वृद्धि एवं विकास का अर्थ एवं परिभाषा: विकास का अर्थ मात्र शारीरिक वृद्धि ही नहीं है। विकास एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है । यह एक परिवर्तन एवं बहुमुखी प्रक्
वृद्धि और विकास की परिभाषा, अर्थ और प्रमुख निर्धारक तत्व बताइए।
वृद्धि एवं विकास का अर्थ एवं परिभाषा: विकास का अर्थ मात्र शारीरिक वृद्धि ही नहीं है। विकास एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है । यह एक परिवर्तन एवं बहुमुखी प्रक्रिया है। विकास के अन्तर्गत समस्त मानवीय क्षमताओं एवं शक्तियों को सम्मिलित किया गया है। गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक चलने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक, शारीरिक, संवेगात्मक तथा बौद्धिक क्षेत्र में होने वाली व्यवस्थित एवं सन्तुलित परिवर्तन श्रृंखला को विकास की संज्ञा दी जाती है। विकास निरन्तर है। विकास बालक की शारीरिक संरचना में परिवर्तन का सूचक ही नहीं बल्कि उसके मन-मानस में होने वाले वैचारिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन का भी सूचक है। गैसिल के अनुसार, "विकास केवल धारणा ही नहीं यह निरीक्षण योग्य भी है तथा इसका मापन भी किया जा सकता है।"
संक्षेप में विकास का समय के साथ चलने वाले ऐसी परिवर्तन श्रृंखला है जिसका प्रारम्भ गर्भावस्था से होकर परिपक्वावस्था प्राप्त होने तक निरन्तर होता रहता है।
विकास प्रक्रिया का आरम्भ पितृ सूत्र के संयोग के क्षण से ही होने लगता है। जब तक भ्रूण गर्भावस्था से विकसित होता रहता है तब तक इस अवस्था को पूर्व गर्भावस्था कहा जाता है । जब वह गर्भावस्था से बाहर आता है तो इसे पश्च गर्भावस्था या गर्भोत्तर अवस्था कहते हैं। गर्भान्तर स्थिति के बालक के विकास का एक नया आयाम प्रारम्भ होता है।
वृद्धि एक सृजनात्मक प्रवर्ध है क्योंकि इससे व्यक्ति के व्यवहार में भिन्नता का विकास होता है । वृद्धि किसी न किसी दिशा में अनिवार्य रूप से होगी। वृद्धि किसी भी दशा में अवरुद्ध नहीं हो सकती चाहे विकास हो क्यों न जाये। जो कुछ भी जीवनकोष से प्राणी को मिला है उसका प्रस्फुटन और उसकी वृद्धि होनी अवश्य प्रभावी है।
वृद्धि निरन्तर तथा क्रमिक होती है जब तक व्यक्ति वृद्धि की पूर्णता को नहीं पहुँचता तब तक वह निरन्तर धीरे-धीरे होती रहती है ।
मुनरो के अनुसार, "परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था है जिससे बालक भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाती है।"
जेम्स ड्रेवर के अनुसार, "विकास की वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में व्यक्ति में लगातार प्रतिबिम्बित होती है। यह प्रगतिशील परिवर्तन भ्रूणावस्था से प्रौढ़ावस्था तक निरन्तर चलता रहता है, विकास तंत्र को नियंत्रित करता है तथा विकास प्रगति का मापदंड होता है। इसका आरम्भ शून्य से होता है।"
उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि विकास परिवर्तन का क्रमबद्ध व्यवस्थित समानुपात तथा प्रगतिशील क्रम है जो परिपक्वता की प्राप्ति में सहायक है तथा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक चलता रहता है। इसी परिवर्तन को विकास कहा जाता है।
विकास के प्रमुख निर्धारक तत्व (Determinations of Development)
गर्भावस्था से मृत्यु तक मानव में अनेक शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते हैं। परिवर्तन की दिशा कभी अवरुद्ध नहीं होती वरन् किसी अवस्था में ये परिवर्तन तीव्र गति से तो किसी अवस्था में धीमी गति से होता है। गर्भावस्था में बालक के शारीरिक अंगों का निर्माण बहुत तीव्र गति से होता है तथा जन्म के पश्चात् उसके शारीरिक व्यवहार में अनेक परिवर्तन होते हैं. परिवर्तनों की यह प्रक्रिया प्रगतिशील दिशा में होती है जिन्हें हम धनात्मक परिवर्तन कहते हैं। प्रौढ़ होने पर परिवर्तन की प्रक्रिया में स्थायित्व आ जाता है। प्रौढावस्था की इस प्रक्रिया में गिरावट आ जाती है जिसे हम ऋणात्मक परिवर्तन कहते हैं। विकास का अर्थ वातावरण के कारण होने वाले परिवर्तन से है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि, " विकास का अभिप्राय गर्भावस्था से लेकर मृत्यु तक किसी निश्चिम समय की ओर होने वाले उन परिवर्तनों से है जो व्यवस्थित तथा समानुपात से होते हैं। प्रायः विकास को कुछ निर्धारक तत्व निर्धारित करते हैं जिनमें दो मुख्य हैं- परिपक्वता तथा सीखना ।
1. परिपक्वता (Maturation ) परिपक्वता एक जीव शास्त्रिय शब्द है। मनुष्य को आनुवांशिक रूप से जो शील गुण प्राप्त होते है, उनके विकास का स्पष्टीकरण ही परिपक्वता कहलाती है अर्थात् परिपक्वता एक वंशानुक्रमणीय क्रिया है। यह विकास की वह प्रक्रिया है जिसमें समय के अनुसार व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं में क्रमिक परिवर्तन होते हैं तथा शरीर विभिन्न क्रियाओं तथा क्षमताओं के लिए उपयुक्त बनता है ।
2. सीखना (Learning) - सीखना एक मनोवैज्ञानिक शब्द है। सीखना प्राणी की एक प्रक्रिया है, जिससे वह वातावरण के सम्पर्क में आकर जो अनुभव एवं अभ्यास करता है, उससे उसके वातावरण के प्रभाव से जन्मजात व्यवहार में परिर्वतन होता है। इस प्रकार सीखना एक वातावरणीय प्रक्रिया है जिसमें वातावरण के प्रभाव से जन्मजात व्यवहार में परिवर्तन होता है।
परिपक्वता एवं सीखना विकास को प्रभावित करते हैं। परिपक्वता के द्वारा व्यक्ति के अंग-प्रत्यंगों का उचित विकास होता है एवं ये अंग-प्रत्यंग विभिन्न क्षमताओं के लिए योग्य बनते हैं। परिपक्वता आयु के साथ-साथ आती जाती है प्राणी जैसे जैसे परिपक्व होता जाता है वैसे वैसे उसमें सीखने की क्षमता विकसित होती जाती है। इस प्रकार परिपक्वता एवं सीखनें में घनिष्ट सम्बन्ध होता है। सीखने की प्रक्रिया परिपक्वता पर ही आधारित है। जबकि मानव का विकास परिपक्वता एवं सीखना दोनों पर ही आधारित है। इनमें से किसी भी एक के अभाव में विकास होना सम्भव नहीं होता ।
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