राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य धाराएँ एवं परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए। राजनीतिक सिद्धांत से सम्बन्धित कैटलीन के विचारों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। कैटलिन
राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य धाराएँ एवं परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए।
- राजनीतिक सिद्धांत से सम्बन्धित कैटलीन के विचारों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- कैटलिन एवं लासवैल की आधुनिक राजनीति सिद्धांत की अवधारणा का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
- आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत में कैटलिन एवं लासवेल की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
कैटलिन के विचार
राजनीति विज्ञान की सबसे कठिन एवं सबसे सरल धारणाओं में से एक 'राजनीतिज्ञ सिद्धांत' है। सरल शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति सिद्धांत का निर्माण करता है तथा उसके आधार पर कार्य करता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति वस्तुओं, प्राणियों, समूहों, घटनाओं आदि को अपनी दृष्टि से देखता है तथा उसके विषय में कुछ धारणाएँ, निष्कर्ष, नियम आदि बना लेता है। दो-चार बार अवलोकन करने के बाद ये धारणाएँ, निष्कर्ष आदि पक्के होते जाते हैं। फिर वह उनका लम्बे समय तक अवलोकन करना बन्द कर देता है। उनको देखते ही वह अपनी पूर्वधारणाओं. निष्कर्षों आदि को अनुमान से उन पर लागू कर देता है। वह स्वयं उसी के अनुरूप व्यवहार करता है। विद्यार्थी अपने अध्यापक, उम्मीदवार अपने मतदाता या विरोधी और अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी के विषय में इसी प्रकार व्यवहार करता है। समस्त मानव-समाज ऐसे सामान्य अनुमानों एवं निष्कषों के आधार पर कार्य करता है। सरकार बजट और कानून का निर्माण अथवा श्रमिक अपने प्रबन्धकों के साथ सहयोग या विरोध ऐसे अनुमानों के आधार पर ही करता है। यह अनुमानीकरण ही सिद्धांत-निर्माण है। इन अनमानों में कभी-कभी गलती भी हो जाती है। उस अवस्था में पुनः उन वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं आदि को सूक्ष्म रूप से देखा जाता है तथा अपने अनुमानों या धारणाओं में संशोधन कर लिया जाता है। अनुमानीकरण में वस्तुओं या व्यक्तियों के व्यवहार तथा धारणाओं में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। इस सम्बन्ध के पक्के तौर पर सिद्ध हो जाने के बाद व्यक्ति उनके व्यवहार के विषय में भविष्यकथन भी कर सकता है। उक्त सम्बन्ध के बदलते रहने पर व्यक्ति को अपनी धारणाओं में भी फेर-बदल करना पड़ता है। यदि कोई पड़ोसी जो पहले लड़ाकू था, लेकिन बाद में शान्तिप्रिय हो जाय, तो हमें भी उसके साथ अपने व्यवहार में परिवर्तन करना पड़ेगा। निरन्तर अवलोकन के पश्चात्, अन्त में प्राप्त या 'सिद्ध' परिणाम अथवा निष्कर्ष को 'सिद्धांत' कहते हैं। सारी मानव-जाति इसी प्रकार अनुमानीकरण, निष्कर्षीकरण अथवा सिद्धान्तीकरण करती रहती है। उससे समय, श्रम तथा धन का अपव्यय बचता है। आवश्यकता इस बात की रहती है कि अवलोकन अधिक से अधिक शुद्ध हो, तथा तथ्यों की प्रकृति के साथ निष्कर्ष या सिद्धांत भी बदलते रहें। यदि नौकरशाही सेवा करने के बजाय शासन करने लग जाये तो उसे 'अधीनस्थ' मानना बेकार है।
काइडन ने 'सिद्धांत' को सभ्य मानव-जाति की प्रगति का आवश्यक उपकरण माना है। वह यथार्थ का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व (symbolic representation of the real) करता है। इसे बौद्धिक आशुलिपि (shorthand) कहा गया है, जिसके द्वारा शीघ्र एवं प्रभावपूर्ण ढंग से विचार-विनिमय किया जा सकता है। एक बार अवलोकन से प्राप्त निष्कर्षों को, सिद्धांत के रूप में प्राप्त करने के पश्चात् दुबारा सीखने की आवश्यकता नहीं रहती। मीहान के मतानुसार, सिद्धांत, मूल रूप से एक विचारात्मक उपकरण (Intellectual tool) है, जिससे राजनैतिक जीवन के तथ्यों को सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध किया जाता है। इसके द्वारा पृथक दिखने वाली प्रेक्षणीय घटनाएँ एक साथ लायी एवं सुव्यवस्थित ढंग से परस्पर सम्बद्ध कर दी जाती हैं।
कार्ल पापर ने सिद्धांत को एक प्रकार का जाल (net) बताया है जिससे 'जगत' को पकड़ा जाता है, ताकि उसको समझा जा सके। उसके अनुसार, सिद्धांत, 'एक अनुभवपरक व्यवस्था के (mode) प्ररूप की अपने मन की आँख पर बनायी गई रचना है।'
वास्तव में सिद्धांत शब्द के अनेक अर्थ हैं। कोहन के अनुसार, 'यह शब्द एक खाली चैक के समान है, जिसका सम्भावित मूल्य उसके उपयोगकर्ता एवं उसके उपयोग पर निर्भर है।' इसकी उत्पत्ति ग्रीक शब्द 'थ्योरिया' (theoria) से हुई है। जिसका अर्थ, 'समझने की दृष्टि से, चिन्तन की अवस्था में प्राप्त किसी सुकेन्द्रित मानसिक दृष्टि से है, जो कि उस वस्तु के अस्तित्व एवं कारणों को प्रकट करती है।'
आर्नल्ड ब्रैश्ट (Arnold Brecht) के अनुसार वह एक ऐसी प्रस्तावना या प्रस्तावनाओं का सेट है, जो विषय-सामग्री (data) के सन्दर्भ में, प्रत्यक्षतः प्रेक्षित या अप्रेक्षित या प्रगट नहीं होने वाले केवल वर्णन या प्रस्ताव या लक्ष्यों का प्रस्तुतीकरण, भविष्यकथन या मूल्यांकन सिद्धांत नहीं कहलाता। सिद्धांत व्याख्या से सम्बद्ध होता है।
मोरिस डुवर्जर के मतानुसार, सिद्धांत, ‘अवलोकन' प्रयोग और तुलना के परिणामों को एकरस बनाता है तथा घटनाओं के समूह के अन्तर्गत समझी और पहचानी जाने वाली सामग्री को सम्बद्ध और समन्वित ढंग से अभिव्यक्त करता है। उसमें शोध के परिणाम तथा भावी शोध का कार्यक्रम रहता है।।
डहल ने इसे 'चरों के सेट में वर्तमान अन्तःसम्बन्धों का सामान्यीकृत कथन' माना है। ब्लुम उसे 'अन्तःसम्बन्धित व्याख्यात्मक प्रस्तावनाओं की व्यवस्था' कहता है। क्वीन्टन की दष्टि से. सिद्धांत 'विभिन्न संश्लिष्ट रीतियों तथा तार्किक ढंग से परस्पर सम्बन्धित विवरणों की व्यवस्था या समुच्चय होते हैं।' पोलस्बी ने, वैज्ञानिक सिद्धांत को, ‘सामान्यीकरणों के निगमनात्मक जाल के रूप में, जिससे ज्ञात घटनाओं के कतिपय प्रकारों की व्याख्या अथवा पूर्वकथन किया जा सकता हो,' कहा है। ईजाक के शब्दों में, राजसिद्धांत 'सामान्यीकरणों का समुच्चय (set) होता है, जिसमें हमारे द्वारा प्रत्यक्षतः परिचित तथा परिचालनात्मक रूप से परिभाषित अवधारणाएँ (concepts) होती हैं। उनके अलावा, उसमें और भी अधिक महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक अवधारणाएँ, जो यद्यपि पर्यवेक्षण से प्रत्यक्षतः सम्बन्धित नहीं होतीं, किन्तु इन अवधारणाओं से तार्किक रूप में जुड़ी हुई होती है, पायी जाती हैं। हैम्पल के शब्दों में वैज्ञानिक सिद्धांत में, 'टिविहीन, निगमनात्मक रूप से विकसित व्यवस्था तथा व्याख्या होती है, जो इसके शब्दों और वाक्यों को आनुभविक अर्थ प्रदान करते हैं।' गिटर एवं मैनहीम ने उसे एक ऐसा अवधारणात्मक उपकरण (conceptual apparatus) बताया है जो किसी अनुभव के क्षेत्र में व्याख्या एवं पूर्वकथन करना सम्भव बनाता है।
वस्तुतः सिद्धांत ज्ञान के ऐसे निकाय को कहते हैं जो यथार्थ विषयक तथ्यों से प्राप्त किया जाता है, तथा उन्हें वह अर्थ और महत्व प्रदान करता है। जिसे अन्यथा वे प्राप्त नहीं करते।
नोवुर्ड हैन्सन के अनुसार, यह 'प्रेक्षित सामग्री के विषय में बद्धिगम्य, व्यवस्थित तथा अवधारणात्मक प्रतिमान होता है।' यह एक विश्लेषणात्मक युक्ति है जिसकी सहायता से तथ्यों की व्याख्या तथा उनके विषय में पूर्वकथन किया जा सकता है। इसमें परस्पर सम्बद्ध नियमों का समूहीकरण होता है।
संक्षेप में, सिद्धांत सामान्यीकरणों या व्याख्यात्मक नियमों का सुगठित सेट होता है, जो ज्ञान के किसी क्षेत्र की व्याख्या करने में सक्षम हो। उसमें नवीन प्राक्कल्पनाएँ, व्याख्याएँ तथा नियमों की सृजन-शक्ति होती है। वह उपलब्ध व्याख्याओं तथा नियमों का एकीकरण करने की क्षमता रखता है। वैसे तो सिद्धांत अनेक स्तरीय और विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं। किन्तु यहाँ पर 'आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत' से तात्पर्य राजनीतिक क्रियाओं या राजनीतिक व्यवस्था के उस सामान्य सिद्धांत से है, जो उनसे सम्बन्धित समस्त तथ्यों, प्राक्कल्पनाओं, सामान्यीकरणों आदि की व्याख्या करता है। ऐसे सिद्धांत का निर्माण राजनीतिक तथ्यों के वर्णन, वर्गीकरण, प्राक्कल्पना-परीक्षण एवं राजनीतिक व्यवहार के बारे में परिनियमों आदि की स्थापना के द्वारा तथा उन्हें पर्यवेक्षणीय अनुभव एवं वस्तुनिष्ठ आँकड़ों के सन्दर्भ में न्यायसंगत बनाकर किया जाता है।
राजनीतिक सिद्धांत की आधुनिक धारणा की दृष्टि से राजवेत्ताओं को दो वर्गों 'नये' एवं 'पुराने' में रखा गया है। ढाई हजार वर्ष की लम्बी परम्परा के परिणामस्वरूप राजनीति सिद्धांत कई प्रकार के होते हैं। इसके निर्माण में राजाओं, दार्शनिकों, पोपों आदि से लेकर सभी तरह के ऊँचे और नीचे लोगों ने योगदान किया है। यह विषय इतना विविधतापूर्ण और विचित्र दिखाई देता है कि अमरीकी राजवैज्ञानिकों ने राजविज्ञान के सात उपक्षेत्रों में इसे सबसे नीचा स्थान दिया है। वास्तव में देखा जाय तो ज्ञात होगा कि किसी भी समय, कभी भी, कोई एक राजसिद्धांत नहीं रहा। जितने लेखक हैं, उतने ही सिद्धांत दिखाई देते हैं। फिर भी उक्त दो वर्गों में से, 'पुराने' वर्ग में उन लोगों को रखा जाता है जो राजसिद्धांत को चिन्तन, परम्परा, दर्शन विचारवाद आदि का पर्यायवाची मानते हैं। 'नये' अथवा आधुनिक वर्ग में उन लोगों को रखा जाता है जो (क) अनुभववाद को ग्रहण करते हुए, तथा (ख) अपने निजी मूल्यों एवं मानकों को परे रखते हुए सिद्धांत-निर्माण करते हैं। ये लोग अर्थशास्त्रीय अथवा मनोविज्ञानात्मक सिद्धान्तों के समकक्ष राजसिद्धांत में विश्वास करते हैं। मीहान के मतानुसार, राज-विज्ञान में यह 'नये' और 'पुराने' का विभाजन डेविड ईस्टन से शुरू हुआ है। इसके फलस्वरूप आधुनिक राजवैज्ञानिक परम्परागत एवं शास्त्रीय राजसिद्धांत को राजनीति के अध्ययन के लिए बेकार, असंगत और अयुक्त मानते हैं। सिद्धांत जाँचशील, आनुभविक तथा परस्पर संचारणीय होना चाहिए। ब्लाउ के अनुसार, वैज्ञानिक सिद्धांत अन्तर्सम्बन्धित व्याख्याकारी प्रस्तावनाओं की व्यवस्था होती है। ..
आधुनिक राजसिद्धान्तियों में भी सबके विचार एक से नहीं हैं। इनके विचारों का (i) मूल्यों (Values) के स्थान, (ii) विषय-सामग्री की व्यापकता, (iii) अनुभवपरकता, तथा (iv) सिद्धांत-निर्माण में सफलता आदि दृष्टियों से विश्लेषण किया जा सकता है। राजनीतिक सिद्धांत की अवधारणा विभिन्न विचारकों के अनुसार अलग-अलग है। कोई इसे परम्परागत रूप देकर विचारों के इतिहास का पर्यायवाची मानता है, तो कोई इसे केवल तथ्यों पर आधारित वर्णन मात्र बताता है, जिसमें मूल्यों का कोई स्थान नहीं है। कुछ राजवैज्ञानिक इसको इतना अधिक व्यापक बना देते हैं कि राजदर्शन, राजविज्ञान आदि सभी उसके अंग बनकर रह जाते हैं। अन्य विचारक उसे विशद्ध वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान कर देने के पक्ष में हैं। कुछ विद्वान मूल्यों को प्रधानता देते हैं। सिद्धांत के अर्थ-बोध हेतु इन विचारों का संक्षिप्त विवेचन आवश्यक है।
कैटलीन का व्यापक दृष्टिकोण
कैटलीन के अनुसार राजनीति सिद्धांत में मूल्य निर्धारण एवं सामान्य बोध (Comman Sense) दोनों शामिल होते हैं। वह 'राजनीति' को दो भागों व्यवहार (Practice) तथा सिद्धांत (Theory) में बांटता है। वह राजनीतिक सिद्धांत को पुनः दो भागों (1) राजनीति विज्ञान तथा (2) राजनीतिक दर्शन में बांटता है। प्रथम भाग में 'नियन्त्रण के तथ्य या घटना' का अध्ययन होता है जिसकी अध्ययन-इकाई नियन्त्रण भी क्रिया अथवा 'नियन्त्रण-संकल्प' है। इसका परिमाणन (quantification) भी किया जा सकता है। राजदर्शन में मूल्य सम्बन्धी औचित्य-प्रतिपादन, अभिप्रेरणा, निर्देशन, विरोध, परिवर्तन आदि तत्वों पर विचार किया जाता है। वह मार्गेन्थो (Morgenthau) के इस विचार से सहमत नहीं है कि समस्त राजसिद्धांत राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत समाहित हो जाता है। उसके अनुसार, साधनों के अध्ययन के रूप में राजनीति विज्ञान तथा साध्यों के रूप में राजनीति-दर्शन दोनों राजनीतिक सिद्धांत में आ जाने चाहिए। राजनीतिक व्यवहार और उसके विश्लेषण में साध्य और साधनों को अलग नहीं किया जा सकता, इसलिए कैटलीन के ऐसे पृथक्करण को स्वीकार नहीं किया गया।
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