विद्वान् इसे 'राजनीतिक समाजशास्त्र' (Political Sociology) कहकर पुकारते हैं तो अन्य विदान हो 'राजनीति का समाजशास्त्र' (Sociology of Politics) कहना पसन्द करते हैं। एस० एन० आयजन्सटाइ इसे 'राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन' (Sociological study of Political Processes and Political Systems) कहकर पुकारते हैं। 'राजनीतिक समाजशास्त्र' वस्तुतः समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के बीच विद्यमान सम्बन्धों की घनिष्ठता का सूचक है। इस विषय की व्याख्या समाजशास्त्री और राजशास्त्री अपने-अपने ढंग से करते हैं। जहाँ समाजशास्त्री के लिए यह समाजशास्त्र की एक शाखा है, जिसका सम्बन्ध समाज के अन्दर या मध्य में निर्दिष्ट शक्ति के कारणों एवं परिणामों तथा उन सामाजिक और राजनीतिक द्वन्द्वों से है जो कि सत्ता या शक्ति में परिवर्तन लाते हैं; राजनीतिशास्त्री के लिए यह राजशास्त्र की शाखा है जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण समाज व्यवस्था के बजाय राजनीतिक उपव्यवस्था को प्रभावित करने वाले अन्तःसम्बन्धों से है। ये अन्त:सम्बन्ध राजनीतिक उपव्यवस्था तथा समाज की दूसरी उपव्यवस्थाओं के बीच में होते हैं। राजनीतिशास्त्र की रुचि राजनैतिक तथ्यों की व्याख्या करने वाले सामाजिक परिवों तक ही रहती है जबकि समाजशास्त्री समस्त समाज सम्बन्धी घटनाओं को देखता है।
राजनीति के अध्ययन का समाजशास्त्रीय उपागम
राजनीति के अध्ययन का समाजशास्त्रीय उपागम बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया है। मैकाइवर, डेविड ईस्टन और आमण्ड जैसे लेखकों ने इस तथ्य को मान्यता प्रदान की है कि समाज विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त आँकड़े उपलब्ध हैं, जिनसे राजनीतिक व्यवहार के कतिपय नियमों का निर्धारण किया जा सकता है। उन्होंने काम्टे, स्पैंसर, रैटजनहोफर, वेबर, पार्सन्स, मर्टन और कई अन्य लब्ध-प्रतिष्ठ समाज वैज्ञानिकों के इस विचार को स्वीकार कर लिया है कि राज्य एक सामाजिक संस्थान अधिक पर राजनीतिक कम है। अर्थात् व्यक्तियों के राजनीतिक व्यवहार को समझने और उसकी व्याख्या करने के लिए सामाजिक सन्दर्भ का सर्वेक्षण आवश्यक है। यह सामाजिक समग्रता ही है जिससे हम देख सकते हैं कि व्यक्ति का कोई दर्जा है और वह अपनी भूमिका निभा रहा है।
समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र में संबंध
समाजशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। कैटलिन ने तो स्पष्ट कहा है, "कि राजनीति संगठित समाज का अध्ययन है और इसलिए समाजशास्त्र से उसको अलग नहीं किया जा सकता।" समाजशास्त्र अपनी उत्पत्ति के प्रारम्भिक काल से ही राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं संस्थाओं का अध्ययन कर रहा है। आधुनिक काल में अनेक राजनीतिशास्त्रियों ने राजनीतिक प्रक्रियाओं की वास्तविकता को समझने के लिए उन समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रयोग किया है जो राजनीतिक व्यवहारों एवं घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं। यह बात सर्वविदित है कि कोई भी राजनीतिक कार्य व संस्था सामाजिक व्यवस्था से अलग नहीं होती है। राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेने वालों की सामाजिक पृष्टभूमि, इनकी सामाजिक दशा व मूल्यों का समुचित महत्व होता है। राजनीति में होने वाली प्रक्रियाओं का अध्ययन एक व्यापक सामाजिक सन्दर्भ में ही उचित प्रकार से हो सकता है।
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