परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत से आप क्या समझते हैं ? परम्परागत राजनीतिक सिद्धांतों में व्यवहारवादी क्रांति के आने से पहले प्रचलित विचार-सामग्री. विचारधा
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत से आप क्या समझते हैं ?
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांतों में व्यवहारवादी क्रांति के आने से पहले प्रचलित विचार-सामग्री. विचारधाराओं एवं राजनीतिक विचारों का विश्लेषण एवं राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन को शामिल किया जाता है।
परम्परागत स्वरूप में सिद्धांत, विचार, दृष्टिकोण, विचारधारा, परिप्रेक्ष्य, उपागम आदि सभी परस्पर पर्यायवाची बन जाते हैं। इनमें दार्शनिक, ऐतिहासिक, नैतिक, संस्थापक, तुलनात्मक पद्धतियों तथा अन्य विषयगत दृष्टिकोणों, जैसे, समाजशास्त्रीय, मनोविज्ञानात्मक, अर्थशास्त्रीय आदि को महत्वपूर्ण माना जाता है। राज्य, राज्य की प्रकृति तथा उसका आधार, सरकार, कानून, नैतिकता, प्राकृतिक विधि, राजनैतिक संस्थायें आदि परम्परागत राजशास्त्र प्रिय विषय रहे हैं। उनके लक्ष्य, विषय, अध्ययन-पद्धतियाँ आदि वर्तमान राजविज्ञान से भिन्न रही हैं।
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत की प्रवृत्ति - परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत' अपने प्रतिपादक के व्यक्तित्व एवं दृष्टिकोण से प्रभावित रहे हैं। प्लेटो से लेकर काण्ट, एक्विना और हीगल तक राजनीतिक 'सिद्धांतों' को सदैव आचार-शास्त्र (ethics) या दर्शनशास्त्र (philosophy) के एक अंश के रूप में प्रतिपादित किया गया है। उस समय के राजनीतिक विचारक अपने आपको किसी न किसी रूप में तात्कालिक राजनैतिक समस्याओं का स्थायी एवं शाश्वत समाधान प्रस्तुत करने के लिये प्रतिबद्ध मानते थे। उन्होंने मानव जीवन और समाज के लक्ष्यों और मूल्यों की ओर अपना ध्यान लगाया। चाहे वह यूनानी विचारकों की तरह नैतिक जीवन की उपलब्धि का विचार हो अथवा मध्ययगीन क्रिश्चियन सन्त-राजवेत्ताओं का ईश्वरीय राज्य स्थापित करने का, या आदर्शवादियों द्वारा प्रतिपादित विवेक (Reason) के साक्षात्कार का। उनके विचार व्यक्तिगत दृष्टिकोण, चिन्तन, कल्पना अथवा अध्यात्मवादी सिद्धांतों से निसृत हुए हैं। शाश्वत एवं उच्चस्तरीय तत्वों से सम्बद्ध होने के कारण उनकी चिन्तन-प्रणाली तार्किक और निगमनात्मक (deductive) है।
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र के अत्यन्त विस्तृत होने के कारण परम्परागत राजनीतिक विचारकों को किसी भी विशेष विषय से जोडने में उनके वर्गीकरण की कठिनाई उत्पन्न होती है। आधुनिक शब्दावली में उनमें चिन्तन क्षेत्र को अधि-अनुशासनात्मक माना जा सकता है। प्लेटो, अरस्तू, रूसो एवं मार्क्स आदि प्रमुख विचारक लगभग सभी सामाजिक विषयों एव विज्ञानों में अपना महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किए हए हैं। उनके विषय में विभिन्न विषयों, निजी विशिष्टता, स्वायत्तता एवं पृथकत्व ग्रहण नहीं किया था। यह विषय-क्षेत्र सम्बन्धी अस्पष्टता परम्परागत राजसिद्धांत में हमें मिलती है।
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