संस्कृतिकरण किसे कहते हैं ?
नरसिम्हाचार श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की अवधारणा प्रस्तुत की है। श्रीनिवास पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस तथ्य को उजागर कर उसे सैद्धान्तिक चोला पहनाया कि किस प्रकार दमित निम्न जातियाँ अपनी प्रस्थिति को ऊँचा उठाने के लिए समाज की उच्च जातियों की अच्छी स्थिति प्राप्त करने और अधिक शक्ति सम्पन्न बनने के लिये उनका अनुकरण करती हैं। अनुकरण की इस प्रक्रिया के लिए ही श्रीनिवास ने 'संस्कृतिकरण' के संबोध का प्रयोग करते हुए कहा है कि "संस्कृतिकरण' एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक 'निम्न जाति' या जनजाति या कोई अन्य समूह किसी उच्च जाति के कर्मकाण्डों, विश्वासों और जीवनशैली को अपना लेता है। उन्होंने इसे अधिक स्पष्ट करते हुए आगे लिखा है कि "संस्कृतिकरण का तात्पर्य नवीन रीति-रिवाजों और आदतों को अपनाना मात्र नहीं है। अपितु उन नये-नये विचारों और मूल्यों को अनावृत करना भी है जिनकी धार्मिक और लौकिक दोनों प्रकार के संस्कृत साहित्य के विशाल भण्डार में अनेक स्थानों पर चर्चा हुई है। कर्म, धर्म, पाप, माया, संस्कार और मोक्ष जैसे सर्वाधिक सामान्य संस्कृत के धर्मशास्त्रीय विचार इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।' सामान्यतः संस्कृतिकरण ऊर्ध्व गतिशीलता को प्रेरित करती है। इसके साथ जुड़ी गतिशीलता के द्वारा व्यवस्था में केवल पदात्मक परिवर्तन ही होता है, इससे सम्पूर्ण व्यवस्था की संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता है।