मूल्य स्तर में वृद्धि के कारण और प्रभाव ; सामान्य तौर पर महंगाई और मुद्रास्फीति को समानार्थी रूप में स्वीकार किया जाता है। हालांकि इन दोनों में एक तकनीकी अंतर रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुद्रास्फीति से हमारा तात्पर्य वही होता है जो महंगाई से है, लेकिन तकनीकी अर्थों में इन दोनों में कुछ भिन्नता रहती है। तकनीकी अर्थों में मुद्रास्फीति मुद्रा के चलन वेग में परिवर्तन की दर है जबकि महंगाई मुद्रा के मुकाबले वस्तुओं और सेवाओं की कीमत में वृद्धि है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक तब हो जाते हैं जब मुद्रा की तरलता के अनुपात (उल्लेखनीय है कि तरलता में वृद्धि मुद्रा के चलन वेग को बढ़ाती है) में पूर्ति की लोच कम होती है। इसे निम्नलिखित उदाहारण के माध्यम से समझा जा सकता है: मान लिया कि किसी देश की राष्ट्रीय आय 1000 करोडद्य रुपये है। इसमें से रक्षा क्षेत्र में 300 करोड़ रुपये की वस्तुओं और सेवाओं की खपत हो गयी यानी ये वस्तुएं और सेवाएं सामान्य बाजार का हिस्सा नहीं बनती।अब समाज के लिए 7000 करोड़ रुपए की वस्तुओं और सेवाएं ही शेष बचीं। अब यदि सरकार अर्थव्यवस्था को तेजी प्रदान करने के लिए घाटे के वित्त प्रबंधन द्वारा 1000 करोड़ की अतिरिक्त राशि उतार दे, जैसे कि अक्सर विकासशील देशों में होता है तो इसका अर्थ यह होगा कि जिस अवधि में समाज के लिए 700 करोड़ रुपए की वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध हैं (या वास्तविक राष्ट्रीय आय उपलब्ध) उसी अवधि के लिए जनता के पास कुल तरल आय 800 करोड़ रुपए की है।
भारतीय रिजर्व बैंक एक तरफ महंगई पर नियंत्रण
कायम करने तो दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था या बाजार को गतिशीलता देने के द्वंद्व से
जूझ रहा है। ऐसे में कई बिंदुओं का हल खोजने की जरूरत महसूस होती है। जैसे महंगाई
क्या है? महंगाई औश्र मुद्रास्फीति में क्या अंतरसंबंध है? तरलता उसे किस तरह से प्रभावित करती है?
वर्तमान में मंहगाई के असल करण मांग पक्ष मे निहित है या पूर्ति पक्ष में? भारतीय
रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति की इस संबंध में क्या सीमाएं हैं?
सामान्य तौर पर महंगाई और मुद्रास्फीति को
समानार्थी रूप में स्वीकार किया जाता है। हालांकि इन दोनों में एक तकनीकी अंतर
रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुद्रास्फीति से हमारा तात्पर्य वही होता है
जो महंगाई से है, लेकिन तकनीकी अर्थों में इन
दोनों में कुछ भिन्नता रहती है। तकनीकी अर्थों में मुद्रास्फीति मुद्रा के चलन वेग
में परिवर्तन की दर है जबकि महंगाई मुद्रा के मुकाबले वस्तुओं और सेवाओं की कीमत
में वृद्धि है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक तब हो जाते हैं जब मुद्रा की तरलता के
अनुपात (उल्लेखनीय है कि तरलता में वृद्धि मुद्रा के चलन वेग को बढ़ाती है) में
पूर्ति की लोच कम होती है। इसे निम्नलिखित उदाहारण के माध्यम से समझा जा सकता
है:
मान लिया कि किसी देश की राष्ट्रीय आय 1000
करोडद्य रुपये है। इसमें से रक्षा क्षेत्र में 300 करोड़ रुपये की वस्तुओं और
सेवाओं की खपत हो गयी यानी ये वस्तुएं और सेवाएं सामान्य बाजार का हिस्सा नहीं
बनती।अब समाज के लिए 7000 करोड़ रुपए की वस्तुओं और सेवाएं ही शेष बचीं। अब यदि
सरकार अर्थव्यवस्था को तेजी प्रदान करने के लिए घाटे के वित्त प्रबंधन द्वारा
1000 करोड़ की अतिरिक्त राशि उतार दे, जैसे कि अक्सर
विकासशील देशों में होता है तो इसका अर्थ यह होगा कि जिस अवधि में समाज के लिए 700
करोड़ रुपए की वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध हैं (या वास्तविक राष्ट्रीय आय उपलब्ध)
उसी अवधि के लिए जनता के पास कुल तरल आय 800 करोड़ रुपए की है। लेकिन जनता बढ़ी
हुयी समस्त आय बाजार में खर्च नहीं करती क्योंकि इसका कुछ भाग अनैच्छिक बचतों
या करों के जरिए सरकार वापस ले लेती है और कुछ स्वैच्छिक बचतों के रूप में
सुरक्षित हो जाती है। यदि यह मान लें कि सरकार 100 करोड़ की अतिरिक्त तरल आय मे
से 40 प्रतिशत आय कर के रूप में ले लेती है और 20 प्रतिशत की जनता स्वैच्छिक बचत
करती है तो उपभोग के लिए बची तरल आय की मात्र 740 करोड़ रुपए होगी। इसका अर्थ यह
हुआ कि जनता की क्रय शक्ति 740 करोड़ होगी जबकि देश में वस्तुएं और सेवाएं 700
करोड़ की ही उपलब्ध होंगी।
सिद्धांतत: यही अंतराल मुद्रास्फीति को
निर्धारित करता है। चूंकि सरकार 40 करोड़ की अतिरिक्त पूर्ति (वस्तुओं और सेवाओं
की) नहीं कर पाती इसलिए वस्तुओं के मूल्य भी बढ़ जाते हैं। इस स्थिति में स्फीति
और महंगाई, दोनों एक-दूसरे के साथ-साथ चलने लगते हैं।
सामान्यता यह स्थिति सभी विकासशील देशों में पायी जाती है इसलिए महंगाई, दोनों एक-दूसरे के साथ-साथ चलने लगते हैं। सामान्य यह स्थिति सभी
विकासशील देशों में पायी जाती है इसलिए मंहगाई ओर मुद्रास्फीति समान अर्थ में स्वीकार
किए जाते हैं। तब मुद्रास्फीति का अभिप्राय उस स्थिति से होगा जिसमें अर्थव्यवस्था
में सामान्य कीमत स्तर में निंरतर वृद्धि होने की प्रवृत्ति विद्यमान रहती है।
चूंकि कीमतों की वृद्धि-स्थिति भिन्न देशों में समान नहीं होती, इसलिए मुद्रास्फीति की दरें भिन्न होती हैं। जिन्हें तकनीकी शब्दावली
में रेंगती हुयी मुद्रस्फीति (क्रीपिंग इन्फ्लेशन), स्फीति
(रनिंग इन्फ्लेशन), अति मुद्रास्फीति (गैलोपिंग या हाइपर
इन्फ्लेशन) कहते हैं।
मूल्यों स्तर और मुद्रास्फीति को मापने के
लिए कई संभावित मानदंड या स्केल्स निर्धारित किए गए हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण
इंडेक्स ब्रॉड प्राइस इंडेक्स (वृहत मूल्य सूचकांक) है जो किसी अर्थव्यवस्था
में सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य स्तर का प्रतिनिधित्व करता है। कंज्यूमर
प्राइस इंडेक्स (सीपीआई), पर्सनल कंजप्सन एक्सपैंडीचर
प्राइस इंडेक्स (पीसीईपीआई) और जीडीपी इन्फ्लेटर इसके (बीपीआई) के कुछ महत्वपूर्ण
उदाहरण हैं। कुछ इसके समुचित पक्ष भी हैं जैसे सम्पत्ति के समूह अर्थव्यवस्था
में वस्तुएं और सेवांए जैसे- कमोडिटी, टैंजिबिल एसेट्स
(रियल स्टेट), फाइनेंसियल एसेटस (बाण्ड्स स्टॉक्स)
सर्विसेज अर्थात श्रम आदि। वर्तमान समय में भारत में स्फीति को मापने के लिए
होलसेल प्राइस इंडेक्स (डब्ल्यूपीआई) का प्रयोग किया जाता है जबकि कुछ अन्य
विकाशील देशों में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सीपीआई) का प्रयोग किया जाता है।
1. सामान्य
तौर पर यह माना जा रहा है कि भारत में लोगों का बढ़ता हुआ आय स्तर महंगाई को
बढ़ाने के लिए उत्तरदायी है। देश में अनाज तथा खाने पीने की अन्य वस्तुओं की
कीमतों में हो रही लगातार वृद्धि के लिए स्वयंदेश के उपभोक्ता नागरिक ही जिम्मेदार
हैं। खानपान की बदली आदतों तथा नागरिकों की क्रय शक्ति में हुई वृद्धि के कारण
कीमतें बढ़ती जा रही हैं। क्रयशक्ति बढ़ने से लोग खाद्य वस्तुओं का अधिक इस्तेमाल
करने लगे हैं। अनाजों का समर्थन मूल्य बढ़नेसे भी महंगाई बढ़ी है। महंगाई का एक
पक्ष तो यह है कि मध्यम वर्ग का आकार लगातार बढ़ रहा है इसलिए मांग में विविधता
और वृद्धि दोनो में ही इजाफा हो रहा है। स्वाभाविक है कि बाजार यांत्रिकी इसके
अनुसार अपने लाभ बढ़ाएगी यानी मूल्य बढ़ेंगे लेकिन यदि पूर्ति पक्ष को ठीक कर
लिया जाए तो ऐसी स्थिति नहीं आएगी।
2. कुछ
अर्थशास्त्रियों का मत है कि महंगाई का असल कारण मांग पक्ष में नहीं बल्कि
पूर्ति पक्ष में निहित है। मांग के सापेक्ष पूर्तिका बेलोचदार होना इसके लिए ज्यादा
जिम्मेदार है। इसके लिए कई कारण जिम्मेदार है। इसके िलए कई कारण जिम्मेदार
माने जा सकते हैं। प्रथम, कृषि क्षेत्र की लगातार उपक्षा, जिससे सकल उतपादन में आनुपातिक कमी आयी। द्वितीय,
प्रसंस्करण क्षेत्र में निवेश की कमी के कारण खद्यान्नों की खराबी जिसका सीधा
प्रभाव पूर्ति पर पड़ता है। तीसरा, आधारभूत क्षेत्र का खराब
स्तर जिससे परिवहलन-तंत्र बाधित होता है, फलत: अधिक समय
लगता है तथा मूल्य ह्यास में वृद्धि होती है और लागतें बढ़ जाती हैं। चतुर्थ, जिंसों पर वायदा कारोबार की छूट; और अंतिम है बाजार
शक्तियों का इतना प्रभावी होना कि वे गवर्नेंस को चुनौती देते हुए लगातार
होर्डिंग को बढ़ावा देने का कार्य करती हैं जिससे मांग के अनुसार पूर्ति संभव नहीं
हो पाती फलत: मूल्य बढ़ जाते हैं।
3. आर्थिक
वृद्धि का सीधा संबंध ऊर्जा की उपलब्धता और उसकी कीमतों से होता है। ऊर्जा की
अनुपलब्धता और उसकी कीमतों में वृद्ध आर्थिक विकास की गति को नाकरात्मक रूप से
प्रभावित करते हैं जबकि इसके विपरीत स्थिति आर्थिक विकास के अनुकूल होती है। इधर, ऊर्जा कीमतों में लगातार वृद्धि
हो रही है स्वाभाविक तौर पर उसका प्रभाव कीमत वृद्धि के रूप में सामने आना
ही है। इसे पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती हुयी कीमतों के संदर्भ में देखा जा सकता
है।
4. जब
निवेशों या अन्य रूपों में विदेशी मुद्रा का आगमन होता है तो वह स्टॉकों के रूप
में भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा हो जाता है। इससे भारतीय रिजर्व बैंक पर यह
दबाव बढ़ता है कि वह स्टाकों का तरल मुद्रा मे बदले। परिणाम यह होता है कि भारतीय
रिजर्व बैंक तरल मु्द्रा छापती है जो बैंकिगं तंत्र के जरिए या फिर सरकार द्वारा
लिए गए उधार के जरिए बाजार में उतर जाती है। जिससे तरलता में वृद्धी हो जाती है और
यह तरलता प्रभावी मांग में वृद्धि लाती है जो कीमतों में वृद्धि को प्रेरित करती
है। इसका एक पक्ष यह भी है कि जब डॉलर में विदेशी निवेशों की वृद्धि होती है तो
रुपये का मूल्य उसके मुकाबले बढ़ाने लगता है जिससे निर्यातों पर विपरीत प्रभाव
पड़ने लगता है। इस स्थिति में भारतीय रिजर्व बैंक पर यह दबाव डाला जाता है कि वह
बाजार डॉलर खरीदे। इसके बदल उसे रुपया उतारना पड़ता है जिससे तरलता बढ़ जाती है।
5. भारतीय
रिजर्व बैंक यदि मौद्रिक उपायों के जरिए तरलता में वृद्धि करता है ते स्वाभाविक
तौर पर मुद्रा की कीमतों में वस्तुओं और सेवाओं के मुकाबले कमी आएगी। लेकिन
भारतीय रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति का तीन परिस्थितियों से जोड़कर देखा है। ये
हैं:
प्रथम : मुद्रा
संबंधी परिवर्तन शुरू होने तथा कीमतों पर उसका असर महसूस करने के बीच समय की
दृष्टि से अंतर भिन्न हो सकते हैं। यही कारण है कि मौद्रिक आघात का कीमातों तथा
उत्पादन पर असर दिखायी देने मे कई महीने भी लग सकते हैं।
द्वितीय : एक
तरफ सापेक्ष मूल्य परिवर्तन तथा कीमातों पर इसके व्यापक प्रभाव और दूसरी तरफ
कीमातें मे निरंतर वृद्धि के बीच अंतर स्पष्ट करना भी जरूरी है। मध्यम से लंबी
अवधि के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीति के
दबाव को नियंत्रण मे रखने के लिए मुद्राआपूर्ति के विकास को नियंत्रित करना महत्वपूर्ण
होता है।
तृतीय : कीमतों
के स्तर को प्रभावित करने में मौद्रिक नीति भी तभी कारगर होती है जबकि मुद्रास्फीति
संबंधी आकलन अनुकूल हों। उदाहरण के तार पर राजकोषीय नीति के विस्तारपूर्वक प्रभाव
धनापूर्ति बढ़ाए बिना ज्यादा समय नहीं टिक सकते लेकिन ब्याज दर के प्रभाव का
मुद्रास्फीति से जुड़ी अपेक्षाएं बढ़ने से नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन इससे
मौद्रिक नीति की मुद्रास्फीति से लड़ने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होगी।
6. विकासशील
देशों में मूल्य वृद्धि के लिए राजकोषीय नीति को काफी हद तक दोषी मानाजा सकता है
क्योंकि महंगाई विशुद्ध रूप से मांग और पूर्ति का ही विषय नहीं होती बल्कि समग्र
अर्थव्यवस्था की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। यदि किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था
वस्तुओं और सेवाओं को उत्पादन तरल के आय के मुकाबले अधिक कर ले जाती है तो मूल्य
वृद्धि की संभावनाएं नहीं रहतीं लेकिन यदि स्थिति इसके ठीक विपरीत रहती है तो
मूल्य वृद्धि होना तय होता है।
7. उदाहरण
क तौर पर सब्जियों की अच्छी फसल के बावजूद सप्लाई साइड (पूर्ति पक्ष) की दिक्कतां
की वजह से उपभोक्ताओं तक पहुंचते-पहुंचते यह महंगी हो जाती है। कोल्ड चेन, वेयरहाउस और कोल्ड स्टोरेज के निर्माण के लिए निवेश की रफ्तार बेहद
धीमी है। निजी क्षेत्र इसमें पैसा लगाना चाहता है लेकिन प्रक्रिया इतनी धीमी और
जटिल है कि ज्यादातर निवेशक हताश हो जाते हैं। कृषि उत्पादों की मार्केटिंग के
लिए ज्यादातर राज्यों के पास अपनी समितियां हैं। अत: कृषि उत्पादों के मूल्यों
में समानता नहीं आ पाती है। जीएसटी जैसे बड़े सुधार अटके हुए हैं। इससे भी महंगाई
के मोर्चे पर काफी राहत मिल सकती थी। इस तरह देखा जाए तो महंगाई अर्थव्यवस्था के
स्वाभाविक चक्र की बजाय सरकार की नीतिगत खामियों का परिणाम है।
8. अर्थव्यवस्था
की प्रकृति भी काफी हद तक इसके लिए जिम्मेदार होती है। उदाहरण के तौर पर हमारी अर्थव्यवस्था
की गति को तेज करने के लिए बड़े पैमाने पर नकदी और विदेशी निवेशों की जरूरत है। ये
दोनों ही पक्ष मु्द्रा आपूर्ति (मनी सप्लाई) को बढ़ाने के लिए बाध्य करता हैं।
यदि भारतीय रिजर्व बैंक इसे ध्यान में रखते हुए मौद्रिक नीतियों का निर्माण करता
है तो मूल्य वृद्धि की सम्भावनाएं प्रबल होंगी और और यदि ऐसा नहीं करता है तो
अर्थव्यवस्था की नकदी की आपूर्ति बाधित होगी। फलत: अर्थव्यवस्था अथवा बाजार
में निराशावादी वातावरण निर्मित होगा। चूंकि दसरा पक्ष ज्यादा जरूरी होता है
इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नकदी बढ़ाने की कोई भी कोशिश मूल्य वृद्धि के
रूप में प्रकट हो जाती है।
कीमत स्तर में वृद्धि बाजार में आशाबादी
वातावरण बनाए रखने के लिए जरूरी है लेकिनयह समाज के निचले वर्ग के साथ-साथ मध्यम
वर्ग को प्रभावित करती है। अर्थात मुद्रास्फीति समाज में धन तथा आय का अन्यायपूर्ण
वितरण करती है, स्थिर आय वाले व्यक्तियों के समझ अनेक
आर्थिक कठिनाइयां उत्पन्न कर देती हैं यह एक प्रकार का अनिवार्य या अनैच्छिक
करारोपण है जो गरीबों की आय से एक निश्चित हिस्से को अमीरों की ओर हस्तांतरित
कर देती है।इससे नैतिक पतन की स्थिति पैदा होती है,
उद्यमीवर्गकी बचतों को करने की शक्ति तथा इच्छा में कमी हो जाने से अर्थव्यवस्था
में पूंजी का नि:संचय कम हो जाता है। सामान्य से अधिक लाभ होने के कारण व्यापारिक
क्रियाओं, सटेटबाजी की अनुचित क्रियाओं का जन्म होती है।
हालांकि अभिवृद्धि की अवस्था आर्थिक क्रियाओं तथा रोजगार के स्तर को ऊपर उठाने
में सहायक सिद्ध होती है लेकिन कुछ समय के पश्चात यही अभिवृद्धि घातक सिद्ध होती
है।
कुल मिलाकर मूल्य स्तर में वृद्धि किसी एक
कारक की देन नहीं है, बल्कि वह बहुत से कारणों
परिणाम हो सकती है। इसलिए उसकी प्रकृति एकलरेखीय न होकर बहुआयामी होती है जिसे
सीमित दृष्टिकोण के तहत नहीं देखना चाहिए।
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