Hindi Essay on “Bharat ki Samajik Samasya”, “भारत की सामाजिक समस्या पर निबंध”, for Class 6, 7, 8, 9, and 10 and Board Examinations.

Hindi Essay on “Bharat ki Samajik Samasya”, “भारत की सामाजिक समस्या पर निबंध” भारत एक मिली-जुली संस्कृति वाला प्राचीनतम देश है। इसका सामाजिक ढाँचा अपने-आप में अनेक प्रकार की विविधताओं का संगम है। इसके कारण यहाँ का समाज आरम्भ से ही अनेक प्रकार की समस्याओं का अखाड़ा बना रहा, आज भी बना हुआ है। भारतीय समाज को जिन समस्याओं से दो-चार होना पड़ता आ रहा है,उनका ब्योरा संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है- धार्मिक-साम्प्रदायिक समस्याओं से घिरकर भारतीय समाज को चिरकाल से जीना पड़ता आ रहा है। यहाँ के बुनियादी धर्मों के साथ-साथ बाद में भी अनेक धार्मिक सम्प्रदाय आकार पाते रहे और बाहरी धर्म-सम्प्रदाय भी यहाँ आकर रहते रहे। सभी प्रकार के धार्मिक सम्प्रदायों में आरम्भ से ही अपनी श्रेष्ठता और दूसरों की हीनता सिद्ध करने के लिए खूनी संघर्ष तक होते आये हैं।

Hindi Essay on “Bharat ki Samajik Samasya”, “भारत की सामाजिक समस्या पर निबंध”

भारत एक मिली-जुली संस्कृति वाला प्राचीनतम देश है। इसका सामाजिक ढाँचा अपने-आप में अनेक प्रकार की विविधताओं का संगम है। अत्यन्त प्राचीनकाल से यहाँ अनेक धर्मो, सम्प्रदायों, जातियों, वर्गो, मत-मतान्तरों वाले लोग रहते आ रहे हैं। यहाँ की मूल वर्ण-व्यवस्था भी अपने-आप में एक प्रकार की विविधता लिये हुए है। वैदिक काल में यहाँ का व्यक्ति केवल छोटे-बड़े या अच्छे-बुरे कर्मों के कारण पहचाना जाता था, जाति आदि के कारण नहीं। इसी बात ने देव-दानव जैसी प्रकल्पना को जन्म और आधार दिया। अच्छे कर्म करने वाले देव और बुरे कर्म करने वाले तब दानव या राक्षस कहे जाते थे। पर बाद में स्थिति, सामर्थ्य और कर्म के आधार पर भारतीय समाज को वर्ण-व्यवस्था के जंजाल में बुरी तरह से जकड़ दिया गया। इस जकड़न के कारण यहाँ का समाज आरम्भ से ही अनेक प्रकार की समस्याओं का अखाड़ा बना रहा, आज भी बना हुआ है।

वर्ण-व्यवस्था के अतिरिक्त बाहर से भी अनेक प्रकार के लोग यहाँ आते रहे। बहुत सारे तो यहाँ के समाज में घुल-मिलकर एक के हो गये। कुछ ने अपनी अलग पहचान भी बनाये रखी। समस्याओं की जनक ये स्थितियाँ और सन्दर्भ भी हैं। इस प्रकार आरम्भ से ही भारतीय समाज को जिन समस्याओं से दो-चार होना पड़ता आ रहा है,उनका ब्योरा संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-

धार्मिक-साम्प्रदायिक समस्याओं से घिरकर भारतीय समाज को चिरकाल से जीना पड़ता आ रहा है। यहाँ के बुनियादी धर्मों के साथ-साथ बाद में भी अनेक धार्मिक सम्प्रदाय आकार पाते रहे और बाहरी धर्म-सम्प्रदाय भी यहाँ आकर रहते रहे। सभी प्रकार के धार्मिक सम्प्रदायों में आरम्भ से ही अपनी श्रेष्ठता और दूसरों की हीनता सिद्ध करने के लिए खूनी संघर्ष तक होते आये हैं। आज भी हो रहे हैं। चाहकर भी इस समस्या का हम लोग उचित समाधान नहीं खोज पा रहे; आधुनिक मानवतावादी जनतंत्री दृष्टि से भी नहीं!

ऊंच-नीच और छुआ-छूत के भेद-भावों की दूसरी सामाजिक समस्या से भी भारतीयसमाज उस समय से ही प्रस्त चला आ रहा है, जब यह देश वर्ण-व्यवस्था के कठोर शिकंजे में आया। जब तक तो मानव भाग्य और भगवानवादी रहा, तब तक इस प्रकार के भेद-भाव-जन्य शोषण और अपमान को सहता रहा। पर जब से किसी भी कारण से उसमें मनुष्यत्व का सहज भाव जागा, उसे सहज मानवत्व को अहसास कराया गया, तब से हमारा समाज कट्टरपन्थियों के रवैये के कारण इस प्रकार की समस्या से अनवरत पीड़ित होता आरहा है। इस प्रकार की भेद-भावजन्य समस्याओं से भारतीय-बल्कि मानव-समाज को छुटकारा दिलाने के लिए समय-समय पर बुद्ध. जैन तीर्थंकर, कबीर, नानक,गाँधी जैसे अनेक महापुरुष प्रयत्न करते रहे हैं। आज भी कानूनी और कानून-रहित प्रयास हो रहे हैं, परन्तु परिणाम गायब है। समय-समय पर यह समस्या आज भी अपनी विषमता का रंग दिखाती रहती है।

आधुनिक भारतीय समाज में बाल-विवाह, सती-प्रथा, अनमेल विवाह जैसी समस्याएँ यद्यपि पहले की तरह आम तो नहीं रह गयीं: फिर भी अभी तक हम इनसे पूरी तरह छुटकारा नहीं पा सके। समय-समय पर ऐसी लोमहर्षक घटनाएँ सुनने को मिलती रहती है जब अबोध बच्चों के विवाह कर दिये गये हों, कोई युवती पति के साथ सती हो गयी हो या फिर आर्थिक विषमता या अन्य किसी कारण से किसी सुन्दर युवती को अनमेल विवाह का शिकार होना पड़ा हो। इसी प्रकार पशु-बलि के समान धार्मिक अन्ध-विश्वासी लागो द्वारा मनुष्यों की बलि की घटनाएं भी कभी-कभी हम लोग पढ़ते-सुनते रहते हैं। ये सभी समस्याएँ अत्यन्त प्राचीन काल से इस देश में चली आ रही हैं। अधकचरी और भटकी हुई मानसिकता के कारण अभी तक पूर्णतया इनसे छुटकारा सम्भव नहीं हो सका।

आज जो हमारी अत्यन्त घातक सामाजिक समस्या है, वह है दहेज की कुप्रथा, जो एक संक्रामक कोढ़ की तरह पूरे समाज को बुरी तरह अपने चंगूल में जकड़ती जा रही है। इसकी बुराई से सभी भली प्रकार परिचित हैं, निन्दा भी सभी करते हैं और समय पड़ने पर दहेज के लेन-देन से चूकते भी नहीं। यों दहेज के लेन-देन का प्रचलन भी प्राचीन है। एक विषम सामाजिक अभिशाप, कोढ़ एवं समस्या के रूप में इस कुप्रथा का विकास विगत दो दशकों में ही हुआ है। इसकी कुरूपता और दुष्परिणाम आज अपने चरम स्तर पर पहुँच चुके हैं। कानून और आलोचना-प्रत्यालोचना, दण्ड-व्यवस्था कोई भी तो इस कुसमस्या का समाधान नहीं बन पा रही। समाधान एक ही है। वह यह कि नवयुवक वर्ग-विशेषकर पुरुष वर्ग आगे बढ़कर बड़े-बूढ़ों को स्पष्ट कह दें कि वे लोग भाड़ में जायें। वह न तो दहेज लेने देगा और न देने ही देगा। इस दृढ़ निश्चयात्मक कदम के सिवाय अन्य कोई भी उपाय इस कलंक-कोढ़ को मिटा नहीं सकता, यह पत्थर की लकीर है।

इसी प्रकार दिखावा और प्रदर्शन की प्रवृत्ति, इस कारण की जाने वाली अनावश्यक फैशनपरस्ती भी निश्चय ही सामाजिक समस्या है। सादगी अपनाकर ही इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। आम लोगों में शिक्षा का अभाव और उसके प्रति उत्साहहीनता को भी एक व्यापक सामाजिक समस्या रेखांकित किया जा सकता है। शिक्षा के प्रति उत्साह पैदा करके इस समस्या पर सहज ही पार पाया जा सकता है। आज के वैज्ञानिक युग में को भी हमारा जीवन और समाज अनेक प्रकार की कुरीतियों, कुप्रथाओं से ग्रस्त है। एक ओर तो हम अपने-आपको अधिकाधिक आधुनिक दिखाने का प्रयत्न करते हैं, दूसरी और कुप्रथाओंऔर रूढ़ियों को भी निभाते चलना चाहते हैं। दोहरी मानसिकता के इस रूप का समाधान वास्तविकताओं और बदलते मूल्यों के प्रति आग्रह रखकर ही हो सकता है।

वर्गवाद, जातिवाद, प्रान्तीयता, अलगाववाद, भाई-भतीजावाद, बेकारी, महँगाई आदि ऐसीअनेक समस्याएँ हैं, जिनसे आज का भारतीय समाज बुरी तरह से पिस रहा है। इन सबपर तो अलग-अलग काफी चर्चा होती रहती है और हो भी सकती है!

प्रश्न उठता है कि तो क्या है इन सबका समाधान? वह शायद किसी के भी पासअभी तक सुलभ नहीं है। भ्रष्टाचार की व्यापक समस्या से कौन परिचित नहीं 2 चोर-बाज़ारी,काला धन्धा, अनैतिकता और व्यभिचार, रिश्वतखोरी और स्मगलिंग आदि कौन-सी विकराल समस्या से हमारा समाज आज दो-चार नहीं हो रहा? गिनाते जाइये, क्रम और संख्या बढ़ते हो जायेंगे। चारों तरफ अभाव-अभियोगों का साम्राज्य है। कोई किसी से प्रसन्न नहीं। सभी को सभी से शिकायत है। युवा वर्ग बेकारी और अन्धकारपूर्ण भविष्य की कल्पना से अलग पीड़ित हो रहा है। बने-बनाये घर-परिवार अहं और आर्थिक विषमताओं का शिकार होकर रोज-रोज़ टूट रहे हैं। प्रगति और विकास की सभी उपलब्धियाँ व्यर्थ हुई जा रही हैं। गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है। वर्ग-विभेद अपनी उपता के साथ उभर रहा है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आज भारतीय समाज के सामने सबसे उम्र और बड़ी समस्या है- मूल्यहीनता और राष्ट्रीय चरित्नरहीनता का। जब तक समाज में नैतिक-आर्थिक मल्यों की पुनर्रचना और स्थापना नहीं होती, राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण नहीं होता, हमें यों ही लड़खड़ाते हुए पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवन का बोझा ढोते चलना होगा।

सो कहा जा सकता है कि विश्व मानव-समाज के सामने जो मूल्यहीनताजन्य समस्याएँहै, वही भारतीय समाज के सामने भा है। हा, यहा उनका रूप अधिक उप एवं व्यापक है।सारे विश्व के समान कोई उचित समाधान यहाँ भी दिखायी नहीं पड़ रहा। भगवान हीमालिक है बस!
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