पूस की रात कहानी का चरित्र चित्रण- 'पूस की रात' कहानी में हल्कू और जबरा कुत्ता ये दो ही मुख्य पात्र हैं। तीसरा पात्र है हल्कू की पत्नी मुन्नी। सहना ना
पूस की रात कहानी का चरित्र चित्रण
पूस की रात कहानी के पात्रों का चरित्र चित्रण- 'पूस की रात' कहानी में हल्कू और जबरा कुत्ता ये दो ही मुख्य पात्र हैं। तीसरा पात्र है हल्कू की पत्नी मुन्नी। सहना नामक एक लेनदार पात्र भी कहानी में आया है। उसका इस दृष्टि से विशेष महत्व है कि हल्कू द्वारा मजदूरी में से काटकर एक-एक पैसा जोड़े तीन रुपये लेनदारी में लेकर सहना नामक यह पात्र कथावस्तु की नींव रख जाता है। पात्र प्रकल्पित होते हुए भी जीवन के घोर यथार्थ पर आधारित हैं। कहानी के सभी पात्र वर्गगत चरित्र वाले हैं। प्रतीकात्मक रूप में सहना ग्रामीण व्यवस्था में शोषक वर्गों का एक वर्ग-प्रतिनिधि है, तो हल्कू और मुन्नी शोषक-पीड़ित श्रमिक किसान वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्र हैं। इसी प्रकार जबरा कुत्ता भी अपने विशिष्ट पशु वर्ग की समस्त वर्गगत मान्यताओं एवं विशेषताओं को सम्पन्न भाव से उजागर करने वाला पात्र है।
चरित्र-चित्रण की दृष्टि से हल्कू, मुन्नी आदि पात्र सहज मानवीय धैर्य के प्रतीक होते हुए भी गतिशील चरित्र वाले पात्र कहे जा सकते हैं। सहना इन धैर्य रखने वाले पात्रों के विपरीत मानवीयता को खोकर जड़ हो चुका है। हल्कू से पैसा-पैसा जोड़कर कम्बल खरीदने के लिए रखे तीन रुपये लेकर वह अपनी निम्नतम जड़ता का ही परिचय देता है।
हल्कू किसानों की दारूण नियति का शिकार पात्र है। उसकी असमर्थता यह है कि जाड़े से बचाव के लिए मात्र तीन रुपये का कम्बल नहीं खरीद सकता । सर्दियाँ आने पर हर बार उसकी सोच, उसकी चेतना महज ठिठुरकर ही रह जाते हैं। कहानीकार ने वस्तुतः उसे व्यवस्था दोष का शिकार बताया है। यह व्यवस्था रहते हल्कू इसी प्रकार की दयनीय दशा झेलते रहने को विवश है। जबरे की ठण्डी पीठ अपने ठण्डे पड़े हाथों से सहलाते हुए वह जो कुछ कहता है उसे हम उसके वर्गगत चरित्र का दर्पण कह सकते हैं। वह कहता है–'कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठण्डे हो जाओगे। यह राँड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है। उहूँ, फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे।" इस प्रकार हल्कू परम्परागत किसान के रूप में ही दिखाया गया है।
मुन्नी व्यवस्था के प्रति विद्रोही चरित्र के रूप में उभर कर सामने आती है। सहना के आने पर आक्रोश भरे स्वर में कहती है-'न जाने कितने बाकी हैं जो किसी तरह चुकने ही नहीं आते।" न चाहते हुए भी उसे संभाल कर रखे तीन रुपये देने ही पड़े। खेती तो जाती ही है मजदूरी करके संभाल कर रखे पैसे भी चले जाते हैं। यह मुन्नी की वेदना को उजागर करता है।
चरित्र-चित्रण की दृष्टि से कहानी बड़ी मार्मिक बन पड़ी है। सजीव पात्रों के चयन ने कहानी में यथार्थ की अभिव्यक्ति की है।
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