भूस्खलन पर निबंध : कारण प्रभाव तथा रोकने के उपाय - चक्रवात, बाढ़ व भूकंप जैसे पर्यावरणीय संकट की तरह भूस्खलन भी एक ऐसा पर्यावरणीय संकट है जो मानव जीवन को प्रभावित करता है। भारत भूस्खलन की समस्या से प्रभावित देश है और देश के कई हिस्से इस दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील भी माने जाते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में भू-स्खलन की घटनाएं ज्यादा होती हैं। भू-स्खलन अनेक कारणों से होता है। इसमें जहां कुछ कारण पर्यावरण संकट व प्राकृतिक घटनाओं से जुड़े हैं, वहीं कुछ का संबंध मानवीय गतिविधियों से हैं। भूस्खलन का एक बड़ा कारण वनों का विनाश है। विकास की अंधी और अनियोजित दौड़ के कारण हमने पर्यावरण की अनदेखी करते हुए वनों का जमकर विनाश किया।
भूस्खलन पर निबंध : कारण प्रभाव तथा रोकने के उपाय
चक्रवात,
बाढ़ व भूकंप जैसे पर्यावरणीय संकट की तरह भूस्खलन भी एक ऐसा पर्यावरणीय संकट है
जो मानव जीवन को प्रभावित करता है। यह हमारी अर्थव्यवस्था को तो प्रतिकूल रूप से
प्रभावित ही करता है, समाज के संरचनात्मक ढांचे को भी क्षति
पहुंचाता है। इसके कारण राजस्व को क्षति पहुंचती है और सामान्य जनजीवन अस्त–व्यस्त
हो जाता है। भारत भूस्खलन की समस्या से प्रभावित देश है और देश के कई हिस्से इस
दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील भी माने जाते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में भू-स्खलन
की घटनाएं ज्यादा होती हैं।
भू-स्खलन के कारण : भू-स्खलन अनेक कारणों
से होता है। इसमें जहां कुछ कारण पर्यावरण संकट व प्राकृतिक घटनाओं से जुड़े हैं,
वहीं कुछ का संबंध मानवीय गतिविधियों से हैं। भूस्खलन का एक बड़ा कारण वनों का
विनाश है। विकास की अंधी और अनियोजित दौड़ के कारण हमने पर्यावरण की अनदेखी करते
हुए वनों का जमकर विनाश किया। हरे-भरे जंगलों का सफाया किया गया है और नये वृक्षों
के रोपण की तरफ तनिक भी ध्यान नहीं दिया। पेड़ों की सघनता भूस्खलन को रोकती है
क्योंकि पेड़ो की जड़ें चट्टनों को जकड़ने का काम करती है। इस वजह से चट्टनें स्थिर
रहती हैं और भू-स्खलन नहीं होता। वनों का सफाया होने के कारण चट्टानों की पकड़
ढीली पड़ जाती है। नतीजन गुरूत्वाकर्षण के कारण चट्टनें ढलाव की ओर बढ़ाने लगती
हैं जिससे भू-स्खलन होता है।
वर्षा और हिमपात के
कारण भी भू-स्खलन होता है। लगातार होने वाली तेज बारिश से चट्टानें गीली हो जाती
हैं, फलत: इनकी पकड़ ढीली पड़ जाती है। ऐसे में गुरूत्वाकर्षण
के कारण इनका झुकाव नीचेकी तरफ बढ़ता है, जिसकी परिणत भूस्खलन के रूप में सामने आती है।
यह आकरण नहीं है कि मौसम में भू-स्खलन की घटनाएं ज्यादा होती हैं। इसके पीछे यही
कारण होता है। ज्यादा हिमपात भी भू-स्खलन की वजह बनता है। पहाड़ी क्षेत्रों में
ज्यादा हिमपात होने के कारण चट्टानों का वजन बढ़ जाता है। जिसकी वजह से वे नीचे
लुढ़कने लगती हैं और भूस्खलन को जन्म देता है। इसे भूस्खलन का एक बड़ा कारण
माना जाता है। भूकंपीय प्रभाव के कारण चट्टनें दरक जाती हैं और उनमें ढीलापन आ
जाता है। फलत: ढाल की ओर चट्टानें लुढ़कने लगती हैं और भू-स्खलन की घटना होती है।
मानवीय गतिविधियों के
कारण भी भूस्खलन की घटनाएं होती हैं। इनमें एक बड़ा कारण है खनन। जो क्षेत्र खनिज
सम्पदाओं की दृष्टि से समृद्ध होते हैं, उनमें हम पर्यावरण के मानकों का ध्यान रखे
बिना जबरदस्त ढंग से खनन व उत्खनन करते हैं। इससे चट्टानें कमजोर पड़ती हैं और
अंतत: ऐसे क्षेत्रों में प्रकृति का कोप भूस्खलन के रूप में सामने आता है। पर्वतीय
क्षेत्रों में सड़क निर्माण भी भूस्खलन का कारण बनता है। सड़कों को बनाने के लिए
पहाड़ी क्षेत्रों में व्यापक तोड़-फोड़ की जाती है। चट्टानों व ढालों को न सिर्फ
काटा जाता है, बल्कि इन्हें डायनामाइटों के वस्फोट से
उड़ाया भी जाता है। ऐसे में भू-स्खलन होना स्वाभाविक है,
क्योंकि चट्टानों जर्जर हो जाती हैं और ढलान की ओर लुढ़ककर भू-स्खलन का कारण
बनती है। अक्सर पहाड़ी क्षेत्रों में इस प्रकार के भू-स्खलन के कारण सड़क मार्ग
अवरुद्ध हो जाने से संपर्क टूट जाता है। यातायात सुचारू करने में कई दिन लग जाते
हैं। सड़क निर्माण की तरह भवन निर्माण भी भू-स्खलन का कारण बनता है। हम प्राय:
पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी-बड़ी इमारतें व होटल आदि बनाते समय न तो पर्यावरणीय
मानकों का ध्यान ही रखते हैं और न ही इन्हें बनानेसे पहले मिट्टी व चट्टानों का
विज्ञानिक ढंग से परीक्षण करते हैं। अनियोजित, अनियंत्रित व
अवैज्ञानिक निर्माण के कारण जहां जमीन धसकती है वहीं चट्टानें भी अस्थिर हो जाती
हैं। परिणाम भू-स्खलन के रूप में सामने आता है।
भारत में भू-स्खलन की
समस्या भयावह है, जो कि बरसात के मौसम में कुछ ज्यादा ही विकराल
हो जाता है। भारत के कुछ क्षेत्रों तो भूस्खलन की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है।
इन्हें भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्र कहा जाता है। इसके अंतर्गत जहां हिमालय की
युवा पर्वत श्रृंखलाएं आती हैं, वहीं पश्चिमी घाट,
अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, भारत के उत्तर पूर्वी राज्य तथा नीलगिरि के
तीव्र ढाल व अधिक वर्षा वाले क्षेत्र तो सम्मिलित हैं ही,
इसके अंतर्गत वे क्षेत्र भी आते हैं, जहां प्रकृति के प्रतिकूल मानवीय गतिविधियां
अधिक होती हैं तथा बांधों, सड़को व बस्तियों आदि का निर्माण अधिक होता
है। ये सभी अधिक सुभेद्यता वाले क्षेत्र माने जाते हैं।
भारत में भू-स्खलन की
दृष्टि से मध्यम व कम सुभेद्यता वाले क्षेत्र भी हैं। इसके अंर्तत अरावली की पहाडि़यां,
दक्कन का पठार, लद्दाख तथा स्पीतिके कम वर्षो वाले क्षेत्र
तथा पूर्वी घाट के क्षेत्र आते हैं।
भू-स्खलन के प्रभाव : भू-स्खलन के भयावह
परिणाम सामने आते हैं। इसे जान-माल की क्षति तो होती हैं,
दूसरी अनेक समस्याएं भी सामने आती हैं। भू-स्खलन के कारण चट्टानें और इनका मलबा
नदियों में गिरता है जिससे जलीय पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचता ही है,
बाढ़ भी आ जाती है, जिससे तबाही दोगुनी हो जाती है। भू-स्खलन
प्रभावित क्षेत्रों का देश के अन्य भागों से संपर्क टूट जाता है। सड़कें अवरुद्ध
होने के कारण जाम लग जाते हैं, जिनके साफ होनेमें कई दिन लग जाता हैं।
तीर्थयात्री व पर्यटक फंस जाते हैं। भूस्खलन का मलबा साफ करने में कई दिन लगा
जाते हैं। इसका एक घातक परिणाम यह भी होता है कि कभी-कभी पूरे का पूरा कुनबा भू-स्खलन
के कारण मारा जाता है, जिससे उनकी संस्कृति ही नष्ट हो जाती है।
जनजातीय भाषाएं विलुप्त हो जाती हैं, क्योंकि उनके जानने वाले अचानक चल बसते हैं।
अमूमन ऐसी भाषाओं की कोई लिपि नहीं होती, अतएव ये भाषा की स्लेट से मिट जाती हैं। भू-स्खलन
के कारण पलायन भी बढ़ता है, जिससे बस्तियां और गांव वीरान हो जाते हैं।
पलायित परिवारों को नये सिरेसे अपना जीवन शुरू करना पड़ता है और ऐसा करते हुए उन्हें
तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ता है। यह कहना असंगत न होगा कि मनुष्य का
संरचनात्मक ढांचा चरमरा जाता है। ऐसी आपदाएं अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक प्रतिकूल
रूप से प्रभावित करती हैं। राजस्व की क्षति तो होती ही है,
राहत कार्यों में भी लंबा खर्च आता है। विकास की शुयुआत नये सिरे से करनी पड़ती है
और अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ता है।
भू-स्खलन रोकने के उपाय : मनुष्य कितनी ही वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति क्यों
न कर लें, प्राकृतिक आपदाओंको रोक पाना उसके वश में नहीं
होता है। जब ये आती हैं, तो इनके आगे मनुष्य असहाय,
बेबस व बौना नजर आता है। ये प्राकृतिक आपदाएं हमारे लिए एक चेतानवनी के समान होती
हैं। हमें इनसे सबक लेकर प्रकृति व पर्यावरण के महत्व को तरजीह देनी चाहिए। हम
भू-स्खलन की घटनाओं को रोक तो नहीं सकते, किंतु कुछ उपाय कर इनके प्रभाव,
तीव्रता और आवृत्ति को कम कर सकते हैं। भूस्खलन की घटनाएं कम हों इसके लिए हमें
सबसे पहले वनों के विनाश को रोकना होगा। पेड़-पौधे ही चट्टनों को महबूत पकड़
प्रदान करते हैं, अतएव जहां हमें वनों का सफाया रोकना होगा,
वहीं अधिकाधिक वृक्षारोपण के जरिए चट्टानों को मजबूत पकड़ प्रदान करनी होगी।
वनीकरण से दोहरा लाभ होता है। एक तरफ पेड़ वर्षा जल के बहाव को रोकते व सोखते हैं।
इससे बारिश के कारण होने वाला भूस्खलन नही होता है। दूसरी तरफ वन चट्टनों को
मजबूत पकड़ भी प्रदान करते हैं। पहाड़ों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर भी बना भी हम पानी
के बहाव को कम कर सकते हैं। इससे भी भूस्खलन के प्रभाव को कम करने में मदद मिलती
है। भूकंपीय तथा अधिक हिमपात वाले क्षेत्रों में विशेष सावधानी बरत कर तथा
पर्यावरण अनुकूल पहलें कर हम इस संकट को बहुत कुछ कम कर सकते हैं।
प्रकृति के साथ मानीय
छेड़छाड़ एवं मानवीय हस्तक्षेप ने भू-स्खलन जैसी समस्या को बढ़ाया है। इस दिशा
में ध्यान दिये जाने की जरूरत है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि विकास के नाम पर
जिस अंधी दौड़ में हम शामिल हों चुके हैं वह विनाश का कारण न बने। हम अपना ध्यान
पर्यावरण के अनुकूल विकास पर केन्द्रित करना होगा और इसके लिए सरकारों को कड़े
नियम-कायदों के दायरे में विकास को लाना होगा, ताकि पर्यावरण की
अनदेखी व उपेक्षा न हो। चाहे भवनों व सड़कों का निर्माण हो या रेलमार्गों,
सुरंगों और पुलों आदि का इन सबके साथ हमें पर्यावरण के मानको का ध्यान रखना होगा
और ऐसा प्रयास सुनिश्चित करने होंगे कि किसी भी स्तर पर इनकी अनदेखी न होने पाए।
यह सच है कि जीवन को सहज और सुविधाजनक बनाने के लिए विकास आवश्यक है,
किंतु यह विकास टिकाऊ और सुरक्षित तभी साबित होगा, जब हम पर्यावरण और
प्रकृति से हम उतना ही लें, जिसकी भरपाई कर सकें। यह बात खनन और उत्खनन
जैसी मानवीय गतिविधियों पर भी लागू होती है। यह बात सही है कि धरती की कोख को अपने
निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु छलनी कर दें। खनन की अधिकता तथा अवैध खनन के कारण
देश के उन अनेक हिस्सों में भूस्खलन से बचने के लिए हमें भूस्खलन की घटनाएं
बढ़ी हैं, जिनकी गणना भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्र के बाहर
होती थी। भूस्खलन से बचने के लिए हमें जहां प्रकृति के अनुरूप आचरण करना होगा,
वहीं आपदा प्रबंधन का भी एक ठोस ढांचा तैयार करना होगा,
ताकि इसके प्रभाव व तबाही से बचा जा सके। अन्य देशों की तुलना में हम आपदा
प्रबंधन के क्षेत्र में काफी पिछड़े हुए हैं, जबकि आपदाओं का हमारे यहां बाहुल्य है।
नैसर्गिक नियमों के साथ चलकर तथा अनियंत्रित अनियोजित विकास परियोजनाओं से परहेज
रखकर भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदा को समाप्त तो नहीं किया जा सकता किंतु इसके
प्रभाव, आवृत्ति और तीव्रता को काफी कुछ कम किया जा
सकता है।
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