सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा : सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है वरन् यह एक वास्तविक सामाजिक स्थिति है जिसके कुछ ऐसे लक्षण हैं
सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा और सामाजिक स्तरीकरण के आधार
सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा
सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है वरन् यह एक वास्तविक सामाजिक स्थिति है जिसके कुछ ऐसे लक्षण हैं जो एक व्यक्ति, समूह, समाज, संस्कृति के लोगों को दूसरे व्यक्ति, समूह, समाज तथा संस्कृति से अलग कर उन्हें एक ऊँची तथा निम्न श्रेणी सोपान के अंतर्गत सामाजिक स्थान देते हैं। यंग एवं मेक के शब्दों में, "अधिकतर समाजों में व्यक्ति एक-दूसरे को विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत करते हैं तथा इन वर्गों को उच्च से निम्न तक की विभिन्न श्रेणी में रखते हैं। इस प्रकार के वर्गीकरण की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरण कहा जाता है तथा जो इसके परिणामस्वरूप प्राप्त श्रेणीबद्ध वर्गों की श्रृंखला होती है। उस को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है।
स्तरण की अनम्यता विभिन्न समाजों में विभिन्न होती है। कुछ में यह बहुत दृढ1 होती है जबकि दूसरों में नम्या की समान के अनुसार जितना भी अधिक बल जैविक सुरक्षा पर दिया जाएगा उतनी ही दृढ1 व्यवस्था के होने की संभावना है। उसके अनुसार समाजशास्त्री दो चरम स्थितियों को प्रस्तुत करते हैं। एक तो वह जिसमें समाजिक स्थान आरोपित होते हैं। दूसरी वह जिसमें सामाजिक स्थान प्राप्त किये जाते हैं। जब सामाजिक स्थान आरोपित होते हैं तो वर्गीकरण में अनम्यता होती है और विभिन्न स्ट्रेटा का विभाजन अटूट होता है। जब यह विभाजन प्राप्त किया जाता है तो विलगता लचीली होती है और विभिन्न स्तरों के बीच में सामाजिक गतिशीलता सम्भव होती है। अमेरिका की वर्ग व्यवस्था दूसरे प्रकार के वर्गीकरण का उदाहरण है और भारत की जाति प्रणाली पहले वर्गीकरण में आती है।
भारतीय समाज एक बंद समाज है। उसमें विभिन्न वर्ग है। विभिन्नता हर पहलू से दृष्टिगोचर होती है। अतएव एक सार्थक प्रयास हमेशा किया जाता रहा है, जिससे इन विभिन्नताओं को दरकिनार कर एक सूत्र में समता स्थापित कर सकें। कोठारी कमीशन कहता है कि यदि हमें एक सम समाज का निर्माण करना है, तो जनता के सब वर्गों को अवसरों की समानता प्रदान करनी होगी, ताकि सभी वर्ग प्रगति के पथ पर अग्रसर हो।
सामाजिक स्तरीकरण के आधार
सामाजिक स्तरीकरण के क्रमशः जाति, वर्ग, धर्म एवं लिंग चार प्रमुख आधार है
जाति - सी.एच. कुले के अनुसार, "जब एक वर्ग पूर्णतः अनुवांशिकता पर आधारित होता है तो हम उसे जाति कहते हैं।" जे.एच. हट्टन के अनुसार, "जाति एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके अंतर्गत एक समाज अनेक आत्मकेंद्रित और एक दूसरे से पूर्णतः पृथक इकाईयों (जातियों) में बंटा रहता है। इन इकाइयों के बीच पारस्परिक संबंध ऊँच-नीच के आधार पर सांस्कृतिक रूप में निर्धारित होते हैं।"
भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण का स्थायी स्वरूप प्रमुख रूप से जाति व्यवस्था पर आधारित होता है। भारत में प्राचीनकाल से वर्ण व्यवस्था रही है। हिन्दू धर्म में चार मुख्य वर्ण माने गए हैं – ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शुद्र । इसमें जन्म पर आधारित सामाजिक विभाजन की नीति को विशेष महत्व दिया जाता है। इस प्रकार जाति की उत्पत्ति को जन्म शब्द से ही मानना उचित जान पड़ता है। जाति व्यवस्था से व्यक्ति को जन्म से ही एक सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है। इसमें आजीवन कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इसमें जातियों को एक दूसरे से अलग करने के लिए खान-पान, विवाह और धार्मिक रीति-रिवाजों के क्षेत्र में कुछ नियंत्रण होते हैं। इस स्थिति में एक जाति दूसरी जाति से कुछ सामाजिक दूरी बनाये रखती है। कुछ जातियां उच्च होती है और कुछ निम्न। इसलिए यहां एक सामाजिक स्तरीकरण देखने को मिलता है।
2) वर्ग - आगबर्न के अनुसार, “सामाजिक वर्ग की मौलिक विशेषता दूसरे सामाजिक वर्गों की तुलना में उच्च अथवा निम्न सामाजिक स्थिति है।"
वर्ग के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। इस व्यवस्था में सभी सामाजिक वर्गों की स्थिति समान नहीं होती। सभी वर्ग कुछ श्रेणियों में विभक्त होते हैं, जिनमें कुछ का स्थान उच्च और कुछ का निम्न होता है। उच्च वर्ग के सदस्यों की संख्या कम होने पर उन्हें अधिक प्रतिष्ठा और अधिकार मिले होते हैं। सामाजिक वर्गों की तुलना पिरामिड से की जा सकती है। वर्ग चार होते हैं। उच्च, उच्च मध्यम, निम्न मध्यम व निम्न वर्ग। इनमें से प्रत्येक वर्ग अन्य और उप-वर्गों में विभक्त हो जाता है व इन वर्गों में सभी व्यक्ति समान आर्थिक स्थिति के नहीं होते। प्रत्येक वर्ग के लोग एक विशेष ढंग से जीवनयापन करते हैं। उदाहरण के लिए धनवान वर्ग अपव्यय, श्रेष्ठता को व उच्च मध्यम वर्ग आडम्बर व प्रदर्शनवाद को विशेष महत्व देता है। लेकिन वर्ग संरचना जाति संरचना से तुलनात्मक रूप से घुली हुई होती है। अर्थात् आर्थिक स्थिति और योग्यता में परिवर्तन के साथ ही व्यक्ति की वर्ग स्थिति में भी उतार-चढाव आ सकता है।
कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार को ही वर्ग संघर्ष का कारण माना व इसके आधार पर दो वर्ग बताएं पूंजीपति व श्रमिक या सर्वहारा वर्ग। उन्होंने एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादनों के साधनों और सम्पत्ति के विवरण संबंधों के संदर्भ में परिभापित किया। बेबर के अनुसार वर्तमान युग में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को निर्धारित करने वाला आधार उसकी आर्थिक स्थिति ही है।
3) धर्म – धर्म के आधार पर भी समाज में स्तरीकरण है। भारत में विभिन्न धर्म हैं और हर धर्म की अपनी विशेष संस्कृति है। इनका खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज भी सब एक दूसरे से अलग है। एक धर्म का आवरण जन्म से ही स्थायी माना जाता है। कोई व्यक्ति सरलता से व अपनी सुविधा से धर्म नहीं बदल सकता। अपितु कुछ धर्म अपने धर्म की व्यापकता के लिए धर्म परिवर्तन के लिए कुछ नियमों पर यह सुविधा देते हैं। लेकिन समाज में इसकी स्वीकृति कम ही होती है। बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण का आधार प्रदान करता है।
4) लिंग – भारतीय समाज में लिंग भी सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख आधार है। भारतीय समाज पुरूप प्रधान समाज रहा है। अतः पुरूपों का स्थान महिलाओं से ऊपर माना जाता है। महिलाओं की स्थिति सामान्य रूप से पुरूपों से निम्न ही पायी जाती है। महिलाओं पर अधिक नियंत्रण है, सामाजिक नियम-निर्देश महिलाओं के लिए सख्त होते हैं, जिसका महिलाओं को कड़ाई से पालन करना होता है। केवल भारत के पूर्वोत्तर राज्य में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था है। इसलिए वहां महिलाओं की सामाजिक स्थिति सम्मानीय है। बाकी भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति चिंतनीय है। उदाहरण के लिए यदि कोई दलित महिला मजदूर है, तो उसकी स्थिति समाज में सबसे निम्न होती है। क्योंकि दलित होने के कारण वह जाति में व आर्थिक रूप से वर्ग में निम्न है व महिला होने के कारण परिवार में भी उसकी स्थिति निम्न ही रहती है। अतः वह तीन प्रकार से समाज के शोषण की शिकार होती है। हालांकि शिक्षा, जागरूकता के द्वारा इस लिंग भेद को समाप्त करने के सार्थक प्रयास किये जा रहे हैं। ताकि समाज में इस लिंग भेदभाव को दूर करके एक समानता पर आधारित समाज का निर्माण किया जा सके।
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