पूस की रात कहानी की मूल संवेदना - Poos ki Raat Kahani ki Mool Samvedna: पूस की रात प्रेमचंद की यथार्थवादी कहानियों में अग्रणी है। 1930 ई. में रचित यह
पूस की रात कहानी की मूल संवेदना - Poos ki Raat Kahani ki Mool Samvedna
पूस की रात कहानी की मूल संवेदना - पूस की रात प्रेमचंद की यथार्थवादी कहानियों में अग्रणी है। 1930 ई. में रचित यह कहानी प्रेमचन्द द्वारा आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के रास्ते को छोड़कर यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपना लेने की घोषणा करती है। यह उस यात्रा की शुरूआत है जो 1936 में कफन कहानी में चरम यथार्थ पर जाकर पूर्ण होती है। किसान वर्ग प्रेमचन्द की चिंताओं में शीर्ष पर है। पूस की रात कहानी उनकी इसी चिंता का प्रतिनिधित्व करती है। कहानीकार ने इसमें किसान के हृदय की वेदना को कागज के पन्ने पर उतारा है।
पूस की रात की मूल समस्या गरीबी की है, बाकी समस्याएँ गरीबी के दुष्चक्र से जुड़ कर ही आई है। जो किसान राष्ट्र के पूरे सामाजिक जीवन का आधार है उसके पास इतनी ताकत भी नहीं है कि पूस की रात की कड़कती सर्दी से बचने के लिए एक कंबल खरीद सके। दूसरी ओर समाज का एक ऐसा वर्ग है जिसके पास साधनों की इतनी अधिकता है कि उन्हें वह खर्च भी नहीं कर पाता है। यही है आवारा पूंजीवाद का चरम विकृत रूप जिसकी वजह से समाज में आर्थिक विषमता की दरार दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अर्थव्यवस्था की इसी फूहड़ता एवं विकृति पर यह मार्मिक कहानी व्यंग्य करती है। प्रेमचंद ने सर्दी को प्रतीक के रूप में इन दोनों वर्गों की तुलना दिखाते हुए समा की कड़वी हकीकत को उकेरा है हल्कू ने घुटनियों को गर्दन में चिपकाते हुए कहा "क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था घर में पुआल पर लेट रह तो यहाँ क्या लेने आये थे। अब खाओ ठण्ड, मैं क्या करूं। मैं यहाँ हलुआ, पूरी खाने आ रहा हूँ दौड़े-दौड़े आगे चले आये... कल से मत आना मेरे साथ नहीं तो ठंडे हो जाओगे ।... यह खेती का मजा है। और एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाय तो गर्मी से घबड़ाकर भागे मोटे-मोटे गद्दे लिहाफ-कम्मल। मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाय। तकदीर की खूबी मजूरी हम करें मजा दूसरे लूटें।" ये सिर्फ हल्कू की वेदना नहीं है बल्कि भारतीय किसान के हृदय की वेदना है जो आज भी किसी मुक्तिदाता का इन्तजार कर रही है।
हल्कू तो सिर्फ एक माध्यम भर प्रतीत होता है। यह हल्कू की ही नहीं बल्कि हल्कू के माध्यम से कृषिप्रधान देश में रह रहे अरबों लोगों का पेट भरने वाले उस अन्नदाता किसान की हृदयविदारक कथा है जो सूरज के उदय होने से पहले ही खेतों में आ जाता है और अस्त होने के बाद भी खेत की मेड पर बैठकर अपने सपनों की फसलों के माध्यम से पूरा करने का अरमान सजा लेता है। लेकिन वह अरमान पूरा कहाँ होता है? एक समस्या से निकले नहीं कि दूसरी आकर सर पे खड़ी हो जाती है, एक भँवर से निकले नहीं कि दूसरा उन्हें अपने चपेटे में ले लेता है। इसी जद्दोजहद में उसकी पूरी उम्र कट जाती है और एक दिन वह इस संसार को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर अनंत यात्रा पर चला जाता है। वास्तव में पूस की रात में जो दुर्दशा हल्कू की है, वही आजादी के सत्तर साल बाद भी है। किसानों की जो भी आज दिन-हीन दशा है, उसका कारण उनकी सामाजिक-आर्थिक वर्गीय स्थिति है। भारतीय समाज में राजनीति, राजनेता, पूँजीपति, अधिकारी, पटवारी, शासन-सत्ता के तथाकथित एवं स्वघोषित रहनुमाओं का पहला और आखिरी निशाना यही मासूम भारतीय किसान बनता है। महंगाई की मार हो या प्राकृतिक आपदा हो सबसे पहले इसका आसान शिकार किसान ही होता है।
पूस की रात किसान के जीवन संघर्ष की कहानी है। पूस की रात का हल्कू जिन स्थितियों से गुजर रहा है, वे इतनी कठिन हैं कि मरजाद का विचार निरर्थक हो गया है। कहानी का अंत इसी नाटकीय मोड़ पर हुआ है जहाँ हल्कू किसानी छूटने से खुश नजर आता है -
"दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था।
मुन्नी ने चिंतित होकर कहा - अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।
हल्कू ने प्रसन्न - मुख से कहा- रात को ठण्ड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।"
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