कश्मीर की समस्या पर निबंध। Essay on Kashmir Problem in Hindi : 15 अगस्त, 1947 को भारतवर्ष स्वतन्त्र हुआ। एक देश दो देशों में विभक्त हुआ। कश्मीर ऐसा राज्य था, जिसकी सीमायें एक ओर भारत को तथा दूसरी ओर पाकिस्तान को छू रही थीं। समस्या इसलिये कुछ गम्भीर थी कि कश्मीर की बहुत बड़ी जनसंख्या मुसलमान थी तथा राजा हिन्दू था। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने अपनी तटस्थ नीति की घोषणा की अर्थात् वे न पाकिस्तान में मिलना चाहते थे और न हिन्दुस्तान में। इधर हैदराबाद के सामने, जहाँ की 90% जनता हिन्दू थी, परन्तु राजा मुसलमान था और भारत के बीच में फंस जाने के कारण उसके पास भारतवर्ष में मिलने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। लेकिन पाकिस्तान कश्मीर को अपने कब्जे में रखना चाहता था। इसलिए उसने कश्मीर को सैनिक बल पर हड़पने की योजना बनाई। उसके निर्देश पर सीमावर्ती कबालियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया, पाकिस्तान के सैनिक अफसर उसका नेतृत्व कर रहे थे।
संस्कृत साहित्य में कश्मीर-सुषमा का अनेक प्रकार से मनोहरी वर्णन किया गया है। प्रकृति की प्यार भरी गोद में पला हुआ कश्मीर आज तक अनेक भारतीय नरेशों की क्रीड़ा तथा विहार भूमि रहा है। महाराज अशोक ने इस भू-भाग को अपनी कलाप्रियता के कारण उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया था। बाद में मुगलों ने इसे अधिकार में लिया, उनसे महाराज रणजीत सिंह ने छीन लिया, तब से आज तक इस प्रकृति के हरे-भरे प्रांगण पर डोंगरा नरेशों का आधिपत्य रहता आया है। भारत की वही स्वर्ण-भूमि आज राजनैतिक दुर्दशा के कारण त्राहि-त्राहि कर रही है। यद्यपि उसने आज तक ऐसे अनेक उत्थान पतन देखे हैं, परन्तु आज भी उसका छिन्न-भिन्न शरीर असीम वेदना से चीत्कार कर उठा है। अंग्रेज यहाँ से गये तो सही, परन्तु विष के ऐसे बीज बो गये, जिनके कटुफल आज भी मनुष्य को मृत्यु के मुंह में धकेल रहे हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जहाँ भारत के सामने अन्य समस्यायें थीं, वहाँ देशी रियासतों के विलय की भी बड़ी भयानक समस्या थी। लेकिन लौह पुरुष सरदार पटेल की कुशाग्र बुद्धि ने इस समस्या को बहुत जल्दी सुलझा दिया था।
15 अगस्त, 1947 को भारतवर्ष स्वतन्त्र हुआ। एक देश दो देशों में विभक्त हुआ। स्वतन्त्र देशी रियासतों को छूट दी गई कि वे जिधर चाहें उधर मिल सकती हैं, चाहे हिन्दुस्तान की ओर चाहे पाकिस्तान की ओर। जो देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान के बीच में पड़ती थीं उनके ऊपर तो इस बात का कोई विशेष प्रभाव नहीं था, क्योंकि वे तो बीच में होने के कारण किसी दूसरे के साथ गठबन्धन कर ही नहीं सकती थीं, परन्तु कश्मीर ऐसा राज्य था, जिसकी सीमायें एक ओर भारत को तथा दूसरी ओर पाकिस्तान को छू रही थीं। समस्या इसलिये कुछ गम्भीर थी कि कश्मीर की बहुत बड़ी जनसंख्या मुसलमान थी तथा राजा हिन्दू था। यद्यपि भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के अनुसार राजा को यह चुनने का अधिकार था कि वह भारत या पाकिस्तान किसी के साथ मिल सकता है। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने अपनी तटस्थ नीति की घोषणा की अर्थात् वे न पाकिस्तान में मिलना चाहते थे और न हिन्दुस्तान में। इधर हैदराबाद के सामने, जहाँ की 90% जनता हिन्दू थी, परन्तु राजा मुसलमान था और भारत के बीच में फंस जाने के कारण उसके पास भारतवर्ष में मिलने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। लेकिन पाकिस्तान कश्मीर को अपने कब्जे में रखना चाहता था। इसलिए उसने कश्मीर को सैनिक बल पर हड़पने की योजना बनाई। उसके निर्देश पर सीमावर्ती कबालियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया, पाकिस्तान के सैनिक अफसर उसका नेतृत्व कर रहे थे। कश्मीर के भिन्न-भिन्न भागों पर कब्जा करते हुए वे आगे बढ़ने लगे। कश्मीर नरेश की थोडी-सी सेना उनका मुकाबला न कर सकी। जब पाकिस्तान की कबायली सेना कश्मीर से केवल 20 मील दूर रह गई, तब यहां के राजा तथा कश्मीर की जनता की ओर से शेख अब्दुल्ला ने भारत सरकार से सहायता मांगी, लेकिन भारत सरकार की शर्त थी कि पहले कश्मीर का भारत में विलीन होना परम आवश्यक है। शेख अब्दुल्ला उसी दिन प्रातः चार बजे राजा से आवश्यक कागजों पर हस्ताक्षर कराकर वापस लौट आये। भारतीय सेना अविलम्ब विमानों द्वारा कश्मीर की ओर उड़ चली। पहिला वायुयान वीरों को लेकर उड़ा। उन्होंने पहुंचते ही अंगद का-सा पैर गाड़ दिया ताकि शत्रु आगे न बढ़ सके। इसके बाद दो-दो मिनट पर सशस्त्र भारतीय वायुयान वहां पहुंचने लगे। इन्होंने शत्रुओं को पीछे धकेलना शुरू कर दिया। अनेक छीने हुए स्थान उनसे ले लिये गये। इस समय यदि भारतीय सेना को कुछ समय की छूट मिल जाती, तो यह समस्या सुलझ गई होती और समस्त कश्मीर पर आज भारत का अधिकार होता, परन्तु तभी भारत सरकार ने इस प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र-संघ को सुरक्षा परिषद् के सामने उपस्थित कर दिया। सुरक्षा-परिषद् ने तुरन्त दोनों देशों में सन्धि कराकर युद्ध समाप्त कर दिया। फलस्वरूप आज तक समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। कश्मीर के कुछ भाग पर पाकिस्तान का अधिकार है और शेष पर हिन्दुस्तान का, संयुक्त संघ की ओर से अब तक कई कमीशन आये और चले गये, परन्तु समस्या सुलझ न सकी।
संयुक्त राष्ट्रं संघ ने कश्मीर समस्या को अब तक सुलझाने का बिल्कुल प्रयास नहीं किया। बल्कि और नये-नये विवाद उत्पन्न कर दिये हैं। सारा प्रश्न अभी ज्यों का त्यों पड़ा है। इसका मुख्य कारण है कि संयुक्त राष्ट्र में गुटबन्दियाँ हैं और शक्तिशाली राष्ट्र अपने स्वार्थ साधने में लगे रहते हैं, निष्पक्षता उनसे बहुत दूर है। युद्ध-विराम सन्धि के बाद ही भारतीय नेताओं ने यह घोषणा की थी कि कश्मीर से आक्रमणकारी सेनायें हटाने के पश्चात् वहाँ की जनता को शान्तिमय वातावरण में मतदान द्वारा अपने भाग्य निर्णय का सुअवसर प्राप्त होगा। जनमत संग्रह की आवश्यक शर्ते आज तक पूरी नहीं हुई। कश्मीर विवाद की मध्यस्थता करने के लिये यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ ने कई कूटनीतिज्ञ विद्वान् भेजे हैं, परन्तु सभी असफल लौट कर गये हैं। पाकिस्तान किसी की बात मानता नहीं। सर्वप्रथम एडमिरल चैस्टर निमिट्स मत संग्रह अधिकारी बनाकर भेजे गये थे, परन्तु उपयुक्त वातावरण के अभाव में जनमत सम्भव न हो सका। 1950 में सर ओवन डिक्सन की और उनके पश्चात् डाक्टर ग्राहम को मध्यस्थ बनाकर कश्मीर भेजा गया, परन्तु ये सभी महानुभाव असफल होकर लौटे। 1957 में स्वीडन के श्री जारिंग भी दोनों देशों में फैसला कराने आए थे। दोनों देशों के गम्भीर विचारकों से 14 अप्रैल से 11 मई तक विचार-विमर्श करने के बाद उन्हें भी वैसे ही लौटना पड़ा। एक बार रूस के प्रधानमन्त्री श्री बुलगानिन और खुशचेव भी कश्मीर गए। रूसी नेताओं ने कश्मीर को भारत का अंग स्वीकार किया। उन्होंने कश्मीर की जनता से मिलकर यह भी जान लिया कि वह भारत में मिलने की हार्दिक समर्थन करती है। लेकिन इनका प्रयास भी विफल रहा।
1951 में कश्मीर में विधान सभा के लिये आम चुनाव हुए, संविधान बना और कश्मीर में लागू कर दिया गया। इस संविधान में कश्मीर ने भारत में अपना विलीनीकरण स्वीकार किया। तत्कालीन कश्मीरी जन नेता शेख अब्दुल्ला थे। कुछ विदेशी व्यक्तियों के प्रभाव में आकर उन्होंने ऐसा षड्यन्त्र रचना आरम्भ कर दिया जिससे कश्मीर का संविधान समाप्त हो जाये और यह राज्य फिर से एक स्वतन्त्र राज्य बन जाए। उन्हीं दिनों प्रसिद्ध जनसंघी नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी वहाँ गये। देश-द्रोहिता के कारण शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया और बख्शी गुलाम मुहम्मद को नया प्रधानमन्त्री बनाया गया। उनका कथन था कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, कश्मीर की संविधान सभा कश्मीर की जनता के सच्चे प्रतिनिधि की सभा है और उसका निर्णय जनमत संग्रह के समान ही प्रामाणिक एवं पवित्र है।
पाकिस्तान उत्तरोत्तर भिन्न-भिन्न देशों से शस्त्र अर्जन में संलग्न रहा है। जनमत संग्रह को बात पुरानी पड़ चुकी है, न अब वह परिस्थिति रही है और न समय। श्री जारिंग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था-"भारत सरकार ने जनवरी 1948 को सुरक्षा परिषद् के सामने इस मामले को रखा था। उनकी शिकायत है कि परिषद् ने अभी तक यह मत व्यक्त नहीं किया कि आक्रमणकारी कौन है–भारत या पाकिस्तान। उनकी राय में परिषद् को अपना मत व्यक्त करना चाहिये। साथ ही पाकिस्तान का कर्तव्य है कि वह आक्रमण को वापस ले। सुरक्षा परिषद् जब तक यह नहीं करती और पाकिस्तान जब तक कश्मीर से नहीं हटता, तब तक प्रस्तावों के अन्तर्गत भारत ने जो वायदे किये हैं वे अमल की स्थिति तक नहीं पहुँचते।” एशिया का शक्ति सन्तुलन परिवर्तित हो चुका है। पाकिस्तान को अमेरिका से सैनिक सन्धि के फलस्वरूप उसे अनेक प्रकार की सैनिक शक्ति प्राप्त हो रही है। पाकिस्तान आज “बगदाद पैक्ट" का सदस्य है। सीएटो की सैनिक संगठन की सन्धि आदि प्रत्येक पाकिस्तान की बदलती हुई विचारधारा की ओर संकेत कर रहें। समय के साथ-साथ कश्मीर के सम्बन्ध में भी भारत सरकार के सामने नई-नई समस्यायें दी जा रही हैं। 1958 में पाकिस्तान में भी सैनिक तानाशाही स्थापित हुई। जनरल अयूब खाँ ने भी कश्मीर की इस समस्याओं को सुलझाने के लिये युद्ध की धमकियाँ दीं। पाकिस्तान की पिछले वर्षों की सभी सरकारों ने भी यही बातें दुहराई थीं।
पाकिस्तानी राष्ट्रपति अय्यूब हमेशा इस तलाश में रहे कि कैसे भारत से झगड़ा मोल लिया जाये। भारत बहुत-सी बातों को बड़े भाई की तरह सहता रहा और टालता रहा। जनवरी 1960 में पाकिस्तानियों ने पहिले हुए समझौतों पर कायम न रहते हुए कच्छ के रन पर भारी तोपों और सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया। मार्च 1960 के अन्तर्राष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन करके भारतीय प्रदेशों में दो चौंकियों बना लीं। भारत ने इन दो स्थितियों पर कड़ा विरोध किया। तीसरी बार 1965 में जब 3500 पाकिस्तानियों ने तोपों की आड़ लेकर आक्रमण किया तो भारतीय सैनिकों ने डटकर मुकाबला ही नहीं किया, अपितु इनके दांत खट्टे कर दिये। अन्ततः ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री वल्सन की भाग-दौड़ से पाकिस्तान युद्धविराम के लिए समझौते पर तैयार हुआ।
यह सब उस आक्रमण की भूमिका मात्र थी, जो बाद में पाकिस्तान ने कश्मीर पर किया। अभी तक कच्छ के रन सम्झौते के हस्ताक्षरों की स्याही भी न सूख पाई दी कि पाकिस्तान ने 5 अगस्त 1965 को कश्मीर में अपने सशस्त्र घुसपैठिये भेज कर पुन: अघोषित युद्ध प्रारम्भ कर दिया। इस युद्ध में भारतीय चोरों ने जिस वीरता और शौर्य का परिचय दिया वह भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिख जाएगा। पाकिस्तानियों ने युद्ध तो इसलिये किया था कि बचा हुआ कश्मीर भी इनको मिल जाएगा, पर हुआ उल्टा ही। भारतीय वीर लाहौर से थोड़ी दूर तक पहुंच गये, उधर पाकिस्तानियों ने अधिकृत कश्मीर के मुख्य मुख्य स्थानों पर पूर्ण अधिकार कर लिया। चौबे जी गए थे छब्बे जी होने यहां दुबे जी भी न रहे। पाकिस्तान इतनी धन-जन की क्षति के लिए कभी तैयार नहीं था जे उसे उठानी पड़ी। संयुक्त राष्ट्र संघ के कहने पर भारत और पाकिस्तान ने 23 सितम्बर 1965 को सुबह साढ़े तीन बजे से युद्ध विराम स्वीकार किया। लोकसभा में युद्ध विराम की घोषणा स्वीकार करने की घोषणा करते हुए तत्कलीन प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था-
“मैं इस संसद और समस्त देश की ओर से अपनी सेना के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूं। उन्होंने अपने अदम्य साहस और वीरता से देश के लोगों में नया विश्वास भरा है।“
कश्मीर को हडपने के पाकिस्तान के सभी दांव पेच अभी तक तो व्यर्थ गए हैं। तब से अनेकों बार जब तक पाकिस्तान के भूतपूर्व और अब स्वर्गवासी विदेश मंत्री मियां जुल्फिकार अली भुट्टो ने कश्मीर के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र-संघ में कई बार उठाया। वे जरा जबान के हल्के थे, जो मन में आता था, भारत के लिए कह बैठते थे। उनकी बचकानी बातों की वजह से पाकिस्तान भी स्वयं परेशान था। भुट्टो के कारण विदेशों में पाकिस्तान के मान को नि:सन्देह ठेस पहुंची। उन्होंने तो राष्ट्रपति अय्यूब खाँ को ही पलटने की सोच ली थी, जब यह षड्यन्त्र सामने आया तब बड़ी मुश्किल से बीमारी के बहाने से उन्हें हटाया गया। यदि मियाँ भुट्टो न होते तो शायद अय्यूब भारत से युद्ध का सौदा न करते।
युद्ध के बाद से कश्मीर के नाम पर कोई लम्बी चौड़ी कार्यवाही यद्यपि नहीं हुई, फिर भी मियाँ अय्यूब जब गीत गाते थे, तब गाते कश्मीर की रागिनी में ही थे। उनकी जिद यही थी कि पहिले कश्मीर का मामला तय हो, जबकि कश्मीर का कोई मसला है ही नहीं, राष्ट्रपति अय्यूब के उत्तराधिकारी राष्ट्रपति याह्या खाँ भी उसी स्वर और उसी राग में बोलते थे, जिसमें पाकिस्तान के पहिले स्वामी बोल चुके हैं, न कोई नवीनता है न मौलिकता।
1967 की समाप्ति पर जब देश में से आपात्कालीन स्थिति समाप्त कर दी गयी, तब शेख अब्दुल्ला को नजरबन्दी जेल से छोड़ना आवश्यक हो गया। वैसे भी कुछ विरोधी पार्टियों के और कुछ कांग्रेस के संसद् सदस्य कुछ समय से शोर मचा रहे थे और लिख-लिखकर प्रधानमन्त्री को ज्ञापन भेज रहे थे कि अब्दुल्ला को अब रिहा कर दिया जाए। परिणाम यह हुआ कि शेख को रिहा कर दिया गया।
अपनी लीडरी बरकरार रखने के लिए तथा अपना महत्व सिद्ध करने लिए आपने अपना कार्यक्रम उन्हीं पुराने गीतों से शुरू किया कि मैं तो अपना जीवन, भारत और पाकिस्तान की मैत्री कराने में लगा दूंगा। एक मास दिल्ली में रहकर सभी प्रमुख व्यक्तियों से भी मुलाकातें की। प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री एवं रक्षामन्त्री आदि प्रमुख केन्द्रीय स्तम्भों से भी विचार-विमर्श किया। इसके बाद जैसे ही आप कश्मीर में ईद की नमाज पढ़ने पहुँचे, आपने वही विषवमन किया, जो पहिले किया करते थे- “मैं कश्मीर की इस सरकार को अवैधानिक मानता हूँ जनमत संग्रह बिना कश्मीर का भारत में विलय अपूर्ण है" इत्यादि। इसी बीच में किसी पत्रकार ने शेख की नागरिकता के बारे में प्रश्न कर दिया। शेख ने भारतीय नागरिक होने से साफ इन्कार कर दिया। इसके पश्चात के जितने भाषण हुए, वे सभी अमर्यादित एवं राष्ट्रहित में अवांछनीय थे। फिर क्या था, चारों ओर से केन्द्रीय सरकार के पास फिर खबरें आने लगीं कि या तो शेख पर पाबन्दी लगायी जाए या इन्हें देशहित में फिर बन्दी बना लिया जाए। शेख ने अपने भाषणों में जो जहर उगला उसका परिणाम यह हुआ कि साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये। मेरठ में जिस दिन शेख ने भाषण दिया, उस दिन नगर में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये। 28 जनवरी से 2 फरवरी 1968 तक नगर का सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री चौधरी चरणसिंह ने जब यह कहा कि सरकार शेख के उत्तर प्रदेश में घुसने पर पाबन्दी लगाने के विषय में गम्भीरता से विचार कर रही है। तब कहीं शेख का उत्तर प्रदेश में आना बन्द हुआ। उधर श्रीमती गाँधी ने जब दूसरी मुलाकात के लिए यह कहकर मना कर दिया कि पहले वे अपने को भारतीय नागरिक मानें तभी कोई बात हो सकती है। तब कहीं उनका दिल्ली के चक्कर काटना बन्द हुआ। इस बात से तो पहिले ही झल्लाये हुए थे कि इन्दिरा जी ने यह क्यों कहा कि शेख की मुक्ति केवल परीक्षण मात्र है।
अब भी कश्मीर में पाक एजेण्टों द्वारा भारत विरोधी विषाक्त प्रचार किया जाता है। साम्प्रदायिक उपद्रव होते हैं तथा अल्पसंख्यक अपने को असुरक्षित अनुभव करते हैं। कश्मीर की जनता को विभिन्न माध्यमों से गुमराह करते भारत विरोधी प्रचार ही वहाँ के साम्प्रदायिक नेताओं का एकमात्र कार्य व्यापार है।
1971 में हुई शांति के फलस्वरुप नवोदित बंगलादेश की भयानक परिस्थितयों एवं गृह-युद्ध की भयानक लपटों से झुलसा हुआ पाकिस्तान और शेख अब्दुल्ला कश्मीर की समस्या पर मौन रहे परन्तु उनके एजेण्ट अपनी कार्यवाही में संलग्न रहे।
शेख अब्दुल्ला 1975 में कश्मीर के पुनः मुख्यमन्त्री बनने के बाद मौन रहे और भारत सरकार से सहयोग करते रहे। सहसा 2 वर्ष 1 माह, 2 दिन के बाद कांग्रेस द्वारा अपना समर्थन वापस लेने के फलस्वरूप शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चल रही कश्मीर सरकार 27 मार्च, 1977 की रात्रि के 9.35 पर समाप्त हो गई। राष्ट्रपति भवन की विज्ञप्ति के अनुसार जम्मू कश्मीर के संविधान की धारा 92 के अन्तर्गत राज्य में 6 मास के लिए राज्यपाल के शासन को स्वीकृत किया गया। प्रशासन अपने हाथों में लेने से पूर्व राज्यपाल ने विधान सभा भंग कर दी। 29 मार्च, 1977 को केन्द्रीय गृहमन्त्री चौधरी चरणसिंह ने संसद में घोषणा की कि जम्मू कश्मीर विधान सभा के लिए तीन महीने में चुनाव करा दिये जायेंगे। इससे पूर्व और पश्चात् शेख अब्दुल्ला श्री जयप्रकाश नारायण से कई बार भेंट कर चुके थे।
1977 के विधान सभा के चुनावों में शेख अब्दुल्ला की पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ। कश्मीर के नेतृत्व की बागड़ोर शेख अब्दुल्ला के हाथों में आई। शेख पुनः मुख्यमन्त्री बनाये गये। 1971 में कश्मीर में आन्तरिक विद्रोह फिर भड़क उठे। भिन्न-भिन्न राजनैतिक पार्टियों ने शेख सरकार से असहयोग करना प्रारम्भ कर दिया, सत्याग्रह और आन्दोलन उग्र रूप धारण कर उठे। उधर पाकिस्तान के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री जुल्फिकार अली भुट्टो को 4 अप्रैल, 1979 को पाकिस्तान में दी गई फाँसी के कारण कश्मीर में साम्प्रदायिक हिंसात्मक प्रदर्शन और तोड़-फोड़ प्रारम्भ हुई। परन्तु शेख अब्दुल्ला इन सबको दबाने में समर्थ सिद्ध हुए। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के 1980 में पुन: प्रधानमन्त्री बनने पर शेख ने उन्हें बधाई दी और उन्हें पूरा सहयोग देने का आश्वासन दिया।
सितम्बर, 1988 ई० को शेख अब्दुल्ला का देहावसान हो गया। भारतवासियों ने अपनी गौरवमयी परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्हें शोक श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं। शेख के बाद उनके पुत्र शेख फारुख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमन्त्री बन गये थे। उन्होंने अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कश्मीर पुनर्वास विधेयक जम्मू-कश्मीर विधान सभा में पारित करवा लिया। अब इस विधेयक पर वहाँ के राज्यपाल द्वारा हस्ताक्षर करना अनिवार्य हो गया है। लेकिन यह विधेयक भारत की अखंडता व सम्प्रभुता की दृष्टि से अत्यन्त खतरनाक है, क्योंकि इसमें यह व्यवस्था की गई है कि सभी मुसलमान नागरिक जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये, पुनः कश्मीर में आकर स्थायी रूप से बस सकते हैं। अतः यदि यह विधेयक कानून बन जाता है तो पाकिस्तान से अनेक अराजक तत्व कश्मीर में बस कर उपद्रव कर सकते हैं। इसीलिए तत्कालीन भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1986 में कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। इसके बाद फारुक अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर में वैधानिक शासन की बहाली हुई। लेकिन 1988-89 की अवधि में कश्मीर पाक घुसपैठिए और आतंकवादियों का शिविर बन गया। अतः देशद्रोही एवं आतंकवादी गतिविधियों पर नियन्त्रण पाने तथा राज्य का बहुमुखी विकास करने के लिये 1979 में कश्मीर में पुनः राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। पाक घुसपैठियों और आतंकवादियों ने कश्मीर में कहर बरसा रखा है। आज सर्वत्र कश्मीर में अशान्ति व अराजकता फैली हुई है।
सारांशतः विश्व की दृष्टि में और पाकिस्तान की निगाहों में अभी कश्मीर समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। कश्मीर का कुछ भाग जो अनधिकृत रूप से पाकिस्तान दबाये हुये है, जब तक भारत को नहीं मिल जाता तब तक कश्मीर समस्या, समस्या ही बनी रहेगी। कश्मीर की समस्या यदि केवल कश्मीर तक ही सीमित रहती तब भी कुछ भय नहीं था परन्तु पाकिस्तान निरन्तर कश्मीर की सीमाओं से प्रशिक्षित आतंकवादियों को भारत में प्रवेश करा रहा है तथा अवैध तस्करी को बढ़ावा मिल रहा है। 1988-89 से कश्मीर की सीमाओं पर शनैः शनैः संघर्ष चल रहा है। थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद पाकिस्तानी सैनिक भारतीय चौकियों पर गोलीबारी करते रहे हैं और भारतीय सीमा सुरक्षा बल भी उन्हें मुँह तोड़ जवाब देते रहे हैं। सरकारी सूचनाओं के अनुसार गोटरियाँ, खोकर और बगियाल सेक्टरों में भारतीय सुरक्षा बलों ने भी जवाबी गोलियाँ चलाई हैं।
सौभाग्य की बात है कि भारत सरकार ने कश्मीर में से राष्ट्रपति शासन समाप्त कर चुनाव करा दिये। इससे जनता को प्रजातन्त्र मिला और खोई हुई खुशियाँ लौट आईं। मतदान में श्री फारूख अब्दुल्ला की नेशनल काँफ्रेन्स को बहुमत प्राप्त हुआ है। और उनकी सरकार बनी। जिस दिन विधान परिषद् का प्रथम अधिवेशन हो रहा था उस दिन अपने भाषण में श्री फारूख ने कहा कि “हम हिन्दुस्तान के हैं और हिन्दुस्तान हमारा है, हमें उससे दुनिया की कोई ताकत अलग नहीं कर सकती” यह कहने में वे इतने आवेश में आ गये कि उनकी आँखों से आँसू छलक पड़े और वाणी गद्गद् हो गई।
हम विश्वास करते हैं कि श्री फारूख के मजबूत हाथों से कश्मीर का भला होगा। कश्मीर को सम्भालने के साथ-साथ भारत को भी दृढ़ता मिलेगी।
कहने का तात्पर्य यह है कि कश्मीर समस्या एक कैंसर का रूप धारण कर चुकी है। पाकिस्तान सदैव युद्धोन्माद में रहता है परन्तु भारत एक उन्माद रहित शांति प्रिय देश कहलाने में अपना गौरव समझता है। इस समस्या का निदान यथा स्थिति ही थी और है।
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