नये राज्यों की मांग की प्रासंगिकता पर निबंध
2 जून 2014 को आन्ध्र प्रदेश के बंटवारे के
फलस्वरूप भारत के 29वां राज्य तेलंगाना का उदय हुआ। तेलंगाना के गठन से यह पक्ष
फिर चर्चा में आ गया है कि क्या विकास के लिए बड़े राज्यों का बंटवारा किया जाना
आवश्यक है। अंग्रेजों ने भी अपने शासन में ‘फूट डालो और
शासन करो’ की नीति के तहत बंग-बंग किया था और मुद्दा बनाया
प्रशासनिक व्यवस्था को। तो क्या आज आजाद भारत अंगेजों की मानसिकता की ओर अग्रसर
है? इसका विश्लेषण नितांत अवाश्यक है।
भारत में नये राज्यों की मांग नई नहीं है। भाषा
के आधार पर नये राज्यों के गठन की मांग का सिलसिला तो स्वतंत्रता के पहले से ही
शुरू हो गया था। स्वतंत्रता के पश्चात तेलगू भाषी लोगों के द्वारा नये राज्य के
गठन के मांग ने जोर पकड़ा, जिसमें पोट्टू श्री रामालू की
भूख हड़ताल के बाद मृत्यु होने से सरकार आन्ध्र प्रदेश का भाषायी आधार पर गठन
करनेको मजबूर हो गयी।
इसके पश्चात को तमिल, कन्नड़, मरोठी, मलयालम भाषी
लोग आन्दोलित हो उठे। इस प्रकार नये राज्यों के अस्तित्व में आने का
सिलसिला-सा चल पड़ा। नये राज्यों को गठित करने के लिए क्या मापदण्ड होने चाहिए
इसके लिए सरकार ने सर्वप्रथम धर आयोग गठित किया था जिसने भाषाई आधार पर राज्यों
के पुनर्गठन को अस्वीकृत कर दिया। इसके पश्चात जे.वी.पी. कमेटी ने भी यही संस्तुति
की।
फज़ल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन
आयोग बना जिसने भी भाषायी आधार को अस्वीकृत कर प्रशासनिक सुविधा को अधिक उपयुक्त
माना।
भाषा और नस्ल के आधार पर यदि पृथक राज्यों के
गठन की मांग छोड़ दी जाये तो प्राय: नये राज्यों की मांग तभी उठती है जब प्रशासन
और जनता के बीच दूरी बढ़ने से विकास और प्रगति प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती है।
सामान्यत: यह माना जाता है कि जो इलाके विकास की दौड़ में पिछड़ जाते हैं, वे ही किसी बड़े राज्यों से पृथक होना चाहते हैं। उदाहरण के लिए जैसे
2000 में बिहार से झारखंड, उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ पृथक हुये।
इस तरह से देखें तो विकास की कतार में खड़े होने, सुराज व सुशासन की सुनिश्चितता एवं क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के
लिए क्षेत्रीय अकांक्षाओं की परिणिति नये राज्यों की मांग के रूप में सामने आती
है। एक लोकतांत्रिक देश में उन क्षेत्रीय आकांक्षाओं को खारिज भी नहीं किया जा
सकता। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सर्वसाधारण जनता की उपेक्षा करना लोकतंत्रिक
मूल्यों का हनन माना गया है। स्वामी विवेकानन्द ने तो यहां तक कहा है कि “सर्वंसाधारण जनता की उपेक्षा एक बड़ा राष्ट्रीय अपराध है।”
लोकतांत्रिक
दृष्टि से जनाकांक्षाओं के अनुरूप विकस एवं सुशासन के परिप्रेक्ष्य में की जाने
वाली पृथक राज्यों की मांग प्रासंगिक भी और औचित्यपूर्ण भी तथा भारत के संघीय
ढांचे के देखते हुये इन्हें अनुचित भी नहीं ठहराया जा सकता। किंतु यहां बिडम्बना
है कि नये राज्यों की मांग प्रशासनिक सुविधा, विकास,
सुशासन, सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए कम, सियासत को चमकाने तथ सत्ता के उपभोग के उद्देश्य के लिए अधिक की जा रही
है। इस उद्देश्य से ही भाषा, नस्ल एवं संस्कृति को आधार
बनाकर जनता को भ्रमित कर आंदोलन किया जाते हैं क्योंकि ये भावनात्मक मुद्दे हैं
इनसे जनता जल्द जुड़ जाती है।
यदि
इन्हीं उद्देश्यों से 2000 में गठित राज्यों के अनुभवों को देखें तो हम पाते
हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा बढ़ी है। यह हिंसक घटनाओं के कारण एक रक्तरंजित
राज्य के रूप में उभरा है। आदिवासी क्षेत्रों में भी विकास के दावे पूर्ण रूप से
सत्य साबित नहीं हुये। मानव तस्करी जैसे अपराध भी सामने आये हैं। इसी प्रकार
झारखंड की स्थिति भी सन्तोषप्रद नहीं रही। यह तो नितांत राजनैतिक अस्थिरता को
दर्शाता है। 13 वर्षों में 9 सरकारें बनीं, जो विकास और सुशासनपर प्रश्न
चिन्ह लगाता है। इसी तरह से उत्तराखंड की स्थिति भी विशेषरूप से सन्तोषप्रद
नहीं रही हालांकि उसकी स्थिति इन दोनों राज्यों में बेहतर है परंतु पहाड़ी
क्षेत्रों में अवैज्ञानिक अधोसंरचना विकास ने उसे परेशानी में डाल दिया है।
छोटे
नये राज्यों में लोकतंत्र तभी प्रभावी होगा जब इरादे नेक हों। नये राज्यों के
परिप्रेक्ष्य में हमारे देश में इन नेक इरादों का नितांत अभाव रहा है। यही कारण
है कि नये गठित राज्यों को क्रांतिकारी परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुआ तथा वे भ्रष्टचार
के क्रेंद्र बन गये।
नये
राज्यों के गठन से जुड़ा एक अन्य पहलू यह भी यह है कि इनके गठन पर अनेक समस्याओं
सामने आती हैं जैसे:
- सीमाओं का निर्धारण आसान नहीं होता।
- संसाधनों के बंटवारे में असामंजस्य रहता है क्योंकि कई बार देखा गया है कि संसाधन किसी नये राज्य के पास तो कारखाने पुराने राज्य के पास होते हैं।
- क्षोभ और असंतोष की स्थिति पैदा होती है जिसकी परिणति जनाक्रोश के रूप में सामने आती है।
- नये राज्यों का गठन बहुत खर्चीला होता है जितना धन राज्य के गठन में खर्च करना पड़ता है उतने में तो विकास की गंगा बहाई जा सकती है।
- राज्य की अस्मिता प्रभावित होती है तथा सांस्कृतिक क्षरण भी होता है, क्योंकि हर एक राज्य अपनी विशेष संस्कृति होती है जिसे विकसित होने में शताब्दियाँ लग जाती हैं। राज्यों के बंटवारे से इस संस्कृति का क्षरण होता है।
वर्तमान
युग संचार और सूचना का युग है। संचार क्रान्ति से जहां विकास को नये आयाम मिले
हैं वहीं शासनमें पारदर्शिता भी बढ़ी है। ई-गवर्नेंस ने प्रशासन को न सिर्फ सहज
बनाया है बल्कि सुशासन की पहुंच को भी विस्तार दिया है। संचार के इस युग में यह
दलील अब उपयुक्त नहीं लगती कि विकास सिर्फ छोटे राज्यों में ही सम्भव है क्योंकि
अब दूर बैठकर ही बड़े राज्यों में विकास और सुशासन की धार दी जा सकती है। हां, यह
आवश्यक है कि इसके लिए प्रबल राजनैतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए।
क्षेत्रीय
आकांक्षाओं के बलवती होने से प्राय: क्षेत्रीय असन्तुलन, असमानता, क्षेत्रीय पिछड़ापन होता है जो उत्तर प्रदेश में पश्चिम उत्तर प्रदेश
बनाम पूर्वी उत्तर प्रदेश। इनका सीधा सम्बन्ध व्यवस्था से है, रोजगार से है। यदि इनकी आकांक्षाओं के अनुरूप इनकी अनुरूप इनकी समस्याओं
का हो तो ये क्षेत्रीय आकांक्षायें बलवतीं नहीं होंगी तथा नये राज्यों के गठन की
मांग इतनी विकराल नहीं हो पायेगी।
- इसके लिए शिक्षा के अवसरों का विकास दूर-दराज के क्षेत्रों में भी उपयुक्त तरीके से करना होगा। शिक्षा का पूरा ढांचा तो प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च हो उसे क्रियान्वित करना होगा। रोजगार के अवसरों का सृजन करने पर बल दिया जाना चाहिए ताकि युवाओं के आक्रोश को कम किया जा सके।
- अधोसंरचना का विकास कर उन्हें प्रशासन से जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए।
- पंचायती राज के उद्देश्य को पूरी कर्तव्यनिष्ठ भावना के साथ क्रियान्वित किया जाना चाहिए ताकि अंतिम व्यक्ति भी प्रशासन में सहयोग करे तथा व्यवस्था से खुद को जोड़ सके।
- स्वस्थ्य सुविधाओं में व्याप्त भ्रष्टाचारपर अकुंश लगाया जाए क्योंकि इसी के कारण जनता अपने अधिकार को प्राप्त नहीं कर पाती है।
हालांकि
सरकार भी ऐसी विषमताओं को कम करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराती रहती है, जैसे
वर्तमान में इन्हीं क्षेत्रीय असमताओं को दूर करने के लिए सरकार द्वारा मनरेगा
जैसी महत्वकांक्षी योजना चल रही है जो रोजगार की गारंटी देती है। सर्व शिक्षा अभियान
के तहत सभी को मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था की गयी तथा शिक्षा को मूलाधिकार में
जोड़ा गया। जनधन योजना, नकद सब्सिडी आदि ऐसी कई योजनायें हैं
जो सरकार ने जनहित में लागू की है। वर्तमान में ‘मेक उन
इडिया’ जैसी महत्वाकांक्षी योजना जो अधोसंरचना विकास, रोजगार, कौशल प्रशिक्षण आदि से जुड़ी है एक सरहानीय
कदम है।
परन्तु
यह भी वास्तविकता है कि इन योजनाओं में बेहतर क्रियान्वन की कमी, भ्रष्टाचार
की चरम परिणति है जिसके चलते इनके महान उद्देश्य पीछे छूट गये हैं। अत: आवश्यकता
है कि इन महान जनकल्याण की योजनाओं के पीछे के उद्देश्य को नैतिकतापूर्वक समझा
जाय। इनकी भावना के साथ खिलवाड़ न कर इन्हें पूरी कर्मनिष्ठा के साथ आगे बढ़ाया
जाये। यह प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी कि वह प्रशासन के साथ सहयोग करे।
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