पूस की रात कहानी की भाषा शैली
'पूस की रात' कहानी सरल और स्वाभाविक साहित्यिक भाषा शैली को संजोए हुए है। साहित्यिक भाषा होते हुए भी इसमें कुछ स्थानीय या आंचलिक कहे जाने वाले शब्दों का समावेश हुआ है। जैसे- हार, सहमत, ऊख, दोहर, टाँटे, भाषा-शैली ने इस कहानी की व्यंजना को रंगों से भर दिया है। पूस की रात की ठंड में कुत्ते के साथ वार्ता का इतना सुन्दर वर्णन हुआ है कि पाठक मुग्ध हो जाता है। वस्तुतः शैली के कारण ही कहानी की मार्मिकता बरकरार रही है। ठंड में जबरा कुत्ते को हल्कू द्वारा डांटना कहानी की रोचकता को बनाए रखता है।
हल्कू ने घुटनियों को गर्दन में चिपकाते हुए कहा- क्यों जबरा जाड़ा लगता है ? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रहा तो यहाँ क्या लेने आये थे । अब खाओ ठण्ड, मैं क्या करूँ । जानते थे मैं यहाँ हलवा-पूरी खाने आ रहा हूँ दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये। अब रोओ नानी के नाम को।
दूसरी तरफ ठण्ड की जकड़न को व्यक्त करते शब्द देखें- “पूस की अन्धेरी रात। आकाश पर तारे ठिठुरते हुए मालूम होते थे ।
“यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है। उठूं फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे । ....... यह खेती का मजा है और एक भागवान ऐसे पड़े हैं जिनके पास जाड़ा जाय तो गर्मी से घबरा कर भागे। तकदीर की खूबी है मजदूरी हम करें मजा दूसरे लूटे।"
कहानी में काव्यमय प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है। जैसे-
"बगीचे में घुप अंधेरा छाया हुआ था और अन्धकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से ओस की बूंदों टप -टप नीचे टपक रही थीं। "