लोकतंत्र और चुनाव पर हिंदी निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे लोकतंत्र और चुनाव पर निबंध जिसमें हम जानेंगे लोकतंत्र में चुनाव क्यों जरूरी है , ...
लोकतंत्र और चुनाव पर हिंदी निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे लोकतंत्र और चुनाव पर निबंध जिसमें हम जानेंगे लोकतंत्र में चुनाव क्यों जरूरी है, "चुनाव सुधार पर निबंध", "भारतीय चुनाव प्रणाली के दोष" आदि। Hindi Essay on "Democracy and Election" anuched.
Hindi Essay on "Democracy and Election", "लोकतंत्र और चुनाव पर निबंध", "Loktantra aur Chunav" for Students
विश्व में शासन की कई प्रणालियाँ विद्यमान हैं। उन सब में से शासन की एक प्रणाली लोकतंत्र भी कही जाती है। जिसका अर्थ होता है लोक या जन (जनता) द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों का जन-हित में शासन। लोकतन्त्र या जनतंत्र की इस सर्वमान्य परिभाषा से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके साथ चुनावों की प्रक्रिया आवश्यक रूप से जुड़ी हुई है।
दूसरे शब्दों में, जनतान्त्रिक शासन-प्रणाली को चलाने के लिए जनता को स्वच्छ और ठीक ढंग से,जनहित में कार्य करने वाले सयोग्य प्रशासकों का चुनाव अपने मतदान के आधार पर करना पड़ता है। इस दृष्टि से लोक या जनतंत्र और चुनाव का सम्बन्ध वही प्रमाणित होता है, जो चोली-दामन का या शरीर और उसे जीवित रखने वाली प्राणवायु का आपस में हुआ करता है। यों भी कहा जा सकता है कि जनतंत्र या लोकतंत्र में चुनाव ही वह शक्ति और माध्यम हैं कि जिनके द्वारा आम जनता अपने हितों की रक्षा के लिए प्रशासनमें एक तरह से हस्तक्षेप कर सकती है। अवांछित और अयोग्य शासन कोबदल सकती है, ढीले और निष्क्रिय शासन को चुस्त बनाकर उचित दिशा में सक्रिय करसकती है। इसी कारण चनावों को लोकतंत्रीय शासन-व्यवस्था का प्राणतत्त्व या आधारभूततत्त्व माना गया है।
लोकतंत्र में चुनाव सत्ता-प्राप्ति के माध्यम या साधन भी हैं और सत्ता-परिवर्तन के भी। इस प्रकार चुनाव एक ऐसी प्रक्रिया है जो सत्तारूढ़ और विरोधी दोनों, दलों के लिए विशेष प्रकार के आकर्षण का केन्द्र हुआ करती है। सत्तारूढ़ दल के लिए इसलिए कि वह जनताकी कठिनाइयों को दूर करे, उसकी समस्याओं को इस प्रकार सुलझाये कि सभी के हितों की रक्षा हो सके, सभी के मन में निश्चिन्तता और विश्वास का भाव उभर सके, ताकिअगले चुनावों में भी उसकी शासन-सत्ता बनी रहे। विरोधी दलों के लिए इसलिए कि वे सत्तारूढ़ दलों की कमजोरियों और बुराइयों को इस सीमा तक सामने ला सकें कि अगले चुनावों में वह स्वयं सत्तारूढ़ होकर जनता की सुख-सुविधा और सुरक्षा के कार्य अपनी मान्यताओं तथा नीतियों के अनुरूप कर सकें। इस दृष्टि से लोकतंत्र मेंचनावों को सत्ता-प्राप्ति के संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण और अमोघ अस्त्र भी कहा जाता है।पर इस अमोघ अस्त्र का प्रयोग मात्र सत्ता-प्राप्ति के लिए ही करना परमाणु बम से भी कहीं भयानक और संघातक कहा जायेगा।
लोकतंत्र में जनता के पास चुनाव ही वह अस्त्र हुआ करता है, जिसके द्वारा वह शासकदल और विरोधी दल दोनों पर अपना अंकुश और नियंत्रण लगाये रख सकती है। परअपने इस अचूक अस्त्र के प्रयोग के लिए लोकतत्री व्यवस्था वाले देशों में जनता का सभी प्रकार से जागरूक तथा सावधान होना बहुत आवश्यक है। सामाजिक, राजनीतिक आदिसभी पहलूओं से जागरूक जनता ही चुनाव के माध्यम से देश या प्रान्तों के प्रशासन मेंऐसे व्यक्तियों को भेज सकती है जो वास्तव में निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर जन-सेवा के कार्यों में रुचि रखने वाले हों। त्याग और बलिदान की भावना से भरकर जनता और राष्ट्र-हित को ही सर्वोच्च मानने वाले हों। उनमें ऐसा सब कर सकने की शक्ति और क्षमता भी पूर्णतया विद्यमान हो। इस जागरूकता और सावधानी के अभाव में चुनावों का नाटकऔर लोकतंत्र दोनों ही प्रायः खिलवाड़ बनकर रह जाया करते हैं। कहा जा सकता है कि लोकतंत्र में चुनावों के अस्त्र का प्रयोग करने वाली जागरूक जनता ही सब कछ है। भारत के कुछ चुनावों में इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल चुका है।
यह भी प्रमाणित हो चुका है कि चुनाव जनता को बरगलाने और धोखा देने के भी साधन हैं। चुनावों से पहले उनमें भाग लेने के इच्छुक सभी प्रकार के दल बड़े-बड़े घोषणा-पत्र प्रकाशित किया करते हैं। जनता को अनेक प्रकार के सब्जबाग दिखाते हैं, आश्वासन और वचन देते हैं। परन्तु जब चुनाव जीतकर वे दल सत्ता में आ जाते हैं, तो फिर सत्ता-पद या व्यक्तिगत स्वार्थों में अन्धे हो जनता को एकदम भूल जाते हैं। भाई-भतीजावाद, स्वार्थ-सिद्धि और अपने परिवार का ही भरण-पोषण, भविष्य की सुरक्षा उनके लिए समचा लोकतंत्र होजाया करता है। पाँच वर्ष में ही वह अपनी पीढ़ी-दर-पीढ़ी की सुरक्षा की व्यवस्था कर लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए ऐसे निहित स्वार्थी लोग जनता को भ्रष्ट करने के भी अनेक उपाय किया करते है। सुरा-सुन्दरी और धन-बल तक का सहारा लिया जाता है। ऐसे चरित्र-भ्रष्ट लोगों से सावधान रहकर ही जब जनता चुनाव के अवसर पर विवेकपूर्ण ढंग से अपने मत का प्रयोग करती है, तभी चुनाव का कुछ अर्थ भी हआ करता है। तभी लोकतंत्र भी सुरक्षित रहकर फूल-फल सकता है। पर बेचारी जनता भी उस स्थिति में क्या करे, जब उसके मतों से निर्वाचित नेता ही विश्वासघात पर उतर आयें। भारत में जनता पार्टी और उसी जैसे कठमुल्ला दल-समूहों को मत देकर मतदाता विश्वासघात का कटु फल दो-तीन बार चख चुके हैं।
वर्तमान चुनाव-प्रणाली में अनेक प्रकार के सुधारों की आवश्यकता है। लोकतन्त्री व्यवस्था में चुनाव सस्ते होने चाहिए, ताकि साधनहीन, सच्चरित्र और वास्तविक जन-हितैषी भी चुनाव जीतकर आगे आ सकें। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आज हमारे देश में हो नहीं, लोकतंत्री व्यवस्था वाले प्रत्येक देश में चुनाव अधिकाधिक महंगे बनते जा रहे हैं। इसी कारण समर्थ और निहित स्वार्थी लोग ही आगे आ पाते हैं, सच्चरित्र और वास्तविक समाज-सेवी नहीं। चुनाव आयोग एवं अन्य कई गण्य-मान्य व्यक्तियों ने चुनावों को सस्ता और निष्पक्ष बनाने के लिए अनेक सुझाव दिये हैं। देखें, उन पर कब अमल होता है। फिर भी, लोकतंत्र में चुनाव एक आवश्यक प्रक्रिया और शासन-परिवर्तन का प्रमुख बल्कि एकमात्र अस्त्र है। जागरूक जनता ही इस अस्त्र का विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग करके आ गयी समस्त बुराइयों का निराकरण कर सकती है। अतः सबसे बड़ी आवश्यकता जन-जागरण की ही है। अपने और अपने अधिकारों की शक्ति, अपना महत्त्व पहचान कर सक्रिय होने की है।
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