बैंकों के राष्ट्रीयकरण हेतु उठाए गए कदमों पर प्रकाश डालिए
19 जुलाई, 1969 को वर्षों की चर्चा और विवाद के पश्चात् श्रीमती इन्दिरा गाँधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण के निर्णय पर केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने अपनी स्वीकृति दे दी। उसी दिन रात्रि को राष्ट्रपति वी. वी. गिरि ने अध्यादेश जारी कर दिया जिसके अंतर्गत देश के 14 बैंकों को जिनके पास 5, करोड़ रुपये से ज्यादा रकम जमा थी केन्द्रीय सरकार के अधीन कर लिया गया।
अध्यादेश के अनुसार यह निर्णय राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और लक्ष्यों के अनुरूप अर्थव्यवस्था के विकास की जरूरतों को अच्छी तरह पूरा करने के उद्देश्य से किया गया था। इन बैंकों के हिस्सेदारों को मुआवजा दिया गया। अध्यादेश में कहा गया था कि भारत से बाहर निगमित बैंकों की शाखाओं का तथा जून 1060 के अन्त में 50 करोड़ रुपये से कम जमा रकम वाले भारतीय अनुसूचित बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया गया है। पचास करोड़ रुपये से अधिक जमा रकम वाले बैंक सरकार के अधीन किये गये हैं, विदेशी बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया गया है।
19 जलाई 1069 ई० को आकाशवाणी से राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने देशवासियों से अपील की वे बैंकों के राष्ट्रीयकरण के सामाजिक व लोकतन्त्रीय प्रयोग को सफल बनाने में सहयोग दें। उन्होंने बैंकों के मैनेजरों और कर्मचारियों से खास तौर से अनुरोध किया कि वे बैंकों द्वारा राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति में पूरा-पूरा सहयोग दें किन्तु इस फैसले का यह अर्थ नहीं कि अन्य क्षेत्रों में भी राष्ट्रीयकरण हो रहा है।
श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने आगे कहा-"हमारा एकमात्र उद्देश्य हमारी गरीब जनता की भलाई और उसकी उन्नति है। हर समय हमारी यही कोशिश रहेगी कि उसका जीवन जल्दी-से-जल्दी बने। विदेशी नीति की तरह हमारी आन्तरिक नीति में भी, हम अपनी राष्टीय आकांक्षाओं राष्ट्रीय आवश्यकताओं और राष्ट्रीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हैं, इससे हमारी योजनाओं और की नीतियों के कार्यान्वयन में मदद मिलेगी। राष्ट्रीयकरण से हम अपने उद्देश्यों की पूर्ति अब तेजी से कर सकेंगें। बैंक व्यवस्था के लिये अधिकारियों और कर्मचारियों के प्रशिक्षण का इंतजाम करना और उनकी सेवा की शर्तों पर भी गौर करना है। केवल राष्ट्रीयकरण से ही हमारा उद्देश्य पूरा हो सकती। आगे चलकर इन बैंकों के संगठन में परिवर्तन किया जायेगा। विशेषज्ञों की जाँच के बाद यह काम होगा। पन्द्रह वर्ष पहले 1954 को संसद में हमने समाजवादी समाज को अपनान का फैसला किया था और यह तय हुआ था कि इसको ध्यान में रखते हुए अपनी सभी योजनायें और नीतियाँ बनायें। हमारा समाज गरीब और पिछड़ा है, हमें विकास करना है, विभिन्न तबकों-गरीब और अमीर में विषमता कम करनी है। इसके लिए यह जरूरी है कि हमारी अर्थव्यवस्था के खास मोर्चे पर सरकार द्वारा जनता का कब्जा हो । भारत प्राचीन है लेकिन हमारा लोकतन्त्र नया है और इसकी रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था चन्द लोगों की मुट्टी में न रहे। किसी भी मुल्क की अर्थव्यवस्था में बैंक का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। बैंक अमीरों के पैसों का अमानतदार है, अगर ये कुशलता से चलें तो जमा करने वालों को फायदा होता है। देश में करोड़ों छोटे-छोटे किसान, कारीगर, छोटे धन्धे करने वालों को अपने कारोबार के लिए कर्ज की जरूरत है और बैंक इस जरूरत को पूरा कर सकते हैं। व्यापार और उद्योग चाहे बड़े हो या छोटे बैंक से वाजिब दर पर कर्ज लिए बिना तरक्की नहीं कर सकते। पढ़े-लिखे नौजवानों की संख्या हमारे देश में बढ़ती जा रही है, उनके रोजगार और देश की सेवा का अवसर देने में बैंकों का बहुत बड़ा स्थान है।"
प्रधानमन्त्री के इस साहसिक एवं दृढ़तापूर्ण पदन्यास की सारे देश में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। दल के अध्यक्षों ने बधाई संदेश भेजे और श्रीमती गाँधी के इस “साहसिक कदम” को समाजवाद की ओर एक सही कदम बताया। बैंक कर्मचारियों ने आतिशबाजियाँ कीं और मिठाइयां खाई गई। उद्योगपतियों तथा व्यापारी वर्ग द्वारा उसकी आलोचनायें भी हुई तथा इसे वाणिज्य व्यापार और उद्योग के विकास में बाधक बताया गया। जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी के नेताओं की ओर से बैंक के राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी अध्यादेशों को उच्चतम न्यायालय में 21 जुलाई को चुनौती दी गई। दो आदेश याचिकायें प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से संविधान प्रदत्त व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है, इसलिए यह अवैध है। दूसरे, कुछ ही घण्टों में संसद का अधिवेशन होने वाला था, ऐसी अवस्था में अध्यादेश निकाल संसद को उसके । अधिकारों से वंचित किया गया है अर्थात् संसद सदस्य होने के नाते हमारे अधिकारों का भी अपहरण हुआ है। 22 जुलाई को श्रीमती गाँधी ने संसद के दोनों सदनों में घोषणा की कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी अध्यादेश पर उच्चतम न्यायालय द्वारा अन्तरिम निषेधाज्ञा देने से 14 बड़े बैंकों पर सरकारी नियन्त्रण स्थापित हो जाने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन बैंकों के निदेशक मण्डल भंग किये जाने को हैं, इस पर भी निषेधादेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, रिजर्व बैंक को भी सतर्क कर दिया गया है, जिससे जनता के हितों की रक्षा हो सके।
25 जुलाई, 1969 ई० को लोकसभा में बैंक राष्ट्रीयकरण बिल पेश किया गया तथा 10 दिन की बहस के बाद 4 अगस्त को तालियों की गड़गड़ाहट के बीच राष्ट्रीयकरण विधेयक लोकसभा में पारित कर दिया गया। 6 अगस्त को राज्य सभा के पटल पर यह बहुचर्चित बिल रखा गया। तथा तीन दिन की बहस के पश्चात् 8 अगस्त को पारित कर दिया गया। 9 अगस्त, 1969 ई० को कार्यवाहक राष्ट्रपति श्री हिदायतुल्ला ने बैंक राष्ट्रीयकरण विधेयक को स्वीकृति दे दी और इसके साथ ही विधेयक कानून लागू हो गया।
15 अप्रैल, 1980 को भारत सरकार द्वारा देश के छ: बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश जारी किया गया, जो जून 1980 ई० में अधिनियम के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
बैंकों को राष्ट्रीयकरण महात्मा गाँधी को भी प्रिय था। आज विश्वबन्धु बापू के अनेक स्वप्न में से एक स्वप्न साकार हुआ। इस स्वप्न को सत्य सिद्ध करने का श्रेय तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को है। इस साहसिक कदम के लिए भारत का इतिहास उन्हें सदैव स्मरण करेगा।
पिछले कुछ वर्षों से कृषि और छोटे उद्योगों के लिए कर्ज में विस्तार की जरूरत बहुत अधिक अनुभव की जा रही थी। नगरों में जरूरतों की पूर्ति पर आधारित बैंक व्यवस्था में परिवर्तन लाने पर जोर दिया जाने लगा था। इसके पीछे राजनीतिक नारेबाजी से अधिक आर्थिक अनिवार्यता थी। साथ ही कुछ थोड़े से लोगों के हाथों में आर्थिक सत्ता और राष्ट्रीय सम्पत्ति केन्द्रित हो गयी थी,इससे सामाजिक तथा राजनीतिक तनाव भी उत्पन्न होने लगा था। इसके बाद बैंकों पर सामाजिक नियन्त्रण की योजना लागू की गई, ऋण परिषद् की स्थापना हुई, बैंकों में सुधार के लिए आयोग का गठन हुआ, परन्तु न उतनी तेजी आ सकी और न ही उतनी सफलता ही मिल सकी, जितनी आशा थी। वर्षों पहले अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक प्रतिनिधि मण्डल ने भी सिफारिश की थी कि भारत के बैंकों को मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण देना शुरू करना चाहिए। जर्मनी में बैंक इसी आधार पर काम करते हैं, किन्तु भारत के बैंक ब्रिटेन की व्यवस्था पर आधारित होने के कारण अल्पकालीन ऋण देने का काम करते थे।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से तीन लक्ष्य पूरे होंगे। पहला, प्राथमिक क्षेत्र को कर्ज अधिक उपलब्ध होगा, दूसरा बैंक प्रबन्ध में व्यावसायिक प्रशिक्षण और ज्ञान को बढ़ावा मिलेगा तथा तीसरा बड़े उद्योग समूहों पर सरकार का नियन्त्रण स्थापित होगा। इसके अतिरिक्त सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि देश का आर्थिक असंतुलन किसी सीमा तक समाप्त हो जायेगा। सारे प्रयत्नों के बावजूद देश के आयात और निर्यात व्यापार का असंतुलन बना हुआ है। विदेशों से जो भी नयी सहायता मिलती है उसका अधिकांश उन्हें विदेशी महाजनों को पुराने ऋण के ब्याज और किश्तों के रूप वापस हो जाता है, इधर आन्तरिक साधनों की कमी के कारण सार्वजनिक ऋण बढ़ता जा रहा है। चौथी योजना इसलिए तीन साल तक लटकी रही। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को एक साथ अरबों रुपये की राशि प्राप्त हुई। दूसरे देश के 20 बैंकों की हजारों शाखाओं के द्वारा वह आसानी से उन इलाकों तक पहुँच सकेगी जहाँ तक पहुँचने के लिए उसे एक विशाल प्रशासन तन्त्र की स्थापना करनी पड़ती।
देश में बैंक खातेदारों की संख्या दो करोड़ बतायी जाती थी। मोटे-तौर पर इनका लगभग 80 अरब रुपया विभिन्न बैंकों में जमा था। इन्हें अभी 5 से 6% तक का ब्याज मिलता था। इन्हें यह व्याज आगे भी मिलता रहेगा, इसका आश्वासन सरकार ने दिया था। जहाँ तक खातेदारों की रकम की सुरक्षा का प्रश्न है, राजकीय संरक्षण की वरीयता से ज्यादा और क्या वरीयता हो सकती है। अब न बैंक बन्द होने का भय है और न जमा धन के लुटने का भय। खातेदारों को कवल 5 से 6 प्रतिशत ब्याज मिलता है जबकि बैक शेयर होल्डरों को 22 प्रतिशत लाभांश मिलता रहा है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से यह ठेकेदारी समाप्त होगी, आर्थिक वैषम्य शनैः-शनैः समाप्त होगा और नीचे के लोगों को ऊपर उठने का अवसर मिलेगा। कुछ लोगों की यह धारणायें भ्रान्त एवं निर्मल है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। विश्व के कई विकसित देशों ने बैंकों को राष्ट्रीयकरण किया है और उन देशों की अर्थव्यवस्था पर इसका कोई प्रतिकल प्रभाव नहीं पड़ा। जिन लोकतन्त्रीय देशों में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ है। वे हैं फ्रांस, इटली, स्वीडन और श्रीलंका।
देश का बाजार भाव बैंकों के सहारे अब तक धनिकों के हाथ में रहा है। जब चाहे तब किसी भी वप्त की खरीद की और गोदाम भर दिये गए। स्वाभाविक है कि उस वस्तु का बाजार में उसका मूल्य बढा देगा। कुछ समय बाद उसी वस्तु को अपने मनमाने भावों पर बेचना उपभोक्ताओं के साथ अन्याय नहीं था तो और क्या था? अब बैंक के धन का इच्छानुसार उपयोग और उपभोग नहीं किया जा सकेगा। ब्लैक मनी अब छिपाकर नहीं रखी जा सकती, जिसके पास जो कुछ है, वह सरकार की नजर में रहेगा। चन्द लोग बैंकों के रूपये से फाइनेन्स कम्पनियाँ खोलकर जनता को न चूस सकेंगे। अब जनता को अनावश्यक टैक्सों का भार वहन न करना पड़ेगा क्योंकि बैंकों के माध्यम से सरकार पर पर्याप्त धन आयेगा, जिससे योजनायें पूरी होंगी। पिछले कुछ दशकों से देश में जो गरीब अमीर की खाई बढ़ती जा रही थी, आर्थिक वैषम्य की जो आग धीरे धीरे सुलगती जा रही थी, आर्थिक-वैषम्य की जो आग धीरे-धीरे सुलगती जा रही थी, वह प्रधानमन्त्री के इस साहसिक कदम से दूर एवं शान्त होगी । निःसन्देह ऐसा साहसिक कदम उठाकर श्रीमति इन्दिरा गाँधी ने करोड़ों भारतीय नागरिकों की इच्छा का सम्मान किया है।
20 सूत्री कार्यक्रम के अन्तर्गत पूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की प्रेरणा से भारत के सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने प्रतिवर्ष की भाँति 1988 में भी निरीह और असहायों को, निर्धन और निराश्रितों को, रेड़ी और रिक्शे वालों को, बेरोजगार और निर्बल उद्यमियों को, विकलांग और विधवाओं को करोड़ों रुपयों का ऋण बाँटा। छोटे किसानों को खेती और खेती के उपकरणों के लिए सरल ब्याज पर आर्थिक सहयोग दिया जाना, बिना सहारे लोगों को अपने पैरों खड़ा करना यही राष्ट्रीयकरण बैंकों की सर्वाधिक उपयोगिता है। हर गरीब आज इन्दिरा जी को याद करके इस पुण्य कार्य के लिए नमन करता है।
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