वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियां पर निबंध
भारतीय लोकतंत्र विश्व का विशालतम लोकतंत्र
माना जाता है। भारतीय लोकतंत्र एक ओर जहाँ अपनी गहरी जड़ों के कारण स्थिर है वहीं
वर्तमान समय में अनेक घटनाक्रमों ने उसे चुनौती प्रस्तुत की है। एक ओर भारतीय
लोकतंत्र निर्धारित समयावधि में हो रहे निष्पक्ष निर्वाचनों, जनता की बढ़ती सहभागिता तथा बढ़ते मतदान प्रतिशत द्वारा सुदृढ़ हो रहा है
वहीं दूसरी ओर कई ऐसे मुद्दे हैं जो इसे चुनौती प्रस्तुत कर रहे हैं। भारतीय
राजनीति में जातिवाद, भ्रष्टाचार,
भाई-भतीजावाद तथा सम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, धार्मिक कट्टरता, लैंगिक विभेद, निर्धनता, आर्थिक व सामाजिक असमानता राजनीतिक हिंसा
आदि ऐसे मुद्दे है जो लोकतंत्र को कमजोर कर रहे है। लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ
मीडीया व जन संचार साधन ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को कुछ बिकाऊ-मीडिया व ‘पेड न्यूज’ के माध्यम से कलंकित किया है। भारत की
बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों का लम्बा इतिहास रहा है और भारतीय
राजनीति में उसकी सकारात्मक भूमिका रही है। परन्तु आज स्थिति यह हो गयी है कि
राजनीतिक दलों की संकीर्ण मानसिकता और सत्ता लिप्सा भारतीय राजनीति को मूल्य
विहीन एवं नैतिकता विहीन बना रहा है। राजनीतिक दलों में स्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता
के स्थान पर निराधार आरोप-प्रत्यारोप का प्रचलन बढ़ा है और भारतीय लोकतंत्र में
मुद्दे बनाम विरोध की पृष्ठभूमि में विकास और राष्ट्रहित के स्थान पर ‘विरोध के लिए विरोध’ नीति का पालन हो रहा है।
वैज्ञानिक और तकनीकी रूप से भारत विश्व के
देशों में अग्रणी दिखायी देता है परन्तु कटु सत्य यह है कि सामाजिक, आर्थिक और संस्कृतिक क्षेत्र में भारत छोटे देशों से भी काफी पीछे है। ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ की कसौटी पर
देखा जाये तो यह आदर्श कल्पना मात्र है। निर्धनता भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रथम
चुनौती है। विश्व के अत्यधिक गरीब लोगों में से एक तिहाई लोग भारत में रहते हैं
और लगभग 90 करोड़ भारतीय 20रू. प्रतिदिन से कम की जाय प्राप्त करते हैं (आउटलुक
मैग्जीन 2010 अगस्त)। अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा 1.25 डॉलर प्रतिदिन आय के
आधार पर भारत की 42 प्रतिशत जनसंख्या इस रेखा के नीचे है। भारतीय निर्धन वैश्विक
निर्धनों का 33 प्रतिशत हैं। भारत एक उभरती आर्थिक शक्ति के रूप में अपनी पहचान
बना रहा है परन्तु मूलभूत सुविधाओं एवं स्वच्छता के मामले में यह पाकिस्तान, बांग्लादेश और यहाँ तक कि अफगानिस्तान से काफी पीछे है। वर्तमान
प्रधानमंत्री द्वारा ‘स्वच्छता मिशन’
प्रारम्भ करने की पीछे एक तथ्य यह भी है कि स्वच्छता के अभाव में पाँच वर्ष की
आयु तक के 2.1 करोड़ बच्चों की मृत्यु हो जाती है। लिजेर बर्जर, मुखिया स्वच्छ जल एवं पर्यावरण (यूनीसेफ) ने कहा है कि भारत स्वच्छता
की दिशा में विकासकर रहा है परन्तु अभी भी यह दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों से
पीछे है।
राजनीतिक क्षेत्र में धनबल, बाहुबल तथा राजनीतिक दलोंकी अस्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता ने भारतीय
लोकतंत्र एवं राजनीतिक व्यवस्था के सामने चुनौती प्रस्तुत की है। प्रजातंत्र
में सरकार गठन के विकल्प खुले रहते हैं। विधायिका विविध विचारों को सुनने का केन्द्र
होना चाहिए। संसदीय प्रजातंत्र में आम चुनाओं में बहुमत प्राप्त दल का नेता
प्रधानमंत्री बनता है और विपक्षी दल के नेता को विपक्ष का नेता कहा जाता है। सत्ताधारी
दल न केवल नागरिकों को सुख—सुविधायें एवं शान्तिमय जीवन व्यतीत करने की परिस्थितियाँ
उत्पन्न करता है वरन् जनता और विपक्षी दल की आलेचनाओं का भी सामना करता है जिसके
द्वारा वे स्वयं की कार्यप्रणाली में सुधार करके अच्छे परिणाम प्रदान कर सकें और
आने वाले आम निर्वाचन में पुन: बहुमत प्राप्त कर सरकार बना सके। लोकतंत्र में
विपक्ष महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विपक्ष चाहे तो देश के विकास को गति प्रदान
कर सकता है और चाहे तो असमय विरोध प्रदर्शन से विकास कि गति को धीमा कर सकता है।
प्रजातंत्र में सरकार के जनता की इच्छा के अनुरूप कार्य निष्पादन हेतु सशक्त
एवं समझदार विपक्ष की आवश्यकता होती है और संसद में विपक्ष की मुख्य भुमिका सत्ताधारी
दल अथवा प्रभावी दल पर नियंत्रण व संतुलन बनाये रखना है। अत: केवल प्रतिद्वन्द्वी
होना अनुचित है। अगर सत्ताधारी दल जनता के हितों के विरुद्ध नीति बना रहा है, योजनाएं लागू कर रहा है तो विपक्ष का तीव्र व प्रभाव विरोध आवश्यक है, परन्तु यदि सत्ताधारी दल के कार्य जनहित कि अनुकूल है, जनमानस के लिए लाभदायी हैं तो विपक्ष द्वारा ऐसे कार्यों हेतु सत्ताधारी
दल को समर्थनदेना अपेक्षित है। परन्तु बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि भारत
में हाल ही के वर्षों में विपक्ष द्वारा ‘विरोध के लिए विरोध’ की राजनीति का प्रादुर्भाव हुआ है। भारत में बहुदलीय व्यवस्था है और
एकदलीय शासन के स्थान पर बहुदलीय शासन की परम्परा विकसित हुयी है। विभिन्न दलों
द्वारा गठबन्धनव गठजोड़ कर निर्वाचन में भाग लिया जा रहा है। विपक्ष के विभिन्न
दल विषय विशेष पर आपस में सहयोग कर लेते हैं परन्तु अधिकांश समय एक दूसरे के ऊपर
आरोप-प्रत्यारोप में व्यर्थ कर देते हैं। इसका ज्वलंत
उदाहरण वर्ष 2013 में जनलोकपाल विधेयक और हाल ही में भूमि अधिग्रहण और जी.एस.टी.
विधेयक है।
हाल ही में भारत में विपक्ष का सबसे महत्वपूर्ण
कदम सदन से वॉक आउट करना है। उन्हें सदन से बर्हिगमन करना इतना प्यारा है कि वे
ये भी भूल जाते हैं कि अधिवेशन काल में संसद को चलाने के लिए प्रति मिनट 2.5 लाख
रुपये का व्यव होता है। महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार को घेरने व वाद-विवाद करने
के स्थान पर सदन में बाधा उत्पन्न करने का कार्य ज्यादा हो रहा है। लोकसभा
यहाँ तक कि अब राज्यसभा में भी अशोभनीय भाषा, शारीरिक अपमान, वाद-विवाद के समय अनावश्यक शोर और चिल्लाना, स्पीकर
के प्रति असम्मान, निष्कासन के सयम अभद्रता करना, सांसदों की अनुपस्थिति या सोते सांसद के उदाहरण सामान्य है। किसी
मुद्दे के विरोध हेतु राष्ट्रव्यापी हड़ताल करना – इससे मुद्दा तो पूर्णतया सुलझ
नहीं पाता है, वरन् सरकार का और अन्तत: जनता का आर्थिक
नुकसान अधिक होता है।
भारत में विपक्षी दल की प्रभावी भूमिका न निभा
पाने के कई कारण है। कांग्रेस दल 2014 लोकसभा निर्वाचन में 40 सीट प्राप्त कर
विपक्ष का सबसे बड़ा एकल दल के रूप में उभर कर सामने आया परन्तु न्यूनतम दस
प्रतिशत लोकसभा सीट प्राप्त न होने के कारण उसे नियमत: विपक्षी दल तथा उसके नेता
को विपक्ष के नेता का पद प्राप्त नहीं हुआ है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है क्योंकि
1984 के लोकसभा निर्वाचन में स्वयं कांग्रेस ने विपक्षी दल व नेता का पद किसी दल
को प्रदान नहीं किया था। परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जो त्रुटि पहले हुई
हो उसे आज भी दोहराया जाये। वर्तमान भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में सरकार विधित:
कुछ महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति से पूर्व विपक्ष के नेता से परामर्श हेतु बाध्य
है यथा- मुख्य सतर्कता कमिश्नर और सी.बी.आई के
मुखिया की नियुक्ति। यद्यपि विपक्ष के नेता की भूमिका कुछ विद्यकमान द्वारा
निर्धारित की गयी है परन्तु यह पद संवैधानिक नहीं है। ऐसी स्थिति में न्यूनतम
10 प्रतिशत सीट और विपक्ष के नेता की निर्धारित भूमिका अन्तर्विरोध उत्पन्न
करते हैं, इस दिशा में उचित चिन्तन,
स्पष्टीकरण व संशोधन की आवश्यकता है क्योंकि भारतीय बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था
में ऐसी स्थिति पुन: उत्पन्न न हो इसकी सम्भावना क्षीण है।
भारत में विभिन्न विपक्षी दलों के मध्य आपस
में खींचतान चलती रहतीहै। भारत में सशक्त, संयुक्त और
स्वस्थ विपक्षी का अभाव है। 2015 के बिहार के निर्वाचन में महागठबन्धन बना परन्तु
वह भी अवसरवादी राजनीति का उदाहरण था। विचाराधारा की एकता के स्थान पर यह गठबन्धन
मोदी सरकार को रोकने का गठबन्धन था जिसमें वह सफल भी हुआ अन्यथा सबसे अधिक मत प्रतिशत
प्राप्त दल भा.ज.पा ही बना। भारत मे निजी स्वार्थवश अनेकों रानीतिक दलों का उदय
हो रहा है और उनके नेताओं में दूर दृष्टि का अभाव है। 2014 लोकसभा निर्वाचन में
कुल पंजीकृत रानीतिक दलों की संख्या 1761 थी जिसमें 6 राष्ट्रीय, 49 राज्यस्तरीय तथा 1706 अमान्यता प्राप्त दल और कुल उम्मीदवारों की
संख्या 8251 थी। भारत में विभिन्न दलों का अवसरवादी गठबन्धन सही अर्थों में उन्हें
प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने में बाधा उत्पन्न करता है और ऐसे गठबन्धन
शीघ्र समाप्त हो जाते हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों में स्पष्ट कार्यक्रम व
नीतियों का अभाव है, उनके नेता उद्देश्य एवं लक्ष्यों के
सम्बन्ध में असमंजस में रहते हैं और सत्ता प्राप्ति की लड़ाई में उनमें विघटन
भी हो जाता है। दलहित के लिए राष्ट्रहित को तिलांजलि देने वाले ऐसे राजनीतिक दल
विनाशकारी आलोचनाओं के माध्यम से अपना हित साधन करना चाहते हैं। भारत में अधिकांश
दल या तो एक नेता के व्यक्तित्व पर आधारित हैं या वंशानुगत परिवार प्रणाली पर।
सत्ताधारी दल के निरंकुश कार्यों पर रोक लगाने
के लिए उत्तरदायी विपक्षी दल की आवश्यकता है जो जनमानस से राजनीतिक चेतना जाग्रत
कर सकता है परन्तु दुर्भाग्यवश भारत में ऐसा हित प्रतिदिन क्षीण होता दिख रहा
है। विपक्षी दल अपना सकारात्मक योगदान व राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों
को भूल रहे हैं। वे सत्ताधारी दल को लोक कल्याणकारी कार्यों में समर्थन प्रदान
नहीं करते वरन् केवल सरकार का विरोध करते हैं जो राष्ट्र के विकास हेतु आवश्यक
स्वस्थ वातावरण को दूषित करता है। प्रत्येक दल अगले निर्वाचन के विषय में सोचता
है आने वाली पीढ़ी के विषय में नहीं। केवल जिम्मेदार विपक्षी दल हमारे संविधान के
आदर्शों को सफलता तक पहुँचा सकता है। संसद प्रभावी विपक्ष के लिए एक अवसर प्रदान
करती है और उसे इस रूप में प्रयोग करना चाहिए। ‘विरोध
के लिए विरोध’ की विपक्ष की नीति लोकतंत्र के लिए उचित नहीं
है।
भारतीय लोकतंत्र में जातिवाद का बढ़ता प्रभाव
प्रभाव बड़ी समस्या है। रजनी कोठारी ने कास्ट इन इंडियन पॉलिटिक्स में जाति को
भारत में प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में उदृधृत किया है। विभिन्न देशों के लोगों
ने जिन्होंने जातिवाद की चुनौती की सामना किया है वे जातिवाद को लोकतंत्र की
भावना के विपरीत मानते है। भारत में जातिवाद भारतीय राजनीति का अभिन्न अंग है और
एक अनुभव के अनुसार केवल 6 प्रतिशत लोग ही ऐसे है जो जाति को ध्यान में रखकर
मतदान नहीं करते हैं। 6 भारत में जाति व्यवस्था का एक लम्बा इतिहास है और पूर्ण
व्यवस्था से प्रारम्भ हो यह स्वतंत्रता के समय बिन्दु-मुस्लिम संघर्ष में
परिवर्तित हो गया। 1975 में इन्दिरा गाँधी द्वारा आपातकाल की घोषणा तथा श्री
मोरारजी देसाई व श्री चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने से एक नया विश्वास जागृत हुआ
कि नेतृत्व के लिए अन्य दल व गुट भी सक्षम हैं। भारतीय जनमानस में क्षेत्र, जाति, भाषा के आधार पर दलों का उदय हुआ और इनके नेता
अपने समर्थकों द्वारा भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका निभाने लगे। आज ऐसा कोई
निर्वाचन नहीं है जहाँ उम्मीदवारों का चयन जाति को ध्यान में रखकर न किया जाता
हो। इसी पृष्ठभूमि में आरक्षण की व्यवस्था ने भी नकारात्मक प्रभाव ही डाला है।
आज पिछड़े और दलितों का मसीहा बन वोट की राजनीति के लिए राष्ट्रहित कह तिलांजलि
देने वालों की कमी नहीं है। जातिवाद से जुड़ा एक मुद्दा साम्प्रदायिकता है। भारत
में साम्प्रदायिक दंगो के उदाहरण भी रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में साम्प्रदायिक
दंगों की संख्या में कमी आई है परन्तु लोकतंत्र के रखवाले और वोट की राजनीति के
चैम्पियन इस मुद्दे को ठंडा न होने देकर एक नया मुद्दा सामने ले आये हैं – असहिष्णुता
का मुद्दा। आज राजनीतिज्ञों ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि हर हिन्दू को
धर्मनिरपेक्ष होने और हर मुस्लिम हो राष्ट्रवादी होने को प्रमाण देना पड़ रहा
है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गम्भीर चुनौती है।
भारतीय लोकतंत्र में समय-समय पर बड़े पैमाने पर
लगभग निष्पक्ष और उचित रीतिसे होने वाले चुनाव इसकी सबसे बड़ी कसौटी है क्योंकि
इसी के माध्यम से मतदाता अपने पसंद का प्रतिनिधि चुनने का कार्य करता है। 2004 के
आम निर्वाचन का विश्लेषण करें तो 1984 के पश्चात् देश के मतदाता ने तीन दशकों के
बाद किसी एक राजनीतिक दल को बहुमत प्रदान किया है। भाजपा को 543 सीटों में 282
सीटें (57.6 प्रतिशत) प्राप्त की यद्यपि उसने एन.डी.ए. के अन्तर्गत यह चुनाव
लड़ा था। इस निर्वाचन में 81.45 करोड़ मतदाताओं में से सर्वाधिक 66.38 प्रतिशत ने
मताधिकार का प्रयोग किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 33 प्रतिशत वोट मिला
अर्थात 67 प्रतिशत जनता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया फिर भी वे प्रधानमंत्री हैं।
यह प्रश्न हमारी निर्वाचन व्यवस्था के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सर्वप्रथम
1950 से 2014 तक मतदान प्रतिशत 54-55 प्रतिशत ही रहा है। एक दो बार यह आँकड़ा 60
प्रतिशत पार हुआ तथा 2014 में यह सर्वाधिक 66.38 प्रतिशत हुआ। अत: क्या मतदान
प्रतिशत के आधार पर भारत के सच्चा लोकतंत्र कहा जा सकता है? इसके लिए क्या
अनिवार्य मतदान की आवश्यकता नहीं है। दूसरा निर्वाचन व्यवस्था से सम्बन्धित
महत्वपूर्ण प्रश्न है कि देश में बहुमत प्राप्त कर सकरार बनाने वालों को सामान्यतया
कभी 40 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिले परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ कि सरकार बनाने
वाले दल को 33 प्रतिशत ही वोट मिला है।
इसी पृष्ठभूमि में आनुपातिक प्रतिनिधित्व
प्रणाली की माँग धीरे-धीरे शुरू होने लगी है जिससे जाति धर्म, क्षेत्रीयता आदि का प्रभाव कम होगा और धन, बल और
बहुबल भी प्रभावी नहीं हो पायेगा। भारतीय निर्वाचन प्रक्रिया में कुछ सुधार की
आवश्यकता है। मतदान अनिवार्य कर देना चाहिए, प्रतिनिधि
चुनने के साथ वापस बुलाने का अधिकार भी होना चाहिए, एक उम्मीदार
का एक से अधिक स्थान पर चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध होना चाहिए, निर्दलीय निर्वाचन पर रोक, चुनावी हिंसा के मामलों
को विशेष न्यायालय द्वारा शीघ्रता से निपटारा होना चाहिए।
मीडिया लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ माना जाता
है और भारतीय लोकतंत्र में मीडिया व जनसंचार साधनों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई है परन्तु वहीं मीडिया का एक वर्ग बिकाऊ मीडिया या ‘पेड़-न्यूज’ के माध्यम से जनता को वास्तविक
मुद्दों से भटका कर गलत सूचनाएँ प्रदान कर, जनमानस को भ्रमित
कर भारतीय लोकतंत्र को चुनौती प्रस्तुत व प्रस्तुत कर रहा है। पेड़ न्यूज का
अर्थ है प्रमुख मीडिया घरानों को अपने पक्ष में प्रभावी समाचार प्रसारित व प्रकशित
करने के लिए भुगतान देना। ऐसे समाचार सामान्यत: राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों और सेलेब्रेटीज द्वारा अपनी सार्वजनिक छवि को सुधारने के
लिए प्रकाशित करवाये जाते हैं। भारत निर्वाचन आयोग ने ऐसे सौ से अधिक मामलों को
पकड़ा है जहाँ राजनीतिज्ञों ने समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों को पक्षपातपूर्ण
रिपोर्ट प्रसारित/प्रकाशित करने के लिए भुगतान किया है। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री
श्री अशोक चव्हाण से 2010 में निर्वाचन आयोग ने पेड न्यूज से सम्बन्धित कोष की
पूछताछ की थी। नवम्बर 2008 के मध्य प्रदेश राज्य निर्वाचन में नरोत्तम दास, राज्य मंत्रिमंडल सदस्य पर भी निर्वाचन आयोग द्वारा ऐसे ही आरोप लगाये
गये। अक्टूबर 2011 में उ.प्र. के बिसौली से निर्वाचित उमलेश यादव प्रथम विधायिका
सदस्य बनीं जिन्हें अपने चुनाव प्रचार में विज्ञापन पर खर्च किये गये व्यव का
विविरण न दे पाने के कारण आयोग्य घोषित किया गया। वर्ष 2009 से 2013 के बीच 17
राज्यों में निर्वाचन आयोग न पेड न्यूज से सम्बन्धित 1400 से अधिक मामले चिन्हित
किये। दीपक चौरसिया (आज तक) पर भी ऐसी न्यूज के लिए आरोप लगे। पेड न्यूज एक ऐसी
समस्या है जिसे पकड़ना और रोकना दुष्कर कार्य है। बढ़े-बढ़े मीडिया घराने, उद्योगपति इससे जुड़े हैं और सबके अपने निहित स्वार्थ इसे रोकने में
बाधा उत्पन्न करते हैं। मीडिया द्वारा स्टिंग ऑपरेशन द्वारा अनेक भ्रष्टाचार
कार्य भी हुआ है। अत: आवश्यकता निर्भीक, निष्पक्ष मीडिया
की है जो भारतीय लोकतंत्र को मजबूत कर सके।
महिलाओं की राजनीति में समान भागीदारी भी भारतीय
लोकतंत्र के लिए एक महत्पूर्ण प्रश्न है। भारत में महिला साक्षता बढ़ी है, महिलएँ आत्मनिर्भर हो रही हैं, राजनीतिक क्षेत्र
में महिला सहभागिता बढ़ाने के लिए भारत में स्थानीय शहरी एवं ग्रामीण निकायों में
महिलाओं के आरक्षण की व्यवस्था है परन्तु फिर भी राजनीतिक दलों एवं राष्ट्रीय
राजनीति में महिलाओं की भूमिका तुलनात्मक दृष्टि से नगण्य है। महिलाओं को
निर्वाचन में उम्मीदवाद बनाने से लेकर प्रमुख राजनीतिक दलों में पदानुक्रम में
उच्च स्थान कम प्राप्त है। 2014 लोकसभा निर्वाचन के आंकड़ो को देखें और तुलना
करें तो हम पायेंगे कि लोकसभा में 61 महिलाओं की संख्या अब तक की अधिकतम संख्या
है और 1952 को निर्वाचन से यह 36 प्रतिशत अधिक है परन्तु जेन्डर विभेद दिखायी
देता है क्योंकि लोकसभा के प्रत्येक 10 सदस्यों में नौ पुरुष हैं। 1952 में
महिलाओं की सदस्य संख्या लोकसभा में 4.4 प्रतिशत थी जो 2014 लोकसभा निर्वाचन में
11.2 प्रतिशत हो गई है परन्तु फिर भी यह वैश्विक औसत 20 प्रतिशत से बहुत कम है।
राष्ट्रीय दल एवं क्षेत्रीय दल दोनों ही प्रकार के दल महिलाओं को सीटें देने में
पीछे रहते हैं और इसके पीछे सम्भवत: उनका दृष्टिकोण यही होता है कि महिलाओं में ‘विजयी-क्षमता’ की कमी होती है। हाँलाकि आँकड़ों का
विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि 2014 लोकसभा निर्वाचन में पिछले तीन
निर्वाचनों की तुलना में महिलाओं की सफलता की प्रतिशत पुरुषों की तुलना में अधिक
था। 2014 लोकसभा निर्वाचन में महिलाओं का सफलता प्रतिशत नौ था जबकि पुरुषों का 6
प्रतिशत ही था।
परन्तु यह पर्याप्त नहीं है महिलाओं का लोकसभा
में और निर्णय संस्था कैबीनेट में कम प्रतिनिधित्व सोचनीय एवं विचारणीय प्रश्न
है, साथ ही साथ यह भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमाये लैंगिक विभेद को भी
उजागर करता है। सोनिया गाँधी, ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती बड़े नाम हैं जो राजनीतिक दलों को
नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं परन्तु फिर भी विभिन्न राजनीतिक दलों में पदाधिकारीव
महत्वपूर्ण भूमिका में महिलाओं की संख्या कम है। 1990 में पंचायत राज संस्थाओं
में 33 प्रतिशत महिलाओं को आरक्षण ने महिलाओं की संख्या कम है। 1990 में पंचायत
राज संस्थाओं में 33 प्रतिशत महिलाओं को आरक्षण ने महिलाओं में पुरुषों के साथ
सत्ता भागीदारी की चेतना जागृत की है। इसने महिलाओं ने निर्वाचन प्रक्रिया एवे
मतदान के प्रति रूचि उत्पन्न किया है। इसके साथ ही साथ निर्वाचन आयोग और
राजनीतिक दलों द्वारा घर-घर पहुँच मतदान के प्रति जागरुकता उत्पन्न करने का
सुपरिणाम यह हुआ कि 1990 से मतदान में महिलाओं की भागीदारी का बढ़ता प्रतिशत 2014
में यह लगभग 65.7 प्रतिशत हो गया। महिलाओं और पुरुषों में 1962 में मतदान प्रतिशत
में 16.7 प्रतिशत का अन्तर था जो 2014 में 1.5 प्रतिशत तक सिमट कर रह गया। यह
भारतीय लोकतंत्र के लिए उपलब्धि है।
निर्वाचन विश्लेषण देखा जाये तो निर्वाचन में
लैंगिक विभेद के मुद्दे कम उठाये जाते हैं, महिलाओं के
मुद्दे आम निर्वाचन से पहले उठाये जाते हैं और निर्वाचन के बाद भुला दिये जाते
हैं। संसद में महिलाओं के आरक्षण संबंधी लम्बित विधेयक राजनीतिक दलों की महिलाओं
के प्रति उनकी सोच को प्रदर्शित करता है। महिलाओं का बढ़ाता मतदान प्रतिशत औपचारिक
रूप से महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता की वृद्धि को प्रदर्शित करता है परन्तु
महिलाओं के राज्य विधायिका, संसद में आरक्षण विषय पर महिला
आन्दोलन और लैंगिक राजनीति का दृष्टिकोण विभाजित है। महिलाओं की राजनीति में
सक्रिय एवं समान सहभागिता हेतु भारतीय लोकतंत्र को अनेक बाधाओं को पार करना होगा।
भारतीय लोकतंत्र की सबसे गम्भीर एवं जटिल समस्या
भ्रष्टाचार व राजनीति का अपराधीकरण है। भ्रष्टाचार की सटीक परिभाषा देना दुष्कर
है परन्तु भारत का 1947 का भ्रष्टाचार रोक अधिनियम कानून निम्न कार्योंको दण्डनीय
बनाता है-
- अपने सरकारी कर्तव्यों को पूरा करते हुये किसी
लोक अधिकारी का दुराचरण जिसमें अमुख भी सम्मिलित हो सकते है, जैसे अपने लिये अथवा किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अवैध पारितोषिक (घूस)
प्रथागत स्वीकार करना, लोक अधिकारी द्वारा उसके पद के कारण
उसकी सुरक्षा में दी गयी सम्पत्ति का दुरुपयोग
- किसी लोक अधिकारी को प्रभावित करने के लिये अवैध पारितोषिक प्रथागत प्राप्त करना
- आय के ज्ञात स्त्रोतों के अनुपात से अधिक सम्पत्ति रखना
- लोक अधिकारी के तौर पर उसकोदी गयी सम्पत्ति को बेईमानी से हथियाने का प्रयास या आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए इसी प्रकार के किसी अन्य कार्य को करने का प्रयास।
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार अनेक रूपों में
फैला हुआ है – संरक्षण द्वारा गलत समर्थन देना, दूसरे के धन
को अपने प्रयोग में लाना, पक्षपातपूर्ण अनावश्यक वरीयता
देना, भाई-भतीजावाद। भारत में सरकारी विभागों तथा मंत्रालयों
में चपरासी से लेकर मंत्री, मुख्यमंत्री तक भ्रष्टाचार में
डूबे हुए हैं। 2जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ गेम्स, आदर्श हाउसिंग सोसायटी, मनी मैटर्स बैंकिगं महज कुछ
उदाहरण है जो जनमानस के सामने उजागर हुए है। आज की राजनीति रीढ़ हीन हो गई है।
राजनीति की रीढद्य होती है नैतिकता और आज की राजनीति में नैतिकता के लिए कोई जगह
रह ही नहीं गई है। यह खुल्लम-खुल्ला अवसरवादिता है जिसकी प्रेरणा शक्ति है
लोकसत्ता का लोभ, पद का लोभ, पैसे का
लोभ, भोग का लोभ। 12 दिसम्बर 2005 को देश के संसदीय इतिहास
में पहली बार संसद में सवाल उठाने के एवज में पैसे लेने वाले सांसदों ने संसदीय
लोकतंत्र को शर्मसार कर उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया।
भारतीय राजनीति में भ्रष्ट अपराधी राजनीतिज्ञों
का इतना गठजोड़ हो गया है कि जनता के पास स्वच्छ व ईमानदार छवि वाले उम्मीदवारों
को चुनने का विकल्प ही नहीं रह जाता है। कोई भी राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं है, केवल मात्रा का अन्तर हो सकता है। यह बात इस तथ्य से भी स्पष्ट हो
जाती हैकि 10 सर्वाधिक भ्रष्ट आरोपी राजनीतिज्ञों में सभी दल के सदस्यों के नाम
हैं यथा – सुरेश कलमाड़ी (कांग्रेस), ए. राजा (डीएमके), मायावती (बसपा), लालू प्रसाद यादव (राजद), मुलायम सिंह यादव (सपा), करुणानिधि (द्रमुक), शरद पवार (एन.सी.पी.), जयललिता (अन्नाद्रमुक), वी.एस. येदुरप्पा, मधुकोड़ा।
सूचना के अधिकार अधिनियम (2005) द्वारा भ्रष्टाचार
को उजागर करना सरल हो गया है परन्तु फिर भी इससे भारत में भ्रष्टाचार में कमी
नहीं आई है यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि ट्रन्सपरेन्सी इन्टरनेशनल
द्वारा 175 देशों की सूची में भारत भ्रष्टाचार की दृष्टि से वर्ष 2015 में 94वें
पायदान पर था परन्तु 2015 में यह 85वें पायदान पर आ गया है।
भारतीय लोकतंत्र को एक नयी चुनौती भाई भातीजावाद
है। किसी भी राजनीतिक दल को देख लीजिए निर्वाचन के समय योग्यता, सार्वजनिक जीवन का लेखा जोखा, ज्ञान कौशल
अप्रासंगिक हो जाते है और परिवार का नाम आगे हो जाता है। नेहररू-गाँधी परिवार
द्वारा संचालित कांग्रेस दल इसके लिए उत्तरदायी कहा जा सकता है परन्तु अन्य
दलों में भी ऐसे ही उदाहरण मिलते हैं। तीन साल पहले पैट्रिक फ्रेन्च द्वारा
भारतीय संसद पर किये गये अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि 30 वर्ष तक की आयु वाले
100 प्रतिशत लोकसभा सदस्य राजनीतिक पृष्ठभूमि के परिवार से सम्बन्धित थे। 40
तथा उससे ऊपर आयु वाले दो तिहाई लोकसभा सदस्य भी ऐसी ही पृष्ठभूमि के थे। 12
संयुक्त परिवार प्रथा के कारण भारत में यह भाई-भतीजावाद और अधिक विस्तृत हो गया
है। वर्तमान लोकसभा में सपा के सांसद मुलायम सिंह के परिवार के ही सदस्य हैं।
2014 में गठित लोकसभा में यशवन्त सिन्हा (भाजपा) के पुत्र जयन्त सिन्हा, पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के पौत्र तथा अजय चौटाला
(आई.एन.एल.डी.) के पुत्र अभिषेक सिंह, राम विलास पासवान
(लो.ज.पा.) के पुत्र चिराग पासवान तथा सन्तोष मोहन देव (कांग्रेस) की पुत्री सुष्मिता
देव ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। हाल ही के बिहार निर्वाचन में लालू प्रसाद यादव के दो
पुत्र उपमुख्यमंत्री तथा मंत्री के रूप में सरकार में शामिल हुए।
1995 में गठित वोहरा समिति ने अपनी रिपोर्ट में
राजनीतिज्ञों, अपराधियों और नौकरशाह व पुलिस के गठजोड़
अथवा अपराध सिंडीकेट का खुलासा किया है। शरद दिखे व आर.पी. सुन्दिरयाल का कहना है
कि यह अपराध सिंडीकेट एक समानान्तर सरकार चला रहा है जिससे राज्यतंत्र
अप्रासंगिक हो गया है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पाँचवें दशक में कह दिया था कि
यदि जनता जागरुक नहीं हुई तो हमारे प्रजातंत्र में शासन पर ऊँचा चिल्लाने वाले
बहुबलियों और अपराधियों का कब्जा हो जायेगा। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में
बढ़ते अपराधीकरण की पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय ने 2 मई 2002 में ‘यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम एसोशियन डेमोक्रेटिक रिफार्म’ में निर्णय दिया कि सभी उम्मीदवारों को अपनी अपराधिक पृष्ठभूमि, सम्पत्ति, उत्तरदायित्व,
शैक्षणिक योग्यता आदि का नामांकन पत्र में विवरण देना अनवार्य होगा जिससे निष्प्रभावी
करनेके लिए सभी राजनीतिक दलों ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन कर धारा
33-बी को जोड़ दिया। परन्तु 13 मार्च 2003 को सरकार के इस संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय
ने असंवैधानिक घोषित कर मई 2002 में दिये गये निर्णय को सही मान्य किया। विधि
आयोग ने भी इसी तरह जनप्रतिनिधित्व 1951 के अधिनियम की धारा 8 में संशोधन कर
अपराधियों को चुनाव में अयोग्य घोषित करने का प्रावधान जोड़ने की सिफारिश की है
परन्तु आज भी भारतीय लोकतंत्र में नरेन्द्र मोदी जैसा चाय बेचने वाला
प्रधानमंत्री बन सकता है, अब्दुल कलाम जैसा झोंपड़ी में
रहने वाला व्यक्ति राष्ट्रपति बन सकता है, एक साधारण
किसान विधान सभा सदस्य बन सकता है परन्तु यह भी यह कटु सत्य है कि भारतीय
लोकतंत्र व राजनीति में अपराधियों की संख्या बढ़ी है। 2004 के लोकसभा निर्वाचन
में निर्वाचित सदस्यों में 186 सदस्यों के विरुद्ध गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज
हैं जबकि वर्ष 2009 में यह संख्या 158 थी। तुलनात्मक दृष्टिसे देखा जाये तो
अपराध के आरोपी सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई है। विशेष ध्यान देने योग्य
तथ्य यह है कि 186 में से112 सदस्यों के विरुद्ध गम्भीर अपराध जैसे हत्या, हत्या का प्रयास, साम्प्रदायिक असमरसता, अपहरण और महिलाओं के विरुद्ध अपराध सम्मिलित हैं। इन संदस्यों में सभी
प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा, कांग्रेस,
अन्नाद्रमुक, शिवसेना के सदस्य सम्मिलित हैं।
राजनीति में अपराधीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के
साथ ही साथ भारतीय लोकतंत्र में धनबल भी कार्य कर रहा है। 2014 में गठित लोकसभा
में 442 सदस्य अर्थात 82 प्रतिशत सदस्य करोड़पति हैं यही नहीं हाल ही में नवम्बर
में सम्पन्न बिहार विधान सभा निर्वाचन में भी 243 विधान सभा सदस्यों में से 162
अर्थात 67 प्रतिशत विधायक करोड़पति हैं जबकि 2010 विधानसभा में यह संख्या 228 में
से सिर्फ 45 विधायक यानि लगभग 20 प्रतिशत की थी। 2015 विधानसभा में 162 करोड़पति
विधायकों में जद 53, रजद 51,
भाजपा 32, कांग्रेस 19, रालोसपा 01, लोजपा 02, सदस्य सम्मिलित हैं।
इस प्रकार अन्त में निष्कर्ष रूप में हम यह कह
सकते हैं कि भारत में लोकतंत्र को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा रहा है
परन्तु फिर भी यह दृढ़ता से अपनी जड़ें जमाये हुए है। भारतीय लोकतंत्र को प्रभावी
बनानेके लिए राजनीतिक संस्थाओं तथा उनकी कार्यप्रणाली को मजबूत करने की आवश्यकता
है। स्थानीय शासन को अधिक शक्तियाँ प्रदान कर प्रशासन को प्रभावी बनाने का
प्रयास करना होगा। राजनीति में अपराधीकरण को रोकना होगा। लोकायुक्त को अधिक शक्तियाँ
देकर भ्रष्टाचार दूर करने का प्रयास आवश्यक है। धार्मिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप
रोकने के साथ ही साथ वोट की राजनीति के लिए धर्म को हथियार बनाने वाले दलों पर रोक
लगाने की आवश्यकता है।
भारत में निरक्षरता अधिकांश समस्याओं की जड़ है
और 2011 की जनगणना में साक्षरता दर 74.04 तक पहुँच गयी है और हम आशा करते हैं कि
सर्वशिक्षा अभियान के द्वारा इसमें और बढ़ोत्तरी होगी। सूचना का अधिकार अधिनियम
(2005) ने लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की है और इसके दायरे को आगे बढ़ाने की आवश्यकता
है। लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा
शासन है अत: इसमें जनसामान्य की महत्वपूर्ण भूमिका है। हमें जागरुक होना होगा
तथा सरकार से अपेक्षाएं रखने के साथ अपने दायित्वों को निभाने पर भी ध्यान देना
होगा। लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक प्रणाली ही नहीं वरन् जीवन जीने का एक मार्ग होना
चाहिए। सिद्धान्त और व्यवहार की दूरी को कम कर निर्णय निर्माण प्रक्रिया में न
केवल जन सहभागिता बढ़ानी होगी वरन् जनता को अधिकारों के प्रति जागरूक करने साथ ही
साथ उन्हें राजनीतिक सहभागिता हेतु प्रेरित एवं सम्मिलित करने की आवश्यकता है।
केवल तभी भारत में लोकतंत्र मजबूत होगा और भारत विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण
भूमिका निभा सकेगा।
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