चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ और सारांश: कवि एक गाँव से लौट रहे हैं जिसका नाम है चाँद गहना। लौटते समय कवि एक खेत की मेड़ पर अकेले बैठकर गा
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ और सारांश
देखा आया चंद्र गहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत पर मैं बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
पास ही मिल कर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली कमर की है लचीली,
नीले फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, जो छूए यह,
दूँ हृदय का दान उसको।
और सरसों की न पूछो-
हो गई सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह - मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे !
देखता हूँ मैं: स्वयंवर हो रहा है,
पकृति का अनुराग - अंचल हिल रहा है
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ
भावार्थ: कवि एक गाँव से लौट रहे हैं जिसका नाम है चाँद गहना। लौटते समय कवि एक खेत की मेड़ पर अकेले बैठकर गाँव के सौंदर्य को निहार रहा है। आगे की पंक्तियों में ज्यादातर पौधों की तुलना अलग अलग वेशभूषा वाले आदमियों से की गई है। चने का पौधा ऐसा लग रहा है जैसे एक ठिगना सा आदमी अपने सर पर छोटे से गुलाबी फूल की पगड़ी बांधकर सज धजकर खड़ा है।
अक्सर चने के खेत में ही तीसी या अलसी के बीज भी बो दिये जाते हैं। अलसी ऐसे लग रही है जैसे चने की बगल में हठ कर के खड़ी हो गई हो। अपनी कामिनी काया और लचीली कमर के साथ उसने बालों में नीले फूल लगा रखे हैं। जैसे ये कह रही हो कि जो भी उस फूल को छुएगा उसे ही उसका दिल मिलेगा। सरसों तो लगता है सबसे बड़ी हो गई है। वह इतनी बड़ी हो गई है कि उसने अपने हाथ पीले करवा लिए हैं और विवाह मंडप में बैठ गई है। ऐसा लग रहा है कि होली के गीत गाता हुआ फागुन का महीना भी उस ब्याह में शामिल हो रहा है। इस स्वयंवर में प्रकृति अपने प्यार का आँचल हिला रही है।
इस विजन में,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले हैं एक पोखर,
उठ रही है इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ ।
एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता ।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी !
चुप खड़ा बगुला डुबाए टाँग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान - निद्रा त्यागता है,
चट दबाकर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
भावार्थ: सामने एक पोखर है जिस में छोटी छोटी लहरें उठ रही हैं। पोखर की तलछटी में जो शैवाल हैं वो भी साथ साथ लहर मार रहे हैं। पोखर के बीच में प्रायः लकड़ी का एक मोटा सा खम्भा होता है। कुछ जगह पर इसे जाट कहा जाता है। इससे पोखर में पानी की गहराई का पता चलता है। इसकी तुलना चांदी के एक बड़े से खम्भे से की गई है जिससे आँखें चौंधिया जाती हैं। किनारे पड़े छोटे छोटे पत्थर इस तरह चुपचाप पानी पी रहे हैं जैसे उनकी प्यास कभी नहीं बुझने वाली हो।
बगुला पानी में अपनी टांग डुबाकर चुपचाप खड़ा है और जैसे ही किसी मछली को देखता है तो उसका ध्यान भंग हो जाता है। वह चट से उसे चोंच में दबाकर अपने गले के नीचे उतार लेता है। एक काले सर वाली चालाक चिड़िया अपने सफेद पंखों के झपाटे से जल के हृदय पर तेजी से टूट पड़ती है और एक चतुर मछली को अपने पीले चोंच में दबाकर आसमान में उड़ जाती है।
औ यही से-
भूमी ऊँची है जहाँ से-
रेल की पटरी गई है।
ट्रेन का टाइम नहीं है
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रिंवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें;
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता
उठता-गिरता,
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों;
भावार्थ: सामने ऊंची जमीन से रेलवे लाइन गई है। लेकिन अभी ट्रेन का समय नहीं हुआ है। कवि को कहीं जाने की जल्दी भी नहीं है। इसलिए वह वहाँ की सुंदरता को अपनी आँखों में मन भर कर उतारने के लिए पूरी तरह से आजाद है।
पठारी क्षेत्र की पहाड़ियां कम ऊंचाई वाली और बेडौल होती हैं। साथ में बबूल और रीवां के कांटेदार पेड़ कोई सुंदर दृश्य प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। इस बंजर भूमि पर भी तोते का मीठा सुर सुनाई पड़ता है। सारस की आवाज जंगल के सीने को चीरते हुए निकल जाती है।
मन होता है- उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में
सच्ची प्रेम-कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।
भावार्थ:- कवि का मन करता है कि वो उसी सारस के साथ पंख फैला कर उड़ जाए। कवि उड़कर वहाँ पहुँचना चाहता है जहाँ हरे खेत में कोई प्रेमी युगल छुप कर मिल रहे हैं। वहाँ दबे पाँव जाकर कवि उनकी प्रेम कहानी सुनना चाहता है।
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का सारांश
इस कविता में कवि का प्रकृति के प्रति गहटा अनुटाग व्यक्त हुआ है। वह चंद्र गहना नामक स्थान से लौट रहा है। लौटते हुए उसके किसान मन को खेत-खलिहान एवं उनका प्राकृतिक परिवेश सहज आकर्षित कर लेता है। उसे एक ठिगना चने का पौधा दिखता है, जिसके सर पर गुलाबी फूल पगड़ी के समान लगता है। वह उसे दुल्हे के समान प्रतीत होता है। वहीं पास में अलसी का पौधा है, जो सुन्दर युवती की भांति लगता है। खेत में सरसों का पौधा विवाह योग्य लड़की के समान लगता है। खेतों के समीप से रेल भी होकर गुजरती है। पास में तालाब की शोभा देखने लायक है। तालाब के किनारे पर पत्थर पड़े हुए हैं, मछली की ताक में बगुला चुपचाप खड़ा है। दूट साटम के जोड़े का स्वर सुनाई दे रहा है। यह सब कवि का मन मोह लेते हैं। इस कविता में कवि की उस सृजनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति है जो साधारण चीज़ों में भी असाधारण सौंदर्य देखती है और उस सौंदर्य को शहरी विकास की तीव्र गति के बीच भी अपनी संवेदना में सुरक्षित रखना चाहती है। यहाँ प्रकृति और संस्कृति की एकता व्यक्त हुई है।
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