दीपक / दीये की आत्मकथा deepak ki atmakatha in hindi
पूजा प्रारंभ करने से पूर्व पंडित जी
ने निम्नलिखित श्लोक पढ़ते हुए दीपक प्रज्वलित किया-
शुभं भवतु
कल्याणमारोग्यं सुख सम्पदः।
मम बुद्धि विकासाय
दिपज्योतिर्नमोस्तु ते।।
पंडित जी के इस कार्य को देख एक युवक
मुस्कुराता हुआ बोला पंडित जी दिन के दिव्य प्रकाश में टिमटिमाते हुए दीये की क्या
आवश्यकता है?
युवक के कथन पर दीपक को अत्यधिक खेद
हुआ। उसे प्राचीन संस्कृति का उपहास करने वाले लोगों की बुद्धि पर तरस आया और उसे
अपना महत्व प्रकट करने के लिए अपनी आत्मकथा कहने का निश्चय किया।
जरा मेरे जन्म की कहानी तो सुनो।
तुम्हें ज्ञात होगा कि कितने कष्ट सहकर मैं दीपक (दीया) बनकर अस्तित्व में आया हूं। मेरी जननी
मिट्टी है। वही मिट्टी जिससे सारे संसार का निर्माण हुआ है। मैं मिट्टी के रूप में
भूमि पर था तब एक दिन मैंने अपने ऊपर कुदाल के प्रहार अनुभव किए। खोदने वाले ने
मुझे बोरे में भरा और गधे की पीठ पर चढ़ा दिया। मैं जहां इस अनायास ही मिलने वाली
सवारी का आनंद ले रहा था वहीं मेरा मन भावी जीवन के संबंध में शंका से भर गया था।
मेरी शंका सत्य सिद्ध हुई। मुझे गधे की पीठ से उतार कर कुंभकार के आंगन में डाला
गया। बोरे से बाहर निकलते ही डंडे के प्रहार से मेरे कण-कण अलग कर दिए गए। कुछ देर
धूप में सूख जाने पर पुनः मेरी पिटाई शुरू हुई। बिल्कुल महीन पिस जाने पर चलनी की
सहायता से सभी कंकड़ अलग कर दिए गए फिर पानी डालकर मुझे गूंथा गया। पानी के मिश्रण
से मैं कुछ शांति का अनुभव कर रहा था कि फिर डंडे के प्रहार होने लगे और तब तक
मेरी पिटाई होती रही जब तक मैं गूंथे हुए मैदा की तरह बिल्कुल कोमल नहीं हो गया।
प्रजापति महोदय ने चाक पर रखकर अपने कुशल हाथों से मेरा और मेरे सैकड़ों अन्य
साथियों का निर्माण किया और सुखाने के लिए खुले स्थान में रख दिया। मैं खुश था और
सोच रहा था कि अब कष्टों का अंत हो गया है किंतु एक दिन जब हमें ढेर के रूप में
एकत्र कर घास फूस और उपलों से ढक दिया गया तब मेरा मन फिर शंका से भर गया मैं सोच
रहा था कि अब ना जाने क्या विपत्ति आने वाली है कि मुझे धुएं की दुर्गंध और अग्नि
के ताप का अनुभव हुआ। प्रजापति महोदय ने घास-फूंस और उपलों में आग लगा दी थी।
धीरे-धीरे धुँआ और तपन बढ़ते गए। इतनी वेदना मैंने पहले अनुभव नहीं की थी। अग्नि
शांत होने पर मुझे राख के ढेर से बाहर निकाला गया तब मैं अपने रूप को देखकर
प्रसन्न हो उठा। मेरा वर्ण लाल हो गया था और मेरा शरीर भी परिपक्व हो गया था।
अभी मेरा जीवन अपूर्ण था। वह तो पात्र
रूप ही था। पूर्ण दीपक बनने के लिए मुझे अन्य सहयोगियों की आवश्यकता हुई। तब तेल
और रूई की बाती मेरे सहयोगी बने। इसके पश्चात अग्नि देव ने बाती को जलाकर मुझे
प्रज्वलित दीप का रुप दिया।
मैं दीप्त होने वाला और प्रकाश देने
वाला दीपक हूं। सभी मंगलकारी कार्य मेरे बिना अधूरे हैं। मंदिर में भगवान की
प्रतिमा की पूजा हो, गृह प्रवेश, व्यापार का शुभारंभ हो सभी जगह मुझे सम्मुख रखकर अर्चना की जाती है।
मेरी उपस्थिति में ही भगवान भक्तों को वरदान देकर मेरा महत्व बढ़ाते हैं। अनेक
मांगलिक कार्यों में मुझे ही देवता मानकर कुमकुम से मेरी पूजा की जाती है।
भारत के महान पर्व दीपावली के अवसर पर
मेरा महत्व स्पष्ट रूप में प्रकट हो जाता है। यहां पर्व बताता है कि मानव अपने
हार्दिक को व्यक्त करने के लिए दीपक जलाता है एक नहीं अनेक दीपक, दीपों की पंक्ति दीपावली। जनश्रुति के अनुसार श्री राम के वनवास से
अयोध्या लौटने पर जनता ने अपनी प्रसन्नता प्रकट करने और श्रीराम का अभिनंदन करने
के लिए मेरे प्रकाश से नगर को जगमगा दिया था। यह उत्सव मेरी शक्ति का भी परिचय
देता है। में अमावस्या के अंधकार को भी नष्ट कर सकता हूं।
अंधेरे में सब को राह दिखाना, अंधकार से प्रकाश की ओर प्रेरित करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपने
कर्तव्य में रत हूं बिना किसी फल की कामना के। भगवान कृष्ण ने गीता में निष्काम
कर्म की प्रेरणा संभवतः मेरे निष्काम कर्म से ही ली है। मैं भी सौगंध खाकर कहता
हूं कि जब तक मानव का स्नेह रूपी तेल और भावना रूपी बाती मेरे अंदर विद्यमान रहेगी
मैं तब तक अपने कर्तव्य पथ से विमुख नहीं आऊंगा। सच्चाई यह है कि जैसे बिना आत्मा
के शरीर निष्प्राण है उसी प्रकार बिना मानवीय स्नेह के मैं मात्र मिट्टी हूं।
किंतु मानव ने भी प्रलोभन देकर मुझे
कर्तव्य विमुख करने का प्रयास किया। किसी ने चांदी का दीपक बनाया, किसी ने स्वर्ण से मेरा श्रृंगार किया किंतु मैं सभी स्थितियों में
अपने कर्तव्य पथ पर अडिग हूं और प्रकाश दिखाता हूं।
जहां मेरे प्रशंसक हैं वहां मुझे
गालियां देने वाले भी कम नहीं। चोर मेरी भर्त्सना करते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, उपहास और भर्त्सना से मैं डरने वाला
नहीं। मैं तो सभी लोगों को समान प्रकाश दिखाता हूं।
सरसों के तेल से युक्त मेरे शरीर से
उत्पन्न होती ज्वाला जहां प्रकाश फैलाती है वहीं उसका धुंआ कीटनाशक और स्वास्थ्य
वर्धक भी है। धुँए से निर्मित काजल आंखों की ज्योति की वृद्धि के लिए ना केवल
सर्वश्रेष्ठ औषधि है अपितु आंखों के सौंदर्य को भी बढ़ाता है।
मेरे जीवन से आज भी भारतीयों को प्यार
है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक मैं हूं। श्रीमती महादेवी वर्मा के
शब्दों में
यह मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो।
दूत सांझ का, इसे प्रभाती तक जलने दो।।
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