रुपये की आत्मकथा पर निबंध। Essay on Autobiography of Money in Hindi!
रुपया बोला-अपनी
आत्मकथा अपनी जुबानी कहने में जो आनन्द आता है वह दूसरे की जबानी सुनने
में नहीं आता, इसलिए मैं स्वयं आपको
अपनी दर्द भरी आत्मकथा सुनाता हूँ। मेरा जन्म उत्तरी अमेरिका के मैक्सिको प्रदेश में
आज से युगों पूर्व हुआ था। पृथ्वी को खोदकर मुझे बाहर निकाला गया। मजदूरों ने
निर्दयतापूर्वक मेरी माँ के शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया और मुझे जबरदस्ती माँ की
ममतामयी गोद से छीनकर वे लोग अपने साथ ले आये। थोड़ी प्रसन्नता मुझे थी क्योंकि
वहाँ मैं अन्धकार में रहता था। मुझे यह मालूम ही न था कि प्रकाश जैसी भी कोई वस्तु
संसार में है। वह अन्धकारपूर्ण मेरी दुनिया थी और वही मेरा स्वर्ग। अपना घर कैसा भी हो
अपना ही घर होता है, इसलिए मुझे वहाँ
अत्यधिक सुख था, परन्तु इन फावड़े
और तसले वाले मजदूरों ने विवश कर दिया, तो मुझे बाहर आना पड़ा। अपनी सहायता को किससे कहता और मेरी सुनता भी कौन?
बाहर आकर कुलियों ने जलती हुई अग्नि की भयानक
लपटों में मुझे ऐसे डाल दिया जैसे कि उन्हें मुझसे घृणा हो।
एक दु:ख जब तक
दूर नहीं हुआ था, तब तक मेरे भाग्य
में दसरा दुख और आ गया। सीता की तरह शुद्धता के लिए मेरी भी अग्नि परीक्षा हुई।
मेरा सारा शरीर पिघल गया, घोर कष्ट उठाना
पड़ा। विपत्ति के समय कौन किसका साथ देता है। परिणामस्वरूप मेरे अन्य भाई, जो मेरे साथ आये थे, दूर हो गये। अब मेरा स्वरूप पिघलकर पानी-सा हो गया तो मुझे
निकाल लिया गया और बाहर आते ही ठण्ड पाकर मैं जम गया। मैं पहले की अपेक्षा अधिक
सुन्दर था, चन्द्र रश्मियों के समान
मेरी चमक थी और दूध के धवलता। लोगों ने मेरा नाम चाँदी रख दिया था।
प्रारम्भ में जब
मई अपने घर से दूर कर दिया गया था, तब मुझ वास्तव
में बहुत दुख हुआ था कि जाने मुझे क्या-क्या संकट उठाने पडगे। मुझे बचपन में ही
पानी के जहाज से यात्रा का सुअवसर प्राप्त हुआ और मैं एक देश से दूसरे देश में आ
गया, जबकि लोग विदेश यात्रा के
लिए तथा जहाज में बैठने के लिए जीवन भर तरसते रहते हैं। मुझे अपने देश से भारतवर्ष
भेजा गया। जल-यात्रा में मुझे विशेष आनन्द आया। चारों ओर जल ही जल दिखाई पड़ता था
और ऊपर आकाश। भारतवर्ष में आकर मुझे गोदियों से भरकर उतारा गया, जैसे किसी नई बहू को नाई तांगे में से उतारता है। यहाँ की सरकार ने मुझे
कोलकाता की टकसाल में भेज दिया। वहीं मुझे फिर एक बार अग्नि की शरण लेनी पड़ी, भट्टी में जाना पड़ा। बड़े-बड़े कारीगर मेरी सेवा में लगे। मेरे छोटे-छोटे
टुकड़े बना दिये। दु:ख तो मुझे बहुत ही हुआ पर कर ही क्या सकता था, परवश था, चुपचाप सब कुछ सहा। मेरी आकृति चन्द्रमा की तरह
गोल बना दी गई, जैसे दुल्हन के मुख का छोटी-छोटी बूंदों से
शृंगार किया जाता है वैसा ही मेरा भी किया गया। एक ओर तत्कालीन सम्राट जॉर्ज पंचम
का स्वरूप बना दिया गया तथा दूसरी ओर मेरा नाम लिखा गया और मेरा जन्म का सन् लिखा
गया, जिससे मेरी आयु ज्ञात होती रहे। टकसाल के पण्डितों ने मेरा
नामकरण संस्कार किया और लोग मुझे रुपया कहने लगे। पहले मैं स्त्री था, (चॉदी के रूप में) सोचा था अच्छा है घर में बैठना ही पड़ेगा। बाहर के झगड़ों से
मुझे क्या? पुरुष जाने। परन्तु अब मैं पुरुष हो गया, तो चिन्ता हुई कि मुझे भी पुरुषार्थ करना पड़ेगा। अब तक सज-धज कर घर में बैठने
का काम था अब मुझे बाहर भी टक्करें खानी पड़ेगी।
अब मेरी
जीवन-यात्रा प्रारम्भ हुई। अपने हजारों सेवकों द्वारा बैंक में गया। छोटे-बड़े
कोषाध्यक्षों के साथ में उछलता-कूदता जीवन का मधुर आनन्द लेने लगा। वहाँ कोलाहल की
पराकाष्ठा थी। चारों ओर शोर हो रहा था और मेरा स्वभाव एकान्त में रहने का था।
खजांची ने मुझ पर कृपा की। मुझे मेरे और बहुत से भाइयों के साथ कोलकाता के एक सेठ
के मुनीम को दे दिया। अब मुझे कुछ स्वतन्त्रता और कुछ शान्ति मिली। वर्षों तक
घूमकर कोलकाता जैसे विशाल नगर की खूब सैर की जिसके पास पहुँच जाता, वहीं बड़े प्यार से रखता। मेरी मधुर वाणी को सुनकर मेरा स्वामी एकदम प्रसन्न
हो जाता और अपने प्यार भरे हाथ मेरे ऊपर फेरने लगता। मैंने वस्तुयें खरीदने का काम
शुरू कर दिया और मेरे माध्यम से लोग भिन्न-भिन्न सामान खरीदने लगे, मानों मैं कोई
कमीशन एजेण्ट हूं। किसी को जवाहरात खरीदवाता तो किसी को सोना, किसी को रेशम खरीदवाता, तो किसी को मलमल, किसी को लोहा तो किसी को
लकड़ी, किसी को अंगूर खरीदवाता, तो किसी को रसगुल्ले और
चमचम, किसी को ऊँचे साहित्यिक ग्रन्थ, तो किसी को छोटी-छोटी किताबें और कापियाँ। संसार में मनुष्य की सभी जीवनोपयोगी
सामग्री जुटाने में व्यस्त रहा। स्वार्थ मुझे कभी छू तक नहीं पाया। मैंने सदैव
परहित के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी। मुझे इसी में आनन्द आता था। मेरा जीवन
त्यागमय था। दूसरों को खाते-खेलते देखकर मुझे असीम प्रसन्नता होती। कुछ लोग ऐसे
मिलते जो मुझे बड़ी चतुरता से दबाकर रख लेते, स्वयं चाहे कितना भी कष्ट
सह लेते परन्तु मुझे अपने से पृथक् न करते। ऐसे लोगों के पास पहुँचकर मुझे उनसे
बड़ी घृणा होती, ग्लानि होती।
अपने सैंकड़ों
साथियों के साथ मैंने भ्रमण किया,
देशाटन में मुझे विशेष
आनन्द आता था। में कभी अयोध्या गया,
तो कभी उज्जैन, कभी काशी पहुँचा तो कभी कानपुर,
कभी अलीगढ़, तो कभी आगरा। कहने का तात्पर्य यह है कि मैंने देश का कोना-कोना झाँक कर देखा।
अपने स्वामियों के साथ अनेक स्थानों के दर्शन किए, देवताओं के चरणों पर चढ़ा, कभी दिल्ली के चाँदनी चौक में घूमा, तो कभी काशी में भगवान
विश्वनाथ के दर्शन किए, कभी कोलकाता में महाकाली के चरणों में प्रणाम
किया तो कभी उज्जैन में महाकालेश्वर के सिर पर चढ़ा, कभी जमींदारों की जेब में
रहा, तो कभी दुकानदारों के गल्ले में, कभी गरीब के छप्पर में रहा,
तो कभी विधवा की गाँठ में, कभी सर्राफ की थैली में रहा,
तो कभी पढ़ी-लिखी लेडी के
पर्स में, कभी राजप्रासादों की रानियों के सन्दर सन्दूकों
में रहा, तो कभी धनवान भिखारी की फटी गुदड़ी में, मैं जहाँ-जहाँ पहुँचा लोगों ने मेरा स्वागत किया, मुझे हृदय से लगाया। कोई-कोई तो मेरे मुख को चूमकर मस्तक से लगाते थे। मेरे
पहुंचते ही जहाँ वर्षों से दीपक का प्रकाश न हुआ था, वहीं दीपावली जगमगा उठती।
आई पलकें मुझे देखते ही हरी-भरी हो उठतीं। कराहते हुए प्राण और लम्बी-लम्बी श्वासे
प्रसन्नता में बदल जाती। जिन घरों में कई दिन से रोटियाँ तक न बनी थीं मेरे
पहुँचते ही पूड़ियाँ बनने लगती।
सुख-दुख की
धूप-छाँह का नाम ही संसार है। जिस प्रकार दिन के अवकाश के पश्चात् रात्रि की गहरी
कालिमा संसार को आच्छादित कर देती है, उसी प्रकार मेरे जीवन में
भी दु:ख के क्षण आए। समाज में अराजकता बढ़ रही थी। लोग बेकारी के शिकार बने हुए
थे। उस समय में एक किसान के घर था। किसान का घर गाँव में था और वह गाँव अच्छे
सम्पन्न व्यक्तियों का था। रात को बन्दूकों की आवाज सुनाई पड़ती, बेचारा किसान डर जाता। प्रात:काल गाँव में रहने वाले सब मिलकर रात में पड़ौस
के गाँव में हुई डकैती की चर्चा करते, बेचारा किसान और भी डर
जाता। एक दिन उसने अपने घर के भीतर वाले कोठे में, जिसमें भूसा भरा हुआ था, एक गड्ढा खोदा और एक मिट्टी के बर्तन में मुझे और मेरे साथियों को बन्द करके
उसमें गाड़ दिया, ऊपर से मिट्टी डाल दी। इस तरह, समतल पृथ्वी बनाई गयी, ऊपर भूसा था ही। वहाँ न प्रकाश था, न वाय यी अजीब जेलखाना था, मन ऊबने लगा। कहाँ इतनी स्वतन्त्रता थी, कहाँ एकदम भयंकर कारावास। मेरे लिए यह सब कुछ असहाय था, परन्तु विवश था, करता भी क्या। इसी तरह जीवन के पांच वर्ष
बिताने पड़े। एक दिन सहसा किसान की पत्नी किसान के पीछे पड़ गई, उसकी बहुत दिनों में इच्छा थी एक कौंधनी बनवाने की। किसान अपनी पत्नी की बात न
टाल सका, उसने धरती खोदनी प्रारम्भ की। मैं भी कमल में बन्द भ्रमर की
तरह प्रसन्न हो उठा। मुझे बाहर निकाल लिया गया, मेरा सारा सौन्दर्य मिट्टी में मिल
चुका था। धवलिमा कालिमा में परिवर्तित हो चुकी थी, मैं सुनार के यहाँ भेज दिया गया, मुझे पत्थर पर पटक कर देखा गया,
मैं अपनी पहली अग्नि
परीक्षा का स्मरण करके काँप उठा,
हृदय में धड़कन होने लगी।
मेरी कौन सुनता था, धीरे-धीरे मेरे अन्य साथी अग्नि की भेंट होते
गए। सौभाग्य से मेरा नम्बर आने से पहले ही कॉधनी के मूल्य की संख्या पूरी हो गई और
मैं बच गया। ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया। अब मैं फिर स्वतन्त्र हूँ। मेरे
अनियन्त्रित भ्रमण पर किसी एक का प्रतिबन्ध नहीं है। इस समय मैं फिर एक सौभाग्यवती
सधवा सुन्दरी की डिब्बी में हूं। नित्य स्नान करके जब वह अपना श्रृंगार करती है, तो मेरे ही माध्यम से वह अपनी माँग में सिंदूर भरती है। उसके स्पर्श से मुझे
भी सुख मिलता है, मेरे निकट रहने से उसे भी।
मैं आपसे अपनी
प्रशंसा कहाँ तक करूं, संसार के सभी कृत्य अच्छे व बुरे मेरे आधार पर
होते हैं। आज का युग मेरी पूजा करता है। मुझे तो यह सब कुछ देखकर अपने ऊपर स्वयं
आश्चर्य होता है। जो शक्ति भगवान की थी वह शक्ति आज के लोग मुझे मानते हैं। मूर्ख
को विद्वान् बनाना मेरा बायें हाथ का काम है। नीच से नीच व्यक्ति को अगर में मिल
जाऊँ, तो समाज उसे सभ्य और सज्जन समझने लगता है। रंक से राजा और
पापी से पुण्यात्मा बनाने की शक्ति मुझ में है। आप किसी को कत्ल कर दीजिये, किसी के प्राणों से खेल लीजिये,
यदि मैं आपके पास हूं तो
कोई आपका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। असली धर्मात्मा मुझसे बड़े-बड़े परोपकार के
कार्य सम्पन्न करते हैं, जैसे विद्यालय चलवाना, भूखों को भोजन देना, निर्धन लोगों के लिये धर्मार्थ औषधालय खुलवाना, आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि
यस्यास्ति वित्तं सः नरा कुलीनः सः पण्डितः सः श्रुतिवान्
गुणसः ।
जिसके पास में हूं
वही अच्छा कुलीन है और गुणवान है,
अर्थात् आज के युग में मैं
सर्वशक्तिमान हूँ। आज मेरी घर-घर पूजा होती है।
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