Hindi Essay on "Jay Prakash Narayan", "जय प्रकाश नारायण पर निबंध" for Students

जय प्रकाश नारायण पर निबंध  लिखिए। Write  Essay on Jay Prakash Narayan in Hindi  Language. Hindi Essay on "Jay Prakash Narayan", ...

जय प्रकाश नारायण पर निबंध लिखिए। Write Essay on Jay Prakash Narayan in Hindi Language.

Hindi Essay on "Jay Prakash Narayan", "जय प्रकाश नारायण पर निबंध" for Students

  1. भूमिका
  2. प्रारम्भिक जीवन
  3. बाबू जयप्रकाश की भारत वापसी
  4. समाजवादी विचारधारा का प्रसार
  5. जयप्रकाश नायायण और स्वतन्त्रता आन्दोलन
  6. जयप्रकाश और स्वातंत्रोत्तर समाजवादी आन्दोलन
  7. सर्वोदय आन्दोलन और जयप्रकाश
  8. सक्रिय राजनीति में पुनः लाने का प्रयास
  9. युवा-शक्ति के प्रेरक और देशभक्त
  10. जय प्रकाश नारायण और आपातकाल की घोषणा
  11. जयप्रकाश और कांग्रेस-शासन का अन्त
  12. एक अजीबो गरीब व्यक्तित्व
  13. उपसंहार

भूमिका : महान क्रांतिकारी देशभक्त और उत्कृष्ठ समाज-सुधारक बाबू जयप्रकाश नारायण देश की उन महान विभूतियों में हैं जिन पर प्रयेक भारतवासी को गर्व होगा और उनके सम्मुख प्रत्येक देशवासी का मस्तक आदर से झुक जायगा। वे भारत के राजनीतिक गगन पर चमकने वाले उन सितारों में से एक हैं, जिनकी आभा कभी मलिन नहीं होगी। वह उन महान विभूतियों में से हैं जो सेवा को ही धर्म और निष्काम रूप से कार्य को ही कर्म मानते हैं। उनके सम्बन्ध में भारतीय समाजवादी आन्दोलन के भीष्म पितामह आचार्य नरेन्द्र देव के द्वारा कहे गए ये शब्द नितान्त सत्य हैं, "जयप्रकाश बाबू एक अत्यन्त संवेदनशील और भावुक, ईमानदार, कर्मठ और निष्पृह व्यक्ति हैं। बाबू जयप्रकाश के लिये 'आधुनिक भारतीय राजनीति के चाणक्य' शब्दों का प्रयोग किया जाय अथवा 'समाजवादी समाज के निर्माता' शब्दों का प्रयोग किया जाय अथवा 'निष्पृह कर्मयोगी, आदि शब्दों का प्रयोग किया जाय, सभी कुछ सत्य है।"

प्रारम्भिक जीवन - श्री जयप्रकाश बाबू का जन्म बिहार के छपरा जिले के सिताब दियरा ग्राम में, जो अब उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में है, 11 अक्तूबर, 1902 ई० को बाबू हर्षु दयाल यहाँ के कायस्थ परिवार में हुआ था। आरम्भ से ही बालक जयप्रकाश अत्यन्त संवेदनशील एवं राष्ट्रीयता के विचारों से ओत-प्रोत थे। छात्र जीवन से ही जयप्रकाश बाबू स्वतंत्रता आन्दोलन में सम्मिलित हो गये । उनका विवाह अत्यन्त अल्पावस्था में ही बिहार के प्रसिद्ध गांधीवादी बाबू बृज किशोर की पुत्री प्रभावती देवी से हुआ। 1921 ई० के असहयोग आन्दोलन में 19 वर्ष की अल्पावस्था में अपनी पढ़ाई छोड़कर वह कूद पड़े। 1923 ई० में जयप्रकाश बाबू उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये अमेरिका गये जहाँ वे 1928 ई० तक रहे। उन्होंने अमेरिका में समाजशास्त्र की परीक्षा उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण की। अपनी शिक्षा पूरी करते समय उन पर मार्क्सवादी समाजवाद का प्रभाव पड़ा और वे पक्के वैज्ञानिक समाजवादी हो गये।

बाबू जयप्रकाश की भारत वापसी और राजनीति में प्रवेश -1929 ई० में जयप्रकाश बाबू भारत वापिस आये । कुछ समय तक वह श्री घनश्याम बिड़ला के निजी सचिव रहे परन्तु पंडित जवाहरलाल नेहरू, जो उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे, ने जयप्रकाश के गुणों को पहचान कर उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की श्रम-समिति का मंत्री नियुक्त किया। 1930 ई० व 1931 के असहयोग आन्दोलन के अवसर पर जयप्रकाश बाबू ने कांग्रेस का एक गुप्त संगठन संचालित किया ओर मद्रास में उन्हें पारसी की वेषभूषा में गिरफ्तार किया गया। यहां से वह नासिक जेल भेजे गये जहाँ उनकी भेंट श्री मीनू मसानी, एन. सी. गोरे एवं सदाशिव माधव जैसे समाजवादी विचारधारा के युवकों से हुई।

समाजवादी विचारधारा का प्रसार: 1934 ई० में पटना में कांग्रेस अधिवेशन के समय कांग्रेस के समाजवादी विचारधारा के लोगों ने कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी का सम्मेलन आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में किया गया और उस समय जयप्रकाश बाबू नई पार्टी के महासचिव बनाये गये । उस समय से 1954 ई० तक जब उन्होंने सर्वोदय आन्दोलन के लिये जीवन-दान का व्रत लिया, जयप्रकाश बाबू कांग्रेस समाजवादी आन्दोलन के सर्वमान्य नेता रहे।

1936 ई० में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के दूसरी बार अध्यक्ष चुने गये तो उन्होंने समाजवादी सिद्धान्तों का प्रबल समर्थन किया। उस समय राजगोपालाचारी, सरदार पटेल, जे० बी० कृपलानी आदि नेहरू की समाजवादी नीति के आलोचक थे। जयप्रकाश बाबू ने अत्यन्त स्पष्ट रूप में उस समय नेहरू का साथ दिया। फैजपूर कांग्रेस अधिवेशन के बाद भी नेहरू जी जयप्रकाश बाबू और अन्य समाजवादी नेताओं को कांग्रेस समिति में रखना चाहते थे परन्तु वह उसमें सफल नहीं हुए।

जयप्रकाश नायायण और स्वतन्त्रता आन्दोलन -1935 ई० में जयप्रकाश बाब को कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने मन्त्रि-मंडल में भाग लेने का विरोध किया। 1938 ई० के हरिपुरा अधिवेशन में श्री सुभाष बोस कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये जिनका रुख वामपन्थी था। 1939 ई० में जब श्री सुभाष बोस दोबारा वामपन्थी शक्तियों के समर्थन से अध्यक्ष चुने गये तो टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई । उस समय यूरोप में युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। जयप्रकाश बाबू और उनकी कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने ऐसे अवसर पर कांग्रेस की एकता को दृढ़ बनाने और स्वतंत्रता संग्राम के हेतु उद्यत रहने के लिये आवाहन किया। द्वितीय महायुद्ध के प्रारम्भ होने के समय स्वतंत्रता आन्दोलन को पूरे वेग से चलाने के लिये जयप्रकाश बाबू की कांग्रेस समाजवादी पार्टी ही पूरी तरह से तैयार थी। युद्ध प्रारम्भ होते ही जयप्रकाश ने स्वातंत्र्य आन्दोलन को तीव्र करने का आवाहन किया । फलस्वरूप उन्हें बन्दी बना लिया गया। बीच में उन्हें कुछ समय के लिये छोड़ा गया परन्तु शीघ्र ही पुन: गिरफ्तार करके देवली जेल भेज दिया गया। इस अवसर पर ब्रिटिश सरकार ने जयप्रकाश पर यह झूठा आरोप लगाया कि वह हिंसक क्रान्ति के समर्थक हैं । देवली जेल से वह हजारीबाग जेल भेजे गये । 1942 ई० के आन्दोलन प्रारम्भ होने के बाद नवम्बर माह में दीवाली की रात को जयप्रकाश बाबू जेल की दीवारों को फांदकर भाग निकले और उसके बाद उन्होंने देश के गुप्त स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया। नेपाल की तराई में उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया परन्तु क्रन्तिकारी युवकों ने उन्हें जबरन रिहा करा लिया और जयप्रकाश बाबू अत्यन्त दृढ़तापूर्वक देश में स्वतन्त्रता की ज्योति जलाते रहे। 1942 ई० के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर यह पता चलेगा कि यह आन्दोलन उन्हीं क्षेत्रों में अधिक सफल रहा, जहाँ जयप्रकाश बाबू और उनकी कांग्रेस समाजवादी पार्टी का प्रभाव था।

1944 ई० में जयप्रकाश बाबू पुनः गिरफ्तार किये गये और उन्हें लाहौर जेल में अनेक यातनायें दो गई। 1945 ई० में वह पंडित नेहरू के साथ रिहा हुये । उस समय देश में यह विचार प्रचलित था कि स्वतंत्रता क्रान्ति के द्वारा ही मिलेगी परन्तु 1946 ई० में अन्तरिम सरकार बन जाने पर यह स्पष्ट हो गया कि समझौते द्वारा ही यह कार्य सम्पन्न हो जायगा जब संविधान सभा बनी तो जयप्रकाश बाबू ने उसका बहिष्कार किया।

जयप्रकाश और स्वातंत्रोत्तर समाजवादी आन्दोलन : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् जयप्रकाश बाबू ने देश में समाजवादी आन्दोलन को तीब्र करने का बीड़ा उठाया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही काँग्रेस से समाजवादियों को बाहर निकालने के प्रयास किये जाने लगे। फलस्वरूप 1948 ई० में कानपुर अधिवेशन में काँग्रेस समाजवादी पार्टी ने अपने नाम से काँग्रेस शब्द हटा दिया। 1949 ई० में काँग्रेस ने इस पार्टी को निकाल-बाहर किया। तभी से जयप्रकाश बाबू काँग्रेस से अलग हो गये। उन्हीं दिनों जयप्रकाश बाबू ने समाजवादी आन्दोलन में लोकतांत्रिक समाजवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसका मूलाधार लोकतंत्र, धर्म-निरपेक्षता और समाज की एकता कहा गया । 1952 ई० के आम चुनाव में जब समाजवादी दल को केवल 11 प्रतिशत मत प्राप्त हुये और कृषक मजदूर प्रजा पार्टी को 8 प्रतिशत मत मिले तो दोनों ने एक में मिल कर एक शक्तिशाली संगठन बनाने का बीड़ा उठाया और जयप्रकाश बाबू ने समाजवाद की सिद्धान्तवादिता का तिरष्कार कर दिया । उनकी आलोचना हुई और 1953 ई० में जयप्रकाश बाबू ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। उसी समय जयप्रकाश बाबू देश के संविधान और संसदीय व्यवस्था के आलोचक बने और 1954 ई० में ही उन्होंने अपने विचार एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया। जय प्रकाश बाबू ने अनेक ऐसे विचार भी व्यक्त किये जिन्हें काँग्रेस ही नहीं बल्कि अन्य विरोधियों ने भी स्वीकार नहीं किया।

सर्वोदय आन्दोलन और जयप्रकाश-1954 ई० से सक्रिय राजनीति से विलग होने के पश्चात् जयप्रकाश बाबू ने 1954 ई० तक एकनिष्ठ भाव से सर्वोदय एवं भूदान आन्दोलन में भाग लिया। वह आचार्य विनोबा के साथ देश के गांव-गांव में घूम कर सर्वोदय और भूदान का नारा बुलन्द करते रहे और समाज के दलित वर्ग के उत्थान का प्रयास करते रहे।

सक्रिय राजनीति में पुनः लाने का प्रयास-जयप्रकाश बाबू को सक्रिय राजनीति में लाने के हेतु अनेक प्रयास किये गये और उनके कुछ आलोचकों ने तो उन्हें पलायनवादी तक कह दिया । परन्तु जयप्रकाश बाबू एकनिष्ठ भाव से अपने कार्य में रत रहे। 1971 ई० के संसदीय चुनाव के पश्चात् जयप्रकाश बाबू को राष्ट्रपति बनाने का प्रयास किया गया परन्तु जयप्रकाश बाबू इन सभी पदों से दूर रहे । हाँ, यह अवश्य है कि सक्रिय राजनीति में भाग न लेने के बाद भी समय-समय पर राजनीतिक एवं आर्थिक मामलों पर अपने विचार व्यक्त किये । 1972 ई० के आमचुनाव के अवसर पर जयप्रकाश बाबू ने चुनाव के शुद्धीकरण का आन्दोलन चलाया।

युवा-शक्ति के प्रेरक और देशभक्त-1973 ई० में गुजरात में विधानसभा भंग करने का आन्दोलन जब नवयुवकों ने शुरू किया तो जयप्रकाश बाबू श्रीमती प्रभावती देवी के निधन के पश्चात् एक वर्ष तक राजनीति से बिलकुल तटस्थ रहे परन्तु उनमें नवीन भावुकता का प्रादुर्भाव हुआ और 1974 ई० में बिहार में उन्होंने इस प्रकार के आन्दोलन का आवाहन किया । सत्य तो यह है कि उस समय देश के राजनीतिक वातावरण में जो घुटन आ गई थी, जयप्रकाश बाबू जैसे भावुक व्यक्ति उसे सह न सके और उन्होंने युवा-शक्ति को नई प्रेरणा प्रदान की। देश में नवयुवकों का आन्दोलन जोर पकड़ता गया। जयप्रकाश के आवाहन पर आयोजित किये गये 'पटना मार्च' में ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया कि सत्तारूढ़ दल की आँखें चौंधियाने लगीं। उसके बाद नई-दिल्ली में विशाल प्रदर्शन किया गया। जयप्रकाश जी ने सम्पूर्ण क्रान्ति का आवाहन किया।

जय प्रकाश नारायण और आपातकाल की घोषणा -जयप्रकाश बाबू की सम्पूर्ण क्रांति के आवाहन पर देश में जो नई युवा-शक्ति उभर कर आई उससे सत्तारूढ़ दल में खलबली मच गई। उन्होंने आन्दोलन का जो नारा दिया उससे भयभीत होकर समस्त देश में संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर दी गई । समाचार पत्रों पर सेन्सर लगा दिया गया, जनता के मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया और न्यायालयों की स्वतन्त्रता छीन ली गई। 26 जून, 1975 को जयप्रकाश बाबू को नजरबन्द कर दिया गया। नवम्बर, 1975 में वे बीमारी के कारण पैरोल पर छोड़े गये । नवम्बर, 1976 ई० में उन्हें रिहा कर दिया गया। उस समय तक जयप्रकाश बाबू की हालत काफी खराब हो गई थी और वह चलने-फिरने से पूरी तरह से लाचार हो गये थे।

जयप्रकाश और कांग्रेस-शासन का अन्त-फरवरी, 1977 में जब देश की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने आम चुनाव की घोषणा की तो जंगले में बन्द किया गया यह बूढ़ा शेर फिर से हुंकार उठा । श्रीमती गांधी को यह विश्वास था कि विरोधी दल आपस में मिल ही नहीं सकते और वह आसानी से चुनाव जीत लेंगी। परन्तु जयप्रकाश बाबू की प्रेरणा से संगठन कांग्रेस, भारतीय लोकदल, जनसंघ और समाजवादी दल ने मिलकर जनता पार्टी के रूप में संगठित होकर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। चुनाव के कुछ समय पूर्व बाबू जगजीवन राम, जो आपातकालीन स्थिति को समाप्त करने के लिये निरन्तर कहते आ रहे थे, ने भी कांग्रेस छोड़ कर लोकतांत्रिक कांग्रेस की स्थापना की और जयप्रकाश के नेतृत्व में जनता पार्टी के साथ गठबन्धन करके वह भी चुनाव में कांग्रेस विरोध में कूद पड़े। जयप्रकाश बाबू ने विभिन्न विरोधियों को एक ही मंच पर खड़ा करके देशवासियों के भय को दूर भगा दिया और इस बात का आवाहन किया कि देश में तानाशाही लाने वाली प्रवृत्तियों का समूल नाश किया जाय । जयप्रकाश बाबू अपने इस आवाहन में पूरी तरह सफल हुए और उन्हीं के प्रयासों से फरवरी, 1977 के आम चुनाव में देश में पहली बार केन्द्र में कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा और जनता पार्टी एवं लोकतान्त्रिक कांग्रेस की मिली-जुली सरकार गठित हुई। इस प्रकार जयप्रकाश बाबू अपनी वृद्धावस्था में 'भारतीय राजनीति के चाणक्य' के रूप में उदित हुए। उन्होने श्री मोरार जी देसाई को भारत का प्रधान मंत्री बनवाकर एक वैसा ही कार्य किया जैसा कि महात्मा गांधी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमन्त्री बनवाकर किया था।

एक अजीबो गरीब व्यक्तित्व-जयप्रकाश बाबू के समस्त जीवन पर दृष्टिपात करने पर वह हमारे सम्मुख एक अजीबो-गरीब व्यक्तित्व के रूप में आते है। अपने आरम्भिक राजनीतिक जीवन के प्रारम्भ में वह वैज्ञानिक समाजवादी के रूप में आये, फिर भारतीय समाजवादी, फिर सर्वोदयवादी ओर तत्पश्चात् विभिन्न विचारधाराओं के संगम के रूप में उदित हए । जयप्रकाश बाबू पर जहाँ एक ओर महात्मा गांधी और आचार्य विनोबा भावे का प्रभाव है, वहीं दूसरी ओर मानवेन्द्रनाथ राय के 'नवमानववाद' और दलहीन राजनीति का भी प्रभाव है। इन दोनों ही प्रकार के सिद्धान्तों ने जहाँ एक ओर लोकतन्त्र को वास्तविक अर्थ देने की बात पर बल दिया है वहीं उसके साथ ही संसदीय लोकतन्त्र की सीमाओं और उसकी असंगतियों की भी आलोचना की गई है । जयप्रकाश बाबू समय-समय पर ऐसा करते भी आये हैं। उनका आज भी यह विश्वास है कि भारतीय समाज में आमूल-चूल परिवर्तन राज्यशक्ति से नहीं, लोकशक्ति से ही हो सकता है । इस लोक-शक्ति का स्वरूप क्या हो ? इस सम्बन्ध में भी उन्होंने अपने विचार समय-समय पर व्यक्त किये हैं। सत्य तो यह है कि जयप्रकाश बाबू के विचारों ने समय-समय पर उनके आलोचकों की संख्या में वृद्धि की, परन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि आलोचना तो गांधी जी की भी गई थी। जयप्रकाश बाबू के प्रबलतम विरोधी भी यह स्वीकार करते हैं कि उनके जैसा अनोखा व्यक्तित्व उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के न तो किसी राजनीतिक नेता का रहा है और न रहेगा।

उपसंहार-जयप्रकाश बाबू त्याग और निष्पृहता की प्रतिमूर्ति है। निर्भीकता उनमें खूट-खूटकर भरी है। वह गाँधीवादी विचारधारा के इस मूल मन्त्र को भलीभाँति याद किये हुए हैं कि "युद्ध बुरे से नहीं बुरे की बुराई से है।'' भारतीय समाज के उत्थान के लिये वह निरन्तर प्रयत्नशील रहे हैं। राजनीति में वह नैतिकता के प्रबल समर्थक रहे हैं तथा जनता-जनार्दन में उनका असीम विश्वास है । मशीनों पर चलने वाले इस महान समाजसेवी, विचारक और राजनीतिज्ञ ने भारतीय लोकतन्त्र को पुनः जीवित कर दिया है, इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं है।

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