वर्तमान भारत में लैंगिक विभेद और महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता : वैसे तो सम्पूर्ण मानव-जाति में स्त्री और पुरूष के बीच अन्तर देखने को मिलता है, लेकिन लैंगिक विभेद का जो भयानक रूप भारतीय समाज में पाया जाता है, वह अपने आप में अनूठा तो है ही, निराशाजनक, दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित भी है। भारत में लैंगिक विषमता की प्रकृति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट नजर आती है कि पुरूष वर्चस्व की राजनीति विवाह और परिवार और उत्तराधिकार जैसी मूलभूत संस्थाओं से आरम्भ होती है। फिर धर्म, परम्पराओं, नैतिकता व कानूनों की आड़ लेकर इस राजनीति का सम्पूर्ण व्यवस्था में विस्तार किया जाता है। इस व्यवस्था की शिकार महिलाओं को पहले घर की चारदीवारी में दबाया जाता है और फिर उसे आर्थिक, राजनीतिक व कानूनी अधिकारों से वंचित करके उसे कमजोर किया जाता है। इस तरह पुरूष वर्चस्व के साये में एक ऐसा पितृसत्तात्मक पारिवरिक-सामाजिक ढाँचा खड़ा हो जाता है जहाँ स्त्री का जीवन श्रम, शरीर और उसकी ‘कोख’ पर पुरूष का अधिकार हो जाता है और स्त्री उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति बनकर रह जाती है।
वर्तमान भारत में लैंगिक विभेद और महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता - Gender Inequality in India Essay in Hindi
वैसे तो सम्पूर्ण मानव-जाति में स्त्री और पुरूष के
बीच अन्तर देखने को मिलता है, लेकिन लैंगिक विभेद का जो भयानक रूप
भारतीय समाज में पाया जाता है, वह अपने आप में अनूठा तो है
ही, निराशाजनक, दुर्भाग्यपूर्ण और
अनुचित भी है। भारत में लैंगिक विषमता की प्रकृति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
समझने का प्रयास करें तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट नजर आती है कि पुरूष वर्चस्व
की राजनीति विवाह और परिवार और उत्तराधिकार जैसी मूलभूत संस्थाओं से आरम्भ होती
है। फिर धर्म, परम्पराओं, नैतिकता व
कानूनों की आड़ लेकर इस राजनीति का सम्पूर्ण व्यवस्था में विस्तार किया जाता
है। इस व्यवस्था की शिकार महिलाओं को पहले घर की चारदीवारी में दबाया जाता है
और फिर उसे आर्थिक, राजनीतिक व कानूनी अधिकारों से वंचित
करके उसे कमजोर किया जाता है। इस तरह पुरूष वर्चस्व के साये में एक ऐसा पितृसत्तात्मक
पारिवरिक-सामाजिक ढाँचा खड़ा हो जाता है जहाँ स्त्री का जीवन श्रम, शरीर और उसकी ‘कोख’ पर पुरूष
का अधिकार हो जाता है और स्त्री उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति बनकर रह जाती है।
मूल रूप में स्त्री ही परिवार को अपना कर्मक्षेत्र मानकर अपनी समस्त रचनात्मक शक्तियों
से उसे सजाती-संवारती है। हर छोटे-बड़े सदस्य की जरूरतों को पूरा करना अपना
कर्तव्य समझती है। स्त्री की सारी दुनिया परिवार में ही आकर सिमट जाती है। किन्तु
जब परिवार का यही सुरक्षा कवच उसके जीवन का केन्द्र बिन्दु उसके लिए सबसे
असुरिक्षत और दु:खदायी हो जाती है तो स्त्री के पास ‘मन-मसोस’कर जीवित रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता हैं।
वास्तव
में मानव-समाज का इतिहास स्त्रियों को सत्ता, प्रभुत्ता और शक्ति से
दूर रखने का इतिहास हैं और इसीलिए प्रत्येक देश, काल वर्ग
जाति एवं धर्म में महिलाओं को पुरूष के समकक्ष न आने देने की संरचात्मक बाध्यताएँ
बनाई गई हैं। सुश्री राधा ओझा ने इस तथ्य को अत्यन्त मार्मिक ढंग से व्यक्त
करते हुए लिखा है, ‘सामाजिक संरचना में
उपस्थ्ति अनेकानेक विभेदों में स्त्री एवं पुरूषों का विभेद बुनियादी है क्योंकि
यह प्राकृतिक है किन्तु प्राकृतिक विभेद का निहितार्थ लैंगिक असमानता नहीं है। यह
मतव्य लोकतान्त्रिक दर्शन एवं नारी विभेद का निहिर्ताथ लैंगिक असमानता नहीं है।
यह मतव्य लोकतान्त्रिक दर्शन एवं नारी विमर्श में निरन्तर उभरता रहा है। है।
नारीवादी विमर्श ने कुछ बुनियादी प्रश्नों को इस रूप में उठाया कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्रों में स्त्री–पुरूष
असमान क्यों है? उनके
अंतर्संबंध अधिपत्य-अधीनता के अंतर्सबंध क्यों है? और यह स्थिति
इतिहास के प्रत्येक दौर में, परिवर्तन के साथ लगभग सभी सभ्यताओं
में, कमोबेश अन्तर के साथ कैसे निरन्तर रही है? एतद्
असमानता के बीच प्रकृति में नहीं अपितु समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थव्यवस्था की शक्ति संरचनाओं में
(पितृसंतात्मक व्यवस्था में निहित) है।
सन्तुलित,
अर्थपूर्ण सामाजिक-अर्थिक-राजनीतिक संरचना एवं विकास में आधी आबादी की सक्रिय
सहभागिता की उपेक्षा नहीं, बल्कि उसे सुनिश्चित करने की आवश्यकता
है। इस बात पर सामान्य सहमति उभर रही है। वस्तुत: नारी अस्तिमता एवं सशक्त्किरण
का प्रश्न मूल रूप से महिलाओं के लोकतान्त्रिक अधिकारों और उनके मानवाधिकारों का
प्रश्न है। यह सत्य है कि स्त्री-पुरूष के बीच समानता का सिद्धान्त भारत के
संविधान के अनुसार न केवल महिलाओं को समान अवसर प्रदान करता है बल्कि सरकार को यह शक्ति
प्रदान करता है कि वह महिलाओं कि पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के लिए कदम उठा सके।
महिलाओं के वैधानिक सशक्तिकरण का निश्चय ही यह क्रांतिकारी कदम है। राज्य की
भूमिका चाहे महिलाओं के कल्याणकारी दृष्टिकोण की रही हो या गरीबी उन्मूलन की
अथवा उन्हें समान अवसर/आरक्षण के माध्यम से शक्ति प्रदान करने की-महिला सशक्तिकरण
इस दिशा में महत्वपूर्ण रही है।
वर्ष 1967 में संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव समाप्ति से संबद्ध घोषणा’
एवं सदस्य देशों से अपने देशों की महिला प्रस्थिति पर प्रतिवेदन की अनुशंसा पर
वर्ष 1971 में भारत सरकार की समाज कल्याण राज्यमंत्री फूलरेणुगुहा के नेतृत्व
में ‘भारत में महिलाओं की स्थिति पर समिति’ (सीएसडब्ल्यूआई) का गठन किया गया। इस समिति ने वर्ष 1974 में अपना प्रतिवेदन’ टुवार्डस इक्वालिटी’ सरकार को प्रस्तुत किया। स्वाधीन
भारत में महिलाओं की स्थिति पर यह पहला विस्तृत प्रतिवेदन था, जिसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है-
1- लैंगिक
समानता, मात्र समाजिक न्याय के लिए नहीं अपितु राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के लिए भी आवश्यक शर्त है।
2- स्त्रियों
को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने हेतु उनके रोजगार के अवसरों में वृद्धि को सर्वाधिक
प्राथमिकता देना आवश्यक है।
3- प्रजनन
क्षमता की वजह से समाज का महिलाओं के प्रति दायित्व बढ़ जाता है। बच्चों के
लालन-पालन में माता के साथ-साथ पिता एवं समाज को भी अपने दायित्वों का निर्वाहन
करना चाहिए।
4- घर
के भीतर गृहिणी के कार्य को सामाजिक एंव आर्थिक दृष्टि से उत्पादक मानकर राष्ट्रीय
बचत एंव विकास में उनके योग्दान को स्वीकार करना चाहिए।
5- वैधानिक
समानता को विकास समानता में बदलना।
समिति
की रिपोट से यह स्पष्ट हो गया कि महिलाओं की स्थिति में वास्तविक सुधार उस समय
तक नहीं होगा जब तक सामाजिक दृष्टिकोण एवं संस्थाओं में परिवर्तन नहीं होगा।
वर्ष
1975 के बाद की अनुशंसाओं के अनुरूप एवं अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अन्तर्गत
अन्तर्राष्ट्रीय एवं भारतीय महिला आन्दोलन की पुन: सक्रियता के फलस्वरूप
महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए अनेकानेक नीतिगत निर्णय लिए गए छठी पंचवर्षीय
योजना (1980-85) से पहली बार महिलाओं के विकास पर पृथक अध्याय रखा गया। राष्ट्रीय
शिक्षा नीति 1986 एवं उसके बाद राष्ट्रीय कार्ययोजना,
1992 ने बालिका शिक्षा को मुख्य मुद्दा बनाया। राजकीय नीतियों में लैंगिक
संवेदनशीलता पर विचार प्रारम्भ हुआ राष्ट्रीय महिला कोष एवं स्तानीय स्तारों
पर स्वयं सहायता समहों के माध्यम से आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में वैकल्पिक
रणनीतियो के प्रयोग किए जा रहे है। 73 वे एवं वें संविधान संशोधनों के माध्यम से
पंचायतीराज एवं स्थानीय निकायों में महिलाओं को दिए गये आरक्षण के फलस्वरूप लगभग
10 लाख महिलाओं की राजनीति भागीदारी सशक्तिकरण की दिशा मे मील का पत्थर है। यदपि
विधानसभाओं एवं लोकसभा मे महिला आरक्षण का मुदा अभी दोहरे राजनीतिक मापदण्डों का
शिकार बना हुआ है। नारी सशक्तिकरण के वैधानिक प्रयासों की श्रृंखला में भारत
सरकार की महिला सशक्तिकरण नीति, 2000 तथा घरेलू हिंसा
विधेय, 2005 एक उल्लेखनीय कदम है।
इसके अन्तर्गत राज्य की संस्थाओं विशेषत: पंचायतीराज संस्थाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं एवं लैंगिक संवेदनशीलता बढ़ाने की आवश्यकता को भी
रेखांकित किया गया है।
निश्चित
ही यह स्वागतयोग्य प्रयास है। हमारे यहां संवैधानिक एवं वैधानिक समानता के माध्यमसे
महिलाओं को सुदृढ़ आधार प्रदान किया गया है किन्तु महिलाओं की एक बड़ी आबादी आज
भी वैधानिक अधिकारों के यथार्थ से दूर है। यूनिसेफ के एक अनुमान के अनुसार भारत
में प्रति वर्ष 30 लाख भ्रूण हत्याओं होती है यह मूल रूप से मादा भ्रूण हत्या है
इस परिप्रक्ष्य में गत दो दशक में एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्या किए जाने सम्बन्धी
ऑकड़े भारत व कनाड़ा के संयुक्त शोधनकर्ताओं द्वारा जनवारी 2006 में जारी एक अध्ययन
रिपोर्ट में दिए गए है। हाल ही में भारत के परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा किए गए
आंकलन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 4) लाख गर्भापात कराए जाते है इनमें लाखों की
संख्या में गैरसरकारी गर्भपात भी शामिल है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम
संगठनकीरिपोर्ट ‘द एण्ड ऑफ चाइल्ड’ लेबर विदिन में कहा गया है कि
विश्व में बाल मजदूरों की संख्या में 11 प्रतिशत की कमी आई है लेकिन भारत की
स्थिति जस की तस है। बाल मजदूरी की सबसे घिनौना रूप बल-वेश्यावूति है। एक अध्ययन
के अनुसार 15 प्रतिशत वेश्याऍ किशोरवय में ही इस पेशें मे आ गई। भारत में आईपीसी
के अन्तर्गत प्रति वर्ष घटित कुल अपराध लगभग 6 प्रतिशत महिलाओं के प्रति होते है
प्रति वर्ष 31,000 यातना मामले (प्रति व अन्य द्वारा) 28,00 छेड़कानी के मामले 14,000 अपहरण के मामले 11,000 बलात्कार, दहेज प्रताड़ना सम्बन्धी 2,800 मामले एवं एक-दो मामले सती-प्रथा सम्बन्धी आते है महिलाओं की आर्थिक
गतिविधि सम्बन्धी कुल आर्थिक गतिविधी का लगभग 50 प्रतिशत है किन्तु बहुसंख्यक
बाहिकाओं को लाभ नहीं मिल पाया है। स्वास्थ्य सेवाओं को भी अंतिम व्यक्ति तक
नहीं पहुंचाया जा सकता है। गर्भवती महिलाओं में 50 प्रतिशत खून की कमी की समस्या
से ग्रसित है एवं एक लाख जीवित मृत्युदर पर 30 प्रतिशत मातृ मृत्युदर है।
औद्योगिक
एवं उत्तर-औद्योगिक विकास तंत्र एवं प्रौद्योगिक ने नवीन अवसरों का सृजन किया है,
किन्तु महिलाओं की आर्थिक विपन्नता के ऑकड़े बढ़े हैं। विडम्बना है कि विकास की
गति के बावजूद महिलाओं की स्थिति में आशानुकूल सुधार नहीं हुआ है, बल्कि कुछ क्षेत्रों में तो स्थिति बदतर हुई है। भूमण्डलीकरण के अन्तर्गत, निजीकरण एवं उदारीकरण की नीतियों ने सार्वजनिक उपक्रमों पर व्यय को
घटाया है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव निर्धन तबके के आय एवं उपभोग के स्तरों पर पड़ा
है। विश्व जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा महिलाएँ । हाल ही में संयुक्त
राष्ट्र संघ के अध्ययनों द्वारा स्पष्ट हुआ है कि निर्धनता के लैंगिक आयाम
निरन्तर बढ़ रहे हैं। यह निर्धनता का महिलाकरण है। निश्चय ही इसमें भूमण्डलीकरण
के आर्थिक कारकों की भूमिका है। भूमण्डली करण से ‘विशिष्ट
प्रवीण’ महिलाओं को अवश्य लाभ मिला है, विशेषत: सूचना प्रौद्यागिकी के क्षत्र में। किन्तु बहुसंख्यक महिलाएँ
जिनके पास न प्रवीणता है, न संसाधन,
हाशिये पर ही है।
लैंगिक
समानता महिला सशक्तिकरण का आधार है। विभिन्न महिला संगठन,
महिला आन्दोलन, नारीवाद विचारक तथा राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर अनेक संगठन एवं कानून स्त्री की स्वतंन्त्रता, समानता, अस्मिता, न्याय और गरिमा की स्थापना के लिए
प्रयत्नशील है, किन्तु अथक प्रयासों तथा उपायों के बावजूद
लैंगिक असमानता विद्यमान है। इस संदर्भ में डॉ० राम मानोहर लोहिया का कहना था कि
मानवता की आधी पूँजी के रूप में स्त्री का सहयोग लेना विकास के लिए आवश्यक है
तथा यह तभी सम्भव है जब हम स्त्रियों के प्रति समानता का दृष्टिकोण अपनाएँ तथा
उन्हों पुरूषों के समान व्यवस्था और समाज में स्थान प्रदान करें। डॉ० लोहिया
ने महिलाओं, मुसलमानोंव पिछड़े वर्गों के लिए 60 प्रतिशत
आरक्षण की मांग रखी थी। यह अत्यन्त दुर्भाग्य एवं विषाद का विषय है कि यदि
सैद्धान्तिक स्तर पर आरक्षण अनुचित एवं आपत्तिपूर्ण है तो सभी वर्ग के संदर्भ में होना चाहिए सिर्फ
महिलाओं के संदर्भ में ही क्यों? अन्य वंचित वर्गों के विकास के लिए यदि आरक्षण
उचित रणनीति है तो महिलाओं के लिए क्यों नहीं? क्यां महिलाऐं वंचित नहीं रही
हैं? उल्लेखनीय है कि महिलाओं का 33: आरक्षण का बिल राज्यसभा में पास हो चुका है, ताकि महिला आरक्षण के प्रश्न पर आम राय न बन सके। यह सत्य है कि मात्र
आरक्षण देने से महिलाओं के स्तर में परिवर्तन नहींआ जाएगा। ऐसी स्थिति में
पुरूषों तथा पुरूषों तथा स्त्रियोंको मिलकर समता तथा समृद्धि पर आधारित नव-भारत
का अभियान चलाना होगा, अन्यथा सशक्तिकरण का सपना बस एक
सपना ही बन रहेगा। यह तभी होगा जब हम सब मिलकर आधी आबादी की दशा सुधारने का संकल्प
लें और उसे कार्यान्वित करने का मन बनाएँ।
Admin

100+ Social Counters
WEEK TRENDING
Loading...
YEAR POPULAR
Riddles in Malayalam Language : In this article, you will get കടങ്കഥകൾ മലയാളം . kadamkathakal malayalam with answer are provided below. T...
अस् धातु के रूप संस्कृत में – As Dhatu Roop In Sanskrit यहां पढ़ें अस् धातु रूप के पांचो लकार संस्कृत भाषा में। अस् धातु का अर्थ होता...
पूस की रात कहानी का सारांश - Poos ki Raat Kahani ka Saransh पूस की रात कहानी का सारांश - 'पूस की रात' कहानी ग्रामीण जीवन से संबंधित ...
मोबाइल के दुरुपयोग पर दो मित्रों के बीच संवाद लेखन : In This article, We are providing मोबाइल के दुष्परिणाम को लेकर दो मित्रों के बीच संवाद...
गम् धातु के रूप संस्कृत में – Gam Dhatu Roop In Sanskrit यहां पढ़ें गम् धातु रूप के पांचो लकार संस्कृत भाषा में। गम् धातु का अर्थ होता है जा...
COMMENTS