सूखे का दृश्य पर हिंदी निबंध : इस लेख में हम पढ़ेंगे सूखा की भयानकता पर हिंदी निबंध जिसमें हम जानेंगे सूखा का प्रभाव , " सूखे की समस्य...
सूखे का दृश्य पर हिंदी निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे सूखा की भयानकता पर हिंदी निबंध जिसमें हम जानेंगे सूखा का प्रभाव, " सूखे की समस्या", "साम्प्रदायिकता का अर्थ"। Hindi Essay on Drought, "Sukha par Nibandh" for Class 5, 6, 7, 8, 9, 10 & 10.
Hindi Essay on "Drought ", "Sukha par Nibandh", "सूखे का दृश्य पर हिंदी निबंध" for Students
प्रकृति का स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। उसे समझ पाना कम-से-कम अभी तक तो मनुष्य के बस की बात नहीं बन सका। ज्ञान-विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ कहा जाताहै कि प्रकृति के सभी रहस्यों को जान और सुलझा लिया गया है। परन्तु यह बात सच नहीं लगती। मौसम विज्ञानी घोषणा करते हैं कि अगले चौबीस घण्टों में बहुत वर्षा होगी, याकडाके की ठण्ड पड़ेगी; पर होता कुछ और ही है। वर्षा और ठण्ड के स्थान पर कड़ाकेदार धूप खिलखिला उठती है। सारा विज्ञान, उसकी जानकारियों और सफलताओं का सारा दम्भ धरा रह जाता है । सो प्रकृति अनन्त है। उसका स्वभाव अबूझ है। कभी तो वह इतनापानी बरसा देती है, कि बाढ़ के कारण मानव हाहाकार करने लगता है। कभी इस तरह से तपती है कि यदि कहीं थोड़ा-बहुत पानी रहता भी है, तो सूख कर धरती और उसके सारे वातावरण को रूखा बना देता है। इस प्रकार पूरी तरह कभी कोई जान और कह नहीं सका कि कब बाढ़ आयेगी और कब सूखे की भयानकता हाहाकार मचा देगी!
पिछले वर्षों हमारे इलाके में एक बार ऐसे ही सूखा पड़ गया था। यों पहले रोज समाचारपत्रों में पढ़ते, दूरदर्शन-रेडियो पर सुनते कि इस बार मानसून अच्छा आयेगा, बारिश भी अच्छी होगी। हमारे इलाके में क्योंकि पिछले बार भी बारिश नहीं हुई थी, सूखा ही बीत गया था, सो इस प्रकार के समाचार और घोषणाएँ बहुत अच्छे लगते ! राम-राम करके वर्षा का मौसम भी आ गया। हम रोज़ समाचार पढ़ने-सुनने लगे कि बम्बई-कलकत्ता में इतनी भारी वर्षा हुई कि सड़कों पर नावें तैरने लगीं। मद्रास में चौथे दिन भी लगातार वर्षा। अमुक नगर में एक ही दिन या कुछ ही घण्टों में इतने सैण्टीमीटर वर्षा कि जल-थल एक हो गया। हम भी बड़ी आशा और उत्साह से देखते कि उधर बरसने के बाद बादल देवता अपनी बड़ी फुहारें लेकर इधर हमारे इलाके में भी बरसने आयेंगे, पर नहीं आये! आस-पास मीलों तक कहीं एक बूंद भी नहीं बरसी। धीरे-धीरे मौसम बीतता गया और निराशा बढ़ती गयी। कई बार पुरवेया का झोंका आकर दिलासा भी दे जाता, कई बार बादलों की कुछ टुकड़ियाँ भी घूमती-फिरती हमारे इलाके के आकाश पर आ मँडरातीं और हम उत्साह से भर उठते, कि आज जी भर कर बरसात में नहायेंगे, पर देखते-ही-देखते बादल महोदय जाने उड़कर किधर चले जाते ! सो पिछले वर्ष के समान वर्षा को इस वर्ष भी नहीं होना था, नहीं हुई। हम लोग भयानक गर्मी में झुलसते तपते ही रह गये!
दो-तीन वर्षों तक लगातार बारिश न होने का परिणाम जल्दी ही हम लोगों के सामने आने लगा! बरसाती नदी-नाले, तालाब आदि एक-एक करके सभी सूख गये। इनके तलों में या तो पपड़ी जमी हुई दिखायी देती, या फिर दरारें ही दरारें दीख पड़तीं। लगता था प्यास से व्याकुल होकर धरती ने अपने पपड़ी जमे रूखे-सूखे होंठ खोल रखे हो। आस-पास जो छोटे-मोटे चरागाह थे, वे एकदम सूख गये। कहीं घास का एक तिनका तक भी दिखायी न देता। इस कारण आम लोगों के क्या, गाँव-खेड़ों के अच्छे-भले. खाते-पीते लोगों के ढोर-डंगर भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मरने लगे। बस्तियों से बाहर तो उनकी हड्डियाँ, शरीर के सूखे-सड़े ढाँचे नज़र आते ही, भूखे-प्यासे कुत्ते उन्हें घसीट कर बस्तियों में भी ले आते। इस कारण चारों तरफ का वातावरण गन्दा और बदबूदार होने लगा! यहाँ का खेती-बाड़ी भी अधिकतर वर्षा के पानी पर ही आश्रित थी। सो दो-तीन साल लगातार बारिश न होने के कारण उसका बुरा हाल हो गया। छोटी जोत वाले किसान तो बीज ही न बो सके। जिन्होंने किसी तरह इस आशा में बीज बो लिये कि देर-सबेर वर्षा तो होगी ही, उनके खेतों के बीज रूखी-सूखी मिट्टी में ही सड़ गये। किसान-मज़दूरों को तो काम मिल पाना एकदम बन्द हो गया, आम किसानों के पास भी कोई काम-धाम न रह गया। अगर किसी के पास कोई बचा-खुचा अनाज बाकी था, तो वह कुछ ही दिनों में समाप्त हो गया। सो उनकी नौबत भी मज़दूरों और रोजी-रोटी कमाने वालों की तरह भूखों मरने कीआ गयी। बड़े-बड़े जमाखोर महाजन और किसान-जमींदार अभी तक अवश्य कुछ सुरक्षित थे, बाकी सबकी हालत तो देखते-ही-देखते बिगड़ती गयी।
हमारी हालत भी बहुत खराब हो गयी थी। घर में ढोरों के लिए भूसे आदि का जो स्टॉक कर रखा था, वह खत्म हो गया ! हरे चारे के उगने का सवाल ही नहीं था, सो ढोर-डंगर बिलबिलाने लगे। उन्हें भरपेट पानी भी तो नहीं मिल पा रहा था। हमारे घरेलू कुएं का पानी घटता जा रहा था, सो अपनी रक्षा के विचार से हम ढोर-डंगरों को पानी भी पूरी तरह पिला न पाते ! घर में जो अनाज का स्टॉक था, जब वह भी समाप्त होने को आया, तब हमें ढोरों की क्या मुख्य रूप से अपनी चिन्ता सताने लगी। हमारी हैसियत के जो अन्य घर-परिवार हमारे आस-पास थे, उनकी दशा भी लगभग हमारे जैसी ही थी। एक-दूसरे से सामना होने पर सब यही सवाल करते कि अब क्या होगा? सवाल तो सबके पास था, पर जवाब किसी के भी पास नहीं था। तो हाथ ऊपर को उठाकर 'भगवान आसरे' की बात कर चल देते। मन-ही मन सोचते अवश्य कि इस तरह कब तक चल पायेगा?
यह बात नहीं कि इलाके में सूखा पड़ने की बात से सरकार या देश के बाकी भागों के लोग परिचित न हों, अवश्य थे! समाचार-पत्र तो चिल्ला-चिल्ला कर सबको बता ही रहे थे, दूरदूर्शन-रेडियो आदि पर भी समाचार आते रहते थे! फिर भी अभी तक सरकारी या गैर-सरकारी तौर पर किसी प्रकार की कोई राहत नहीं आयी थी! धीरे-धीरे हालत यह हो गयी कि भूख-प्यास से बेचारे मज़दूर-वर्ग के आदमी मरने लगे। परिवार के परिवार खत्म होने लगे। उन्हें उठाने और अन्तिम संस्कार करने वाला भी कोई न रह गया! अन्त में हम कुछ परिवारों ने मिल कर घर-द्वार छोड़ कर सुरक्षित स्थानों पर जाने का निश्चय कर लिया।एक सुबह जितना भी बच रहा था, या संभव हो सकता था, खान-पान का सामान उठा,बचे-खुचे ढोर-डंगर हाँकते हुए सुरक्षित स्थानों की खोज के लिए हम लोग निकल पडे। जिधर भी जाते. आस-पास के इलाकों में मीलों तक अपनी तरह के ही हैरान-परेशान लोग दिखायी पड़ते। हमें अपनी इस यात्रा का कहीं अन्त नजर न आता। यदि नज़र आता भी तो केवल मृत्यु में। सचमुच चार-पाँच दिन चलते रहने के बाद पानी आदि का अभाव और थकान के कारण पहले वृद्ध और बच्चे लुढ़कने लगे, फिर बाकियों का नम्बर भी आने लगा। उस समय हमारे मन पर क्या बीतती होगी; नहीं, उसका सही अनुमान कोई नहीं लगा सकता!
इस प्रकार कई दिनों तक चलने, रास्ते में अपने कई साथियों-सदस्यों को गंवाने के बाद हम लोग तहसील मुख्यालय पहुँचे। वहाँ जाकर हमें कुछ राहत, कुछ खान-पान की सहायता मिल सकी। हमारी दुर्दशा देखकर, हमसे उधर की बुरी हालत जान कर कुछ स्वयंसेवी संस्थाएँ और कुछ खाऊ-पियू सरकारी कर्मचारी उनकी सहायता के लिए चल पड़े। उन्होंने क्या किया, वहाँ के रहने वालों के साथ क्या बीती, हमें पता न चल सका। हाँ, वातावरण और मौसम कुछ सुधरने के बाद जब हम लोग वापिस अपने घरों में पहुंचे, वहाँ की जनसंख्या लगभग आधी रह गयी थी। इतनी ही कृषियोग्य भूमि जल-भुन कर बंजर-समान हो चुकी थी ! देखा, वहाँ कुछ कुएँ खुदे हुए हैं। पानी के हैण्ड पम्प भी लगे हुए हैं। किन्तु जिनको हमारी आँखें ढूँढतीं, उनमें से कइयों का न मिलना. उनके जो समाचार मिल, वे रोंगटे खड़े कर देने वाले थे! वास्तव में सूखे का वह आपबीता अनुभव याद आकर आजभी मेरी हड्डियाँ तक कँपा जाता है!
COMMENTS