पूस की रात कहानी का वातावरण
पूस की रात कहानी वातावरण प्रधान कहानी है। कहानी का शीर्षक ही वातावरण को दिखाता है। क्योंकि जो भी घटनाएं कहानी में उजागर की गई हैं वे पौष मास की ठण्डी रात्रि में घटित होती हैं । वातावरण को पात्रों के संवादों ने भी उचित मोड़ दिया है जिससे उनकी क्रियाएं और प्रतिक्रियाएं घटित होती हैं। पूस की रात कहानी में वातावरण का सृजन करते शब्द देखिए -
“पूस की अंधेरी रात। आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।"
सजीव और यथार्थ चित्रण इस कहानी के वातावरण को और भी दृढ़ता देता है। वातावरण सृष्टि में संवाद भी सहायक हुए हैं। इस प्रकार का एक उद्धरण भी देखिए -
"हल्कू ने कहा- अब तो नहीं रहा जाता जबरू ! चलो बगीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें। टाँठे हो जायँगे, तो फिर आकर सोएँगे। अभी तो रात बहुत है।"
"जबरा ने कूं-कूं करते सहमति प्रकट की और आगे-आगे बगीचे की ओर चल दिया ?"
इस प्रकार सभी स्तरों पर वातावरण की सृष्टि अत्यन्त सजीव, सन्तुष्ट, साकार एवं यथार्थ बन पड़ी है।