किशोरावस्था में शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व: किशोरावस्था को एक प्रकार शैशवकाल की ही पुनरावृत्ति माना जा सकता है क्योंकि इस अवस्था में भी शैशव
किशोरावस्था में शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व
किशोरावस्था में शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता: किशोरावस्था को एक प्रकार शैशवकाल की ही पुनरावृत्ति माना जा सकता है क्योंकि इस अवस्था में भी शैशवास्था की तरह बच्चे के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का अत्यधिक गति से वृद्धि और विकास होता हैं और किशोर भी शिशु की तरह अत्यधिक चंचल, अशांत, उत्तेजित, संवेदनशील और भावुक होता है। इस अवस्था में वृद्धि और विकास की सभी दिशाओं में बच्चा तेजी से आगे बढ़ता है। जिसके परिणामस्वरूप उसमें कई नवीन परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं जोकि शारीरिक मानसिक, बौद्धिक, संवेगात्मक, सामाजिक व नैतिक विकास के रूप में होते हैं।
किशोरों की वृद्धि और विकास के विभिन्न पहलुओं से परिचित होने पश्चात् किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं पर भली-भाँति विचार किया जा सकता है। इस अवस्था में कई प्रकार की अनावश्यक तनावपूर्ण परिस्थितियाँ और असमायोजन सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। जिनका अध्ययन और निराकरण अत्यन्त आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा में शारीरिक शिक्षा मनोविज्ञान के माध्यम से किशोरावस्था की प्रमुख समस्याओं इनका निराकरण उपलब्ध कराया जा सकता है।
किशोरावस्था में व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक उलझनों तथा परिवर्तनों में से गुजरना होता है। उसमें पाश्विक शक्तियों की बाढ़-सी आ जाती है। यदि इसे खुला छोड़ दिया जाये तो उससे कई सामाजिक और नैतिक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती है, यदि इसे दबा दिया जाए तो व्यक्ति कई प्रकार के मानसिक रोगों का शिकार हो सकता है। किशोरावस्था की दुर्दम्य शक्ति के स्वस्थ नियन्त्रण का महत्वपूर्ण साधन हैं - खेले और शारीरिक क्रियाएँ इनमें माध्यम से किशोरों की शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं को ही सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता बल्कि उन्हें कठोर प्रशिक्षण तथा अभ्यास द्वारा विभिन्न प्रतियोगिताओं के लिए तैयार भी किया जा सकता है। यह वह अवस्था है जब व्यक्ति चुनौतियाँ स्वीकार करता है और कठिन से कठिन परिश्रम करने के लिए तैयार रहता है। इसी अवस्था में वह शारीरिक क्रियाओं तथा खेलों की जटिल कुशलताओं को सीखने की क्षमता रखता है। अपने शारीरिक और मानसिक विकास के कारण किशोरों में फुटबाल, हॉकी, एथलैटिक्स, क्रिकेट, बास्केट बाल, वालीबाल आदि प्रतियोगिताओं में भाग लेने की अद्भुत क्षमता रखता है। इस अवस्था का पूरा लाभ उठाने के लिए शारीरिक प्रशिक्षण के दौरान निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए
1. शारीरिक प्रशिक्षण में उन किशोरों के प्रशिक्षण तथा अभ्यास के लिए विशेष व्यवस्था करनी चाहिए जिन में खेल प्रतिभाएँ विद्यमान है। जैसाकि पहले कहा जा चुका है ऐसी प्रतिभाओं की पहचान बचपन में ही की जानी चाहिए। किशोरावस्था में इनका प्रशिक्षण एवं अभ्यास विशिष्ट तथा विकसित होना चाहिए।
2. जिन किशोरों में विशिष्ट खेल प्रतिभा नहीं होती उनके लिए भी शारीरिक क्रियाओं तथा खेलों का आयोजन होना चाहिए क्योंकि इनके माध्यम से किशोरों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का विकास होता है। खेल के माध्यम से किशोरों में आत्मनिर्भरता, सहयोग, सहनशीलता, सद्भावना आदि गुणों को विकसित किया जा सकता है। व्यक्तित्व के इन गुणों को विकसित करना शारीरिक शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
3. शारीरिक क्रियाओं में किशोरों का बढ़-चढ़ कर भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि उन के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार किया। उनके अहम को कभी भी ठेस नहीं लगनी चाहिए। अहम को ठेस लगने से या तो वे विरोध पर उतर आते है या फिर उनमें आत्महीनता विकसित होने लगती है। सामाजिक एवं व्यक्तिगत विकास में दोनों हानिकारक होते हैं।
4. किशोरों की समस्याओं को मनोवैज्ञानिक आधार पर सुलझाना चाहिए। कई बार प्रशिक्षण या अभ्यास के समय अच्छे-अच्छे खिलाड़ी अभद्र व्यवहार करने लगते है। प्रशिक्षक को इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए बल्कि उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके वास्तविक कारणों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
5. किशोरों के साथ कार्य व्यवहार करने में शिक्षक या कोच का अपना व्यक्तित्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सच्चरित्रता, समयपालन, सहयोग, सद्भावना, परिश्रम, गम्भीरता, हार-जीत में सन्तुलित प्रतिक्रिया आदि गुणों द्वारा कोच अपने खिलाड़ियों और विद्यार्थियों में वांछित खेल-भावना को विकसित कर सकता है। कोच का व्यक्तित्व खिलाड़ियों के लिए अनुसरणीय होनी चाहिए।
6. किशोरावस्था में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शारीरिक क्रियाएँ आयोजित की जानी चाहिए क्योंकि दोनों की शारीरिक और मानसिक आवश्यकताएँ अलग-अलग होती है।
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