मूल्यों के विकास में विद्यालय की भूमिका - Role of School in Developing Values in Hindi: छात्रों में मूल्यों के विकास में परिवार के बाद विद्यालय का अति
मूल्यों के विकास में विद्यालय की भूमिका - Role of school in developing values in hindi
छात्रों में मूल्यों के विकास में परिवार के बाद विद्यालय का अति महत्वपूर्ण स्थान व भूमिका है। विद्यालय मूल्यों के विकास में किस प्रकार योगदान दे सकते है। इसे हम निम्नलिखित तीन शीर्षकोंमें प्रस्तुत कर सकते है।
- पाठ्यक्रम सम्बन्धी क्रियाएँ
- पाठ्य सहगामी क्रियाएँ
- शिक्षकों द्वारा आदर्श प्रस्तुति
पाठ्यक्रम सम्बन्धी क्रियाएँ
पाठ्यक्रम सम्बन्धी क्रियाओं द्वारा मूल्यों के विकास का तात्पर्य पाठ्यक्रम में निहित विषयों में मूल्यों को समाहित करके उनके शिक्षण द्वारा छात्रों में मूल्यों का विकास करना है। पाठ्यक्रम में विषयों के शिक्षण द्वारा छात्रों में वांछित मूल्यों का विकास कैसे किया जा सकता है, इस सम्बन्ध में हम आगे प्रकाश डाल रहे हैं-
1. सामाजिक विज्ञान शिक्षण द्वारा मूल्यों का विकास
सामाजिक विज्ञान का तात्पर्य समाज के उस अध्ययन से है जिसका केन्द्र बिन्दु मनुष्य एवं उसकी विभिन्न सामाजिक परिस्थितियाँ, सामाजिक घटनाएँ तथा सामाजिक समस्याएँ होती हैं। इसके अन्तर्गत इतिहास, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, समाजशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन किया जाता है । सभी विषय मानव स्वभाव' राष्ट्रीय एकता, देश-प्रेम, विश्व बन्धुत्व, विश्वमैत्री तथा नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के आत्मसातिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। छात्रों में लोकतान्त्रिक, संवैधानिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों का विकास किया जा सकता है। शिक्षक राष्ट्रीय प्रतीकों, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय पक्षी तथा राष्ट्र चिन्ह के बारे में बताकर छात्रों में उनके लिए सम्मान विकसित कर सकता है। अर्थशास्त्र के शिक्षण द्वारा छात्रों में श्रम का महत्व, श्रमिक का महत्व आदि महत्तवपूर्ण आर्थिक मूल्यों का छात्रों में विकास कर सकता है।
छात्रों में प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति लगाव, पर्यावरण संरक्षण, वृक्ष लगाने की प्रवृति,विभिन्नता में एकता, अन्तर सांस्कृतिक सद्भावना, विश्लेषण जैसे मानवीय, मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
छात्रों में सदभावना,अनेकता में एकता, व्यक्ति एवं समाज में सामंजस्य, त्याग, समानता राष्ट्रीय एकता, अन्तर- सांस्कृति सदभावना, अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना समाजोपयोगी कार्यों में आनन्द की अनुभूति, सहानुभूति, सहकारिता आदि सामाजिक सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
2. भाषा शिक्षण द्वारा मूल्यों का विकास
छात्रों में वांछित मूल्यों के विकास में भाषा का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः किसी भी भाषा का साहित्य उसकी संस्कृति की वाणी होता है। साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे - काव्य, नाटक, उपन्यास काहनी आदि में संस्कृति के विशेष तत्व अभिन्न रूप से व्याप्त होते हैं । अतः भाषा व भाषा के साहित्य के शिक्षण के माध्यम से छात्रों को विभिन्न सांस्कृतिक मूल्यों, जिनमें सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक सभी मूल्य सम्मिलित रहते हैं, का बोध कराया जा सकता है।
शिक्षक को चाहिए कि वह साहित्य की शक्ति से छात्रों को अवगत कराये । उसे साहित्य की विभिन्न विधाओं का शिक्षण करते समय उन बिन्दुओं पर अवश्य बल देना चाहिए जिनमें सांस्कृतिक जीवन तथा मानवीय मूल्य सन्निहित हैं। वह किसी पात्र की विशिष्ट शक्ति कहानियों एवं मुहावरों, किसी पाठ में दिये गये संवादों, नीति-कथनों, पाठ के अन्त में दिये गये निष्कर्ष वाक्यों, समान्यीकृत मान्यताओं, सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं आदि के माध्यम से छात्रों को मूल्यों का आत्मसातिकरण करा सकता है।
3. विज्ञान शिक्षण द्वारा मूल्यों का विकास
छात्रों में प्रेम, त्याग, सहकारिता, ईमानदारी, वफादारी, सहभागिता, समय की पाबन्दी, परिस्थिति-अनुकूलन आदि मूल्यों का विकास किया जा सकता है। पेड़-पौधों व प्रकृति के शिक्षण द्वारा सौन्दर्य-बोध पर्यावरण सुरक्षा, प्रकृति-प्रेम, भ्रमण आदि मूल्यों का विकास किया जा सकता है। चिकित्सा-विधियों के अध्ययन के द्वारा छात्रों में सफाई, उचित आहार-विहार, वैयक्तिक एवं सामुदायिक स्वास्थ आदि के मूल्यों का विकास किया जा सकता है। ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों का ज्ञान प्रदान करके हम छात्रों को उसकी उपयोगिता व बचत का ज्ञान करवा सकते हैं।
4. सामान्य (कोर) पाठ्यक्रम के शिक्षण द्वारा मूल्यों का विकास
“राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम के स्थान पर एक सामान्य या को पाठ्यक्रम द्वारा छात्रों में वांछित मूल्यों के विकास पर बल दिया गया है। नई शिक्षा नीति के निर्देशो में यह स्पष्ट रूप से घोषित किया गया है, “राष्ट्रीय स्तर पर कोर पाठ्यक्रम के अंग के रूप में मूल्य परक शिक्षा का भी पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए। विभिन्न मूल्यों के आत्मसातिकरण के लिए उपयुक्त प्रविधियाँ भी निर्धारित करनी होंगी।
विभिन्न तत्वों को इस प्रकार संजोया जायेगा जिससे 'राष्ट्रीय मूल्यों' का विकास किया जा सके। इन राष्ट्रीय मूल्यों में निम्नलिखित मूल्यों को शामिल किया जायेगा -
- भारत की सामान्य सांस्कृतिक धरोहर
- लोकतन्त्र
- धर्म-निरपेक्षता
- स्त्री-पुरूष के बीच समानता
- सामाजिक अवरोधकों को दूर करना
- सीमित परिवार का महत्व
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
- पर्यावरण-संरक्षण
पाठ्य सहगामी क्रियाएँ
छात्रों में वांछित मूल्यों के विकास हेतु विद्यालय में निम्नलिखित पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए-
1. प्रार्थना सभाएँ- विद्यालय में प्रतिदिन आयोजित प्रार्थना सभाओं का भी बालकों में मूल्यों के विकास में महत्वपूर्ण स्थान होता है। प्रार्थना सभा प्रारम्भ होने के पूर्व श्यामपट पर दैनिक विचार लिख देना चाहिए ताकि बालकों में स्व-चिन्तन का मूल्य विकसित हो। इसके बाद छात्र सामूहिक प्रार्थना में भाग ले जो कि नैतिकता पर आधारित हो। इसके द्वारा छात्रों में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है। प्रार्थना सभा के बाद छात्रों द्वारा अपने विचारों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए।
2. खेलकूद सम्बन्धी क्रियाएँ - खेल बालकों की जन्मजात स्वाभाविक स्वतन्त्र प्रवृत्ति है । अतः बालकों में वांछनीय मूल्यों जैसे प्रेम, सहानुभूति, सहनशीलता, सहयोग, भ्रातृत्व, परोपकार,आत्म-विश्वास, नेतृत्व समय की पाबन्दी, आदि के विकास के लिए विद्यालयों में खेलकूद सम्बन्धी क्रियाएँ आयोजित करते रहना चाहिए और इनके संचालन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि छात्रों में अवांछित मूल्यों का विकास न हो सके और उनमें वांछित 'मूल्य' ही विकसित हो ।
3. राष्ट्रीय पर्व - विद्यालय में राष्ट्रीय पर्व यथा - 15 अगस्त, 26 जनवरी तथा 2 अक्टूबर बड़े ही उत्साहपूर्वक मनाने चाहिए। गाँधी जी का स्वतन्त्रता में योगदान, स्वतन्त्रता का इतिहास, भारतीय गणतन्त्र का इतिहास, भारतीय संविधान की रूपरेखा आदि ऐसे पहलू हैं, जिनके माध्यम से छात्रों में विश्वबन्धुत्व, देशप्रेम, त्याग, बलिदान, स्वतन्त्रता एवं समानता, राष्ट्रीय चेतना, दूसरे के गुणों की प्रशंसा करना, अस्पृश्यता- विरोध आदि मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
4. जयन्ती वर्ष - छात्रों में वांछित मूल्यों के विकास के लिए महान पुरूषों, नेताओं व विद्वानों के जन्मदिन मनाये जाने चाहिए। उदाहरण के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले महापुरूषों के जन्म दिन मनाये जाने चाहिए और उनके जीवन की घटनाओं को प्रस्तुत कर छात्रों में मूल्यों का विकास किया जा सकता है। इस दिन विद्यालय में नाटक, वाद-विवाद प्रतियोगिता, गीत-संगीत आदि का भी आयोजन किया जा सकता है ताकि छात्रों में सामाजिक व सामूहिक मूल्यों का विकास किया जा सके।
5. सामाजिक पर्व - विद्यालय एक ऐसे सामाजिक वातावरण का सृजन करता है, जो विभिन्न धर्मों, जातियों, प्रान्तों एवं भाषा समूहों के छात्रों को एक दूसरे को समझने का अवसर प्रदान करता है। कुछ मुख्य-मुख्य पर्वों को विद्यालय में अवश्य मनाना चाहिए। विद्यालय के सभी छात्रों को सामूहिक रूप से आकर इनमें सहभागी होना चाहिए। इस प्रकार के कार्यक्रमों से छात्रों में मानव जाति की एकात्मकता, विभिन्नता में एकता तथा धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
6. वार्षिकोत्सव - छात्रों में वांछित मूल्यों के विकास की दृष्टि से विद्यालयों में वर्ष के अन्त में वार्षिकोत्सव अवश्य आयोजित करना चाहिए। इसमें विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए । इस प्रकार से वार्षिकोत्सव मनाने से छात्रों में समय की पाबन्दी, श्रम में निष्ठा, समाजसेवा, नियमितता, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना, अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूकता आदि मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
7. छात्र संसद - आज के छात्र कल के नागरिक हैं और उन्हीं के कन्धों पर ही भविष्य का भार आना है। अतः विद्यालयों का कर्तव्य है कि वे बालकों में लोकतान्त्रिक मूल्यों का विकास करके उन्हें भविष्य के लिए तैयार करें। इसके लिए विद्यालय में छात्र- संसद बनाकर विभिन्न कार्यों का सम्पादन करने हेतु विभिन्न समितियों का गठन किया जाना चाहिए । प्रत्ये समिति किसी ना किसी अध्यापक के संरक्षण में अवश्य होनी चाहिए। छात्र संसद तथा उसके अंतर्गत गठित समितियों के कार्यक्रमों के माध्यम से छात्रों में अनुशासन, आत्म- विश्वास, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता,एवं समानता भ्रातृत्व अधिकारों एवं कर्तव्यों का निर्वाह, अच्छे बुरे में भेद आदि मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
8. सामाजिक उत्पादक कार्य - शिक्षा व विद्यालय का यह परम कर्तव्य है कि वह छात्रों को समाजोपयोगी बनाने के लिए सामाजिक दृष्टि से उपयोगी व उत्पादक कार्य के लिए प्रेरित करें । इस प्रकार की प्रेरणा पाकर वे स्वच्छता अभियान चला सकते हैं, निरक्षर व्यक्तियों को साक्षर बनाने का प्रयास कर सकते हैं । इस प्रकार के सामाजिक उत्पादक कार्यों को करने से छात्रों में सामाजिक मूल्यों का विकास कर सकते हैं।
9. अभिभावक सम्पर्क - बालकों में वांछित मूल्यों का विकास करने के लिए शिक्षकों को चाहिए कि वे समय-समय पर छात्रों के अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करते रहें। इस सम्पर्क द्वारा वे इस बात को जानने का प्रयास करें कि बालक पारिवारिक मूल्यों की उपेक्षा विद्यालय में और विद्यालय मूल्यों की उपेक्षा, परिवार व समाज में तो नहीं कर रहे हैं। इसके लिए वे परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करें और छात्रों में उचित मूल्यों का विकास करने हेतु एक दूसरे का सहयोग प्रदान करें ।
10. पर्यावरण सुधार- मोटे रूप में पर्यावरण जिसकी परिधि में बालक अपना जीवन व्यतीत करता है दो प्रकार का होता है - 1 भौतिक पर्यावरण 2 - सामाजिक पर्यावरण | छात्रों को इन दोनों प्रकार के पर्यावरण में सुधार करने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित करना चाहिए । जिससे छात्रों में शान्ति, अहिंसा, इन्द्रीय नियन्त्रण, राष्ट्रीय एकता तथा परोपकार आदि मूल्यों का विकास हो सके।
शिक्षकों द्वारा आर्दश प्रस्तुति
बालको में मूल्यों के विकास हेतु स्वयं शिक्षकों द्वारा आर्दश प्रस्तुति की जानी चाहिए। शिक्षक के आचरण का अनुकरण करके ही बच्चे सत्य एवं न्याय जैसे जीवन मूल्यों को सीख सकेगें, ये जीवन मूल्य पुस्तकों के माध्यम से नहीं सिखाये जा सकते हैं। अतः शिक्षकों द्वारा प्रस्तुत आचरण छात्रों में उचित मूल्यों का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता है।
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