सूरज का सातवाँ घोड़ा : सूरज का सातवां घोड़ा धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया एक उपन्यास है जो कि तीन कहानियों का संग्रह है। मित्रों इस लेख म...
सूरज का सातवाँ घोड़ा : सूरज का सातवां घोड़ा धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया एक उपन्यास है जो कि तीन कहानियों का संग्रह है। मित्रों इस लेख में सूरज का सातवां घोड़ा का सारांश तथा प्रतिपाद्य प्रकाशित किया जा रहा है। Read below Suraj ka Satvan Ghoda Summary in Hindi
सूरज का सातवाँ घोड़ा सारांश - Suraj ka Satvan Ghoda Summary in Hindi
डॉ. धर्मवीर भारती द्वारा रचित लघु उपन्यास 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' में तीन कहानियाँ हैं- एक जमुना की, दूसरी लिली की, और तीसरी सत्ती की। ये तीनों ही कहानियाँ माणिक मुल्ला के शब्दों में ‘प्रेम कहानियाँ' हैं जिन्हें माणिक मुल्ला ने छः दोपहरों में अपने मित्रों को सुनाया है।
पहली कहानी का शीर्षक 'नमक की अदायगी था। सुनने में यह शीर्षक प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा' से मिलता-जुलता भले ही लगता हो परंतु विषय की दृष्टि से वह उससे नितांत भिन्न थी। माणिक मुल्ला के घर के पास एक कोठी थी जिसमें एक लड़की रहती थी- जमुना। वह स्वभाव से अत्यंत चंचल और हँसमुख थी। वह और माणिक बचपन से एक साथ बड़े हुए, खेले-कूदे थे। माणिक उसे जमुनिया कह कर चिढ़ाते और जमुना जब-तब उनके कान उमेठ कर और चुटकी काट कर उन्हें परेशान करती की। धीरे-धीरे जमुना बड़ी होती गयी। उसे सस्ती प्रेम कहानियाँ और सिनेमा के गीतों को पढ़ने का शौक था और ये दोनों ही आवश्यकताएँ पूरा करने का दायित्व माणिक का था। जमुना के पड़ोस में ही महेसर दलाल रहते थे जिनके बेटे तन्ना से जमुना की अच्छी मित्रता थी। उनके विवाह की बात भी चली परंतु दोनों एक ही बिरादरी के होने के बावजूद विवाद-बंधन में न बँध सके क्योंकि तन्ना का गोत्र जमुना की अपेक्षा कुछ नीचे था, और जमुना की माँ बेटी को आजीवन घर में रखने को तैयार थी परंतु नीचे गोत्र वाले परिवार से संबंध बनाने को नहीं। जमुना के पिता बैंक में साधारण क्लर्क थे, बेटी के दहेज के लिए पैसा खर्च करने की हैसियत नहीं थी इसलिए कहीं उसकी शादी तय नहीं कर सके। तन्ना के प्रति उसके मन में लगाव था और विवाह की बातचीत टूट जाने से उसका दिल भी टूट गया था। उसकी स्कूल की पढ़ाई छूट चुकी थी। पर उसे जब भी अवसर मिलता वह माणिक को दबोच लेती। माणिक को अच्छा भी लगता और इससे परेशानी भी होती। इधर मुहल्ले में कथा-कीर्तन की लहर चली। माणिक की भाभी ने सुबह-शाम गाय को रोटी खिलाने का नियम बनाया। रात को गाय को रोटी खिलाने की जिम्मेदारी माणिक की थी और गाय जमुना के अहाते में थी। वहाँ रोज जमुना उनसे मिलती, उनसे बातें करना चाहती, माणिक के लिए बेसन के नमकीन पुए लेकर आती। अपने मन का दुःख माणिक के समक्ष प्रकट करती। उसी बातचीत में उसने बताया कि उसने तो अपनी माँ को मना लिया था, परंतु महेसर दलाल के सम्मुख तन्ना डर जाता है इसलिए यह संबंध न हो सका। जमुना ने माणिक से वचन लिया कि वह प्रति रात इसी प्रकार उससे मिलने आया करेगा क्योंकि उसने जमुना का नमक खाया है और जो नमक का कर्ज अदा नहीं करता उसे पाप लगता है। माणिक को उसकी बात माननी पड़ी। Read also : सूरज का सातवाँ घोड़ा के पात्रों का चरित्र चित्रण
दूसरी दोपहर की कहानी भी जमुना से ही संबंधित है जिसका नाम है- 'घोड़े की नाल' । इस कहानी में जमुना के विवाह और वैवाहिक जीवन के प्रसंग हैं। जब दहेज के अभाव में उच्च गोत्र के किसी युवक से जमुना का विवाह नहीं हो पाया तो उसकी माँ ने पूजा-पाठ का सहारा लिया और पिता दहेज जुटाने की चिंता में बैंक में ओवरटाइम करने लगे। मी दूर की एक रिश्तेदार रामो बीवी आई और जमुना से अपने भतीजे के विवाह का प्रस्ताव रखा जिसके दो पत्नियाँ पहले हीमर चुकी थीं, परंतु खानदान नामी था, घर में धन-संपत्ति बहुत थी। माता-पिता इस विवाह के लिए तैयार हो गये और जुम्मा को भी रोते धोते उस ‘तेहाजू' बूढ़े से विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद जब वह मायके आई तो बहुत खुश लग रही थी जेवरों से लदी थी। बूढ़ा पति उसकी खुशामद करते नहीं थकता था। तभी पता लगा कि पिता के बैंक के हिसाब में एक सौ स्ताइस रूपये तेरह आने की गड़बड़ है। यदि तुरंत पैसा जमा न किया तो जेल जाना पड़ सकता है। जमुना ने पास में रूपये से हुए भी न होने का बहाना किया और अगले ही दिन ससुराल वापिस चली गयी। काफी समय तक जमुना के कोई संतान न हुई तो व्रत-अनुष्ठान का सहारा लिया। गंगा नहा कर चंडीदेवी पर फूल चढ़ाये और ब्राह्मणों को दान किया। अपनी अवस्थ और बीमारी के कारण पति साथ नहीं जा सकते, सो तांगेवाले की सहायता ली। तांगे वाले ने एक और उपाय सुझाया कि जिस घोड़े के माथे पर सफेद तिलक हो, उसके बायें पैर की घिसी हुई नाल की अंगूठी चंद्रग्रहण के समय पहननेसे मनोकामना पूरी होती है। घोड़ा अपना ही था, नाल बना ली और चंद्रग्रहण दो-तीन दिन बाद ही था सो तांगेवाला रामधनसुबह पूजा के बहाने जमुना को तांगे में ले जाता और नाल घिसने के लिए लंबा चक्कर लगाता। नाल घिस गयी, उसकी अंगूठी बनवा क पहनी गयी। शीध्र ही जमुना ने एक पुत्र को जन्म दिया। परंतु शीघ्र ही उसके पति चल बसे। कुछ दिन रोने-धोने के बाद जमुना ने अपना घर-बार सँभाला और कोठी में ही एक कोठरी रामधन को भी दे दी। एक बार माणिक को रामधन मिला तो उसके ठाठ-बाट देख कर चकित रह गया। स्पष्ट था कि जमुना के पति की मृत्यु के बाद अब सारी संपत्ति रामधन की थी।
तीसरी दोपहर' में तन्ना की कहानी है - वही तन्ना जिसका ज़िक्र जमुना के प्रसंग में हो चुका है। इस कहानी का लेखक ने कोई शीर्षक नहीं दिया। परंतु कहानी आरंभ करने से पूर्व गर्मी की दोपहर की उमस का वर्णन किया है जो तन्ना के जीवन में व्याप्त उमस की भूमिका है। तन्ना की माँ उसके बचपन में ही चल बसी थी। उसके तीन बहनें थीं। जिनमें मँझली बहन के पैर बचपन में ही खराब हो गये थे। पिता महेसर दलाल रंगीन मिजाज और गुस्सैल थे। पत्नी की मृत्यु के बाद किसी सुशील कन्या से विवाह करना चाहते थे पर हो न सका। अतः बच्चों के पालन-पोषण के बहाने एक औरत को घर में ले आये। उसने आते ही सारे घर को अपने नियंत्रण में ले लिया। बड़ी बहन घर का काम करती, छोटी बहन बाजार का। तन्ना स्कूल जाने से पहले और आने के बाद भोजन बनाने के लिए लकड़ी चीरते, फर्श धोते या पानी लाते। वह औरत जिसे बच्चे ‘बुआ' कहते साज-शृंगार में व्यस्त रहती। बच्चों के खाने-पीने की चिंता उसे नहीं थी। वह उन्हें ताने और गालियाँ देती, उनकी शिकायत महेसर दलाल से करती और बदले में तन्ना को अपने पिता से गालियाँ और मार खानी पड़ती। जमुना के परिवार को तन्ना से सहानुभूति थी। पूजा-पाठ के क्रम में वह प्रायः उन्हें भोजन कराती। परंतु 'बुआ' का आदेश था कि वे पूड़ियाँ वचा कर घर ले आएँ। इसी प्रकार तन्ना और जमुना के बीच पहले सहानुभूति फिर अनुराग बढ़ा। परंतु जैसा कि पहले भी कहा गया दोनों का विवाह न हो सका। तन्ना ने जमुना के घर घर-जमाई बनने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। जमुना का विवाह बूढ़े धनिक से हुआ और तन्ना का विवाह एक धनी की बेटी से । धर महेसर दलाल का भी देहांत हो गया। पिता ने उन्हें रेलवे में नौकरी दिला दी थी। घर की जिम्मेदारियाँ और खर्चों को पूरा करने में तन्ना सक्षम नहीं थे। पत्नी घर छोड़ कर चली गयी। इन सब परिस्थितियों से जझते तन्ना बीमार रहने लगा। इस बीमारी में डयूटी करते हए वह चलती रेलगाडी से गिर पडे। उनके दोनों पाँव कट गये थे।
चौथी दोपहर की कहानी ‘मालवा की युवरानी देवसेना' अर्थात् लिली की कहानी है। यह लिली वही लड़की है जिसका विवाह तन्ना से हुआ था। लिली और माणिक परस्पर प्रेम करते थे। किसी और से विवाह करने और माणिक से बिछुड़ने की कल्पना मात्र से लिली व्याकुल थी। माणिक ने उसे समझाने का यत्न किया कि प्रेम प्रेमास्पद को पूर्णता देता है, प्रकाश और बल देता है, किसी को बाँधता नहीं, मोहाविष्ट नहीं करता। लिली और माणिक का प्रेम भी ऐसा ही पवित्र है अतः उसे व्याकुल होने, रोने की आवश्यकता नहीं, स्वयं को सँभाल कर परिस्थितियों को स्वीकार करने की आवश्यकता है। उसकी सहेली कम्मो ने अपनी व्यावहारिक बुद्धि से उसे समझाने का प्रयत्न किया कि हमारे समाज में सभी लड़कियाँ व्याह कर ससुराल जाती हैं। लिली के साथ यह कोई नयी बात नहीं है इसलिए उसका उदास होना या रोना व्यर्थ है। फिर दोनों सहेलियाँ घूमने गयीं। अमरूदों, हरी धास, बीर बहूटियों के बीच घूमती रहीं। माणिक और कम्मों के समझाने और प्रकृति के सान्निध्य से उसमें ताजगी आई और उसने खुशी-खशी नये विवाह-संबंध को स्वीकार कर लिया। जैसे जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कंदगुप्त' में देवसेना ने चिर विरह को स्वीकार किया था वैसे ही लिली ने भी चिर विरह को अंगीकार किया।
‘पाँचवी दोपहर' की कहानी का शीर्षक है ‘काले बेंट का चाकू'। इसमें सत्ती नाम की लड़की की कहानी है। माणिक मुल्ला आरंभ में ही यह स्पष्ट कर देते हैं कि सत्ती की यह कहानी पिछली दोनों कहानिय नायिकाओं से भिन्न हैं- “लेकिन वह बिल्कुल दूसरी धातु की थी, जमुना से भी अलग और लिली से भी अलग। बड़ी विचित्र है उसकी कहानी भी----- ।' सत्ती का परिचय माणिक मुल्ला ने तेज -तर्रार किंतु सहज स्वभाव वाली लड़की के रूप में दिया है जो अपनी चाल-ढाल, बातों और स्वभाव से किसी को भी आकृष्ट कर लेती थी। परंतु उसकी प्रतिष्ठा आत्मसम्मानी लड़की के रूप में थी जो कमर में बँधे काले बेंट के चाकू से किसी भी कुदृष्टि का सामना कर सकती थी। वह चमन ठाकुर नाम के एक व्यक्ति के साथ रहती थी जिसे वह चाचा कहती थी। चमन ठाकुर पलटन में भर्ती हो कर बलूचिस्तान गया था। जहाँ तीन-चार वर्ष की अनाथ लड़की उसे मिली थी। चमन ठाकुर का एक हाथ कट गया था और उसे पेंशन मिलती थी। सत्ती साबुन बनाने, काटने और बेचने का काम कर अपना और चाचा का पेट पालती थी। माणिक से सत्ती की भेंट-ग्राहकों के हिसाब-किताब जोड़ने के सिलसिले में हुई थी। दोनों के बीच मित्रता हुई। सत्ती माणिक पर भरोसा करने लगे। माणिक भी उसके प्रति आकर्षण और अनुराग अनुभव करने लगे। सत्ती का व्यक्तित्व उन्हें नया उत्साह देने लगा। सत्ती माणिक को पढाई में मन लगाने को कहती जिसमें उन्हें 'बडे लाट के दफ्तर में नौकरी' मिल सके। कुछ दिनों से माणिक सत्ती के व्यवहार में कटुता, तिक्तता और चिड़चिड़ापन अनुभव कर रहे थे। पता लगा कि चमन ठाकुर सत्ती के सौंदर्य और युवावास्था का लाभ उठाना चाहते हैं। माणिक के बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के समाचार से वह उल्लसित थी और उन्हें आगे पढ़ने के लिए सहायता देने को तैयार थी। उसने माणिक को बताया कि महेसर दलाल सोने के पानी चढ़े नकली गहने और रूपये चमन ठाकुर को देकर सत्ती को खरीदना और विवाह करना चाहता है और सत्ती को इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। उसने माणिक को भी वहाँ आने से मना किया। उसने बताया कि उसे माणिक और अपने चाकू-दोनों पर पूरा भरोसा है। माणिक के भाई-भाभी को जब यह सब ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने ऊँचे खानदान और अपने स्नेह का वास्ता देकर समझाया कि इन छोटे लोगों को मुँह नहीं लगाना चाहिए। माणिक की समझ में बात आ गयी। सत्ती ने कई बार उनसे मिलने का प्रयत्न किया पर वे नहीं मिले । माणिक आगे पढ़ना चाहते थे और भाई-भाभी की इच्छा थी कि वे अब नौकरी करें। इसी विषय पर हुई चख-चख से परेशान होकर माणिक किसी बाग में जाकर बैठ गये। तभी सत्ती ने वहाँ आकर बताया कि महेसर दलाल ने चमन ठाकुर को पाँच सौ रूपये देकर उसे खरीद लिया है। परंतु माणिक ने न कोई सहानुभूति दिखाई, न कोई रास्ता सुझाया और न ही किसी सहायता का आश्वासन दिया। फिर एक बार जब वह उन्हीं के भरोसे अपना चाकू, गहने और रूपये लेकर आ गयी तो माणिक ने उसकी सहायता करना तो दूर, उसे तब तक रोके रखा जब तक कि चमन ठाकुर और महेसर दलाल न आ गये। अगली सुबह चमन ठाकुर और सत्ती दोनों गायब थे। लोगों का कहना था कि चमन ठाकुर और महेसर ने मिल कर उसका गला घोंट दिया।
छठी दोपहर में कोई कहानी नहीं है, सत्ती की कहानी और उसकी मृत्यु की प्रतिक्रिया है। लेखक का कहना है कि सत्ती की मृत्यु से माणिक इतने प्रभावित हुए कि उनकी रचनाओं में मृत्यु की प्रतिध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगीं। भाभी-भाई के तबादले के कारण बाहर चले जाने पर अकेले घर में उन्हें डर लगता था। वे स्वयं को सत्ती की मृत्यु के लिए उत्तरदायी मानने लगे थे। उन्हें सुनसान पीपल की छाँव, उजाड़ कब्रगाह, पुराने मरघट, टीले आदि अच्छे लगने लगे। उनका समय चायघरों में बीतने लगा। स्वास्थ्य गिर गया। स्वभाव असामाजिक और उच्छृखल हो गया। सुख-दुःख, शत्रु-मित्र से उदासीन हो अंतर्मुखी हो गये। जीवन के किसी भी प्रश्न से अधिक महत्त्वपूर्ण उनके लिए प्रेम था। अपने अतिरिक्त अन्य सभी को अत्यंत साधारण और हीन मानने लगे। अहंकार बढ़ने लगा। इस मानसिकता की ऊब से बचने के लिए तीखे वचन बोलते और चौंकाने वाले काम करते। एक दिन किसी चायघर से निकलते हुए उन्होंने एक नये भिखारी को देखा। लकड़ी की एक गाड़ी में हाथ कटा चमन ठाकुर था। उस गाड़ी को खींचती सत्ती भीख माँग रही थी। उसकी गोद में भिनकता-सा बच्चा था। माणिक को देखते ही वह चौंक गयी। कमर से चाकू निकालना चाहा, पर वह न था। क्रोध और घृणा से उसे देखती हुई वह वहाँ से चली गयी। सत्ती को जीवित पा और यह देखकर कि वह ‘वाल बच्चों सहित प्रसन्न है' माणिक की निराशा दूर हो गयी। तन्ना की मृत्यु से जो जगह रेलवे में खाली हुई थी वह नौकरी उसे मिल गयी, और वह सुख से जीवन व्यतीत करने लगे।
सातवीं दोपहर में कोई नयी कहानी नहीं है बल्कि उस सभी कहानियों का निष्कर्ष है। इन सभी कहानियाँ को प्रेम कहानियाँ भले ही कहा गया है, परंतु ये सब प्रेम कहानियाँ न होकर निम्न मध्यवर्ग की जीवन गाथाएँ हैं। इस वर्ग के जीवन में इतने संघर्ष, इतनी कटुता, इतनी लाचारी और इतने समझौते हैं परंतु इतने घने अंधेरे के बीच कहीं एक झिलमिलाती रोशनी भी है जो आगे बढ़ने, लक्ष्य को प्राप्त करने, विघ्न-बाधाओं से लड़ने और व्यवस्था को बदलने का साहस प्रदान करती है। यह साहस, उत्साह और आशा ही सूरज का सातवाँ घोड़ा हैं। सूर्य के रथ के सात घोड़ों में से छः घोड़े तो इन परिस्थितियों में क्षत-विक्षत हो गये हैं, रथ को आगे खींचने में अक्षम हैं। यह सातवाँ घोड़ा ही भविष्य का घोड़ा है, जमुना, लिली और सत्ती के बच्चों को ये घोड़ा जीवन के इस रथ को सुखद भविष्य की ओर ले जाएगा।
सूरज का सातवां घोड़ा का कथा विन्यास
'सूरज का सातवाँ घोड़ा' की समस्त कथा सात खंडों में विन्यस्त है। गर्मी की दोपहर में माणिक मुल्ला के घर उनके दोस्तों का जमघट होता है और माणिक मुल्ला अपने दोस्तों को हर दोपहर एक कहानी सुनाते हैं। माणिक मुल्ला के शब्दों में ये प्रेम कहानियाँ हैं जिनमें अधिकांश लोगों की रुचि रहती है। देखने-सुनने में ये कहानियाँ प्रेम कहानियाँ मन-बहलाव का साधन लगें परंतु वास्तव में ये हमारे समाज के निम्न मध्यवर्ग की तस्वीरें हैं। उनकी जीवन-स्थितियाँ, उनकी आकांक्षाएँ, उनके साधन और उनकी विवशताएँ- सभी इन कहानियों के माध्यम से व्यक्त हुई हैं। ‘सात दोपहर' अथवा सात अध्यायों में विन्यस्त इन कलामों से पूर्व उपोद्घात' है जिसमें कथा के सूत्रधार माणिक मुल्ला का परिचय है। कहानी की टैकनीक और राजनीति, समाज, मनोविज्ञान आदि के विषय में उनकी समझ के संकेत भी इसी ‘उपोद्घात' में है। इसी समझ के दर्शन उनकी कहानियों के विषय और उनके प्रस्तुतीकरण में होते हैं। प्रत्येक अध्याय के बाद एक 'अनध्याय' है जिसमें पिछली कही गयी कहानी के संबंध में लेखकीय प्रतिक्रियाएँ हैं यद्यपि उसका माध्यम माणिक के दोस्तों को बनाया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में कई कहानियाँ हैं। माणिक और जमुना की, जमुना और तन्ना की, जमुना और रामधन की, माणिक और लिली की, तन्ना और लिली की, तथा माणिक और सत्ती की। यद्यपि ये कहानियाँ अलग-अलग रूप से अलग-अलग बैठकों में सुनाई गयी हैं परंतु इनके तार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। माणिक मुल्ला की उपस्थिति इन सभी कहानियों में किसी न किसी रूप में है-कहीं तो वह इन कहानियों का एक महत्त्वपूर्ण पात्र है, और कहीं वह अन्य पात्रों के क्रिया-कलापों का दृष्टा है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये कभी माणिक की 'आपबीती' हैं और कभी 'जग बीती' । शिल्प इनका ऐसा है कि पुरानी नानी-दादी की कहानियों की स्मृति ताज़ा हो जाती है- बच्चों का जमावड़ा है और कोई बूढ़ा-बुजुर्ग कहानी सुना रहा है। कहानी समाप्त होती है तो अगले दिन फिर दूसरी कहानी की फरमाइश। एक कहानी से दूसरी कहानी वैसे ही जड़ी है जैसे 'पंचतंत्र' या 'हितोपदेश' आदि में। संस्कृत की कथा-आख्यान की परंपरा का प्रभाव इस पर दिखाई देता है। अज्ञेय जी ने प्रस्तुत उपन्यास की भूमिका में इसकी इन विशेषताओं को रेखांकित किया है- “सबसे पहली बात है उसका गठन। बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की- बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं- अलफ़-लैला वाला ढंग, पंचतंत्र वाला ढंग, बोकेच्छियो वाला ढंग, जिसमें रोज़ किस्सागोई की मजलिस जुटती है, फिर कहानी में से कहानी निकलती है।"
सूरज का सातवाँ घोड़ा का प्रतिपाद्य
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। साहित्य की सभी विधाएँ - विशेषतः कथा साहित्य- प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करती हैं। डॉ. धर्मवीर भारती ने भी ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा' में विभिन्न कहानियों के माध्यम से भारत के निम्न मध्यवर्गीय समाज के विभिन्न चित्र पाठकों के सम्मुख रखे हैं।
1. भारतीय समाज में जाति और दहेज ये दो प्रथाएँ ऐसी हैं जो विवाह-संबंधों की प्रमुख नियामक रही हैं। जमुना और तन्ना की कथाओं के माध्यम से लेखक ने इन्हीं समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। जमुना और तन्ना परस्पर प्रेम करते हैं। परंतु दोनों का विवाह इसलिए नहीं हो पाता क्यों कि तन्ना का गोत्र जमुना के गोत्र की अपेक्षा छोटा है। जमुना के पिता बैंक के एक साधारण से क्लर्क हैं। उनकी नौकरी से घर के खर्चे पूरे हो जाएँ यही काफी है। लड़के वालों की मांग पूरी करने के लिए लंबा चौडा दहेज जुटाने की सामर्थ्य उनमें नहीं। अतः अपनी जाति और अपने गोत्र में भी जमुना का विवाह नहीं हो पाता। जाति, गोत्र, दहेज की यह समस्या इतनी विकराल है कि जमुना जैसी लड़कियों को बूढ़े वर से व्याहने के लिए बाध्य होना पड़ता है । तन्ना और लिली का विवाह होने के पीछे जाति और गोत्र तो हैं ही, लिली की माँ की धन-संपत्ति भी उसका कारण है जिस पर तन्ना के पिता महेसर दलाल की नजर है न तो जमना का वैवाहिक जीवन सुखमय हो पाता है, न ही तन्ना का। तन्ना और लिली के शिक्षा तथा मानसिक स्तर और आर्थिक स्तर में बहुत अंतर है जिस कारण दोनों के बीच ताल-मेल नहीं हो पाता, और जमुना तथा उसके पति की आयु में बहुत अंतर है जिससे जमुना को अल्पायु में ही वैधव्य का दुःख उठाना पड़ जाता है। यदि समाज के ये बंधन न होते तो इनकी कहानी कुछ और ही होती। सत्ती भी यदि उच्च कुल की होती तो शायद माणिक और सत्ती के संबंध को माणिक के भाई-भाभी स्वीकार कर पाते और सत्ती को चमन ठाकुर और महेसर दलाल के अत्याचार सहन न करने पड़ते
2. भारती जी ने प्रस्तुत उपन्यास के माध्यम से भारतीय समाज में स्त्रियों की उपेक्षापूर्ण स्थिति की ओर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। हमारे मध्यमवर्गीय समाज में आज भी लड़कियों की निजी इच्छा-अनिच्छा का प्रायः कोई अर्थ नहीं है। कम से कम विवाह के संबंध में तो उनसे बात करने की भी कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती। जमुना और लिली-दोनों को ही अपनी इच्छाएँ मार कर विवाह के लिए तैयार होना पड़ता है। सत्ती के चरित्र की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका स्वाभिमान है। चमन ठाकुर और महेसर दलाल का वह यथासंभव विरोध करती है, माणिक की सहायता लेने का प्रयत्न करती है परंतु उसका विरोध और प्रयत्न दोनों निष्फल सिद्ध होते हैं और उसके पास भी बूढ़े महेसर के साथ जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं बचता।
3. उपन्यासकार ने माणिक मुल्ला के माध्यम से हमारे बुद्धिजीवियों की मानसिकता पर प्रकाश डाला है। जो अशिक्षित हैं, उनकी संकीर्ण मनोवृत्ति अशिक्षा का परिणाम मानी जा सकती है। परंतु माणिक मुल्ला जैसे समझदार और शिक्षित लोगों का क्या करें जो बातें बड़ी-बड़ी और क्रांतिकारिता की करते हैं परंतु कोई भी साहसिक कदम उठाने से डरते हैं। इसीलिए माणिक जमुना के अनमेल विवाह के मूकदर्शक बने रहते हैं लिली से प्रेम करने के बावजूद उसे तन्ना से विवाह के लिए सहमत होने की प्रेरित करते हैं। सत्ती के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी उसकी कोई सहायता नहीं करता बल्कि उसके साथ विश्वासघात कर उसे चमन ठाकुर और महेसर दलाल को सौंप देता है। सत्ती की मृत्यु के समाचार से वह श्मशानों और निर्जन एकांत में रह कर या चाय धरों में समय व्यतीत कर अपने अपराध बोध का नाटक करता है। अपाहिज चमन ठाकुर और भिनकते बच्चे को गोद में लेकर भीख माँगती सत्ती को देख कर उसका यह कृत्रिम अपराध बोध भी गायब हो जाता है।
4. आलोच्य रचना में बीच-बीच में उन मार्क्सवादियों पर भी व्यंग्य किया गया है जो मार्क्सवाद की मूल भावनासर्वजन हित- को नहीं समझते और सैद्धांतिक बहसों में अपने को उलझाये रखते हैं। अपने देश के समाज की आवश्यकताओं, परंपराओं, संस्कारों को समझे बिना पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को थोपते रहते हैं। दूसरों के तर्क सुनने का उनमें धैर्य नहीं होता और अपनी बात मनवाने के प्रति वे आग्रही रहते हैं। उदाहरण के लिए जमुना की कहानी सुनने के वाद का यह निष्कर्ष ऐसे ही हो सकता है जो जमुना की पीड़ा के मूल सामाजिक कारणों को समझने की बजाय अपने बने-बनाये सिद्धांतों के आधार पर निष्कर्ष निकालता है- “देखिए, असल में इसकी व्याख्या इस तरह हो सकती है। जमुना प्रतीक है, मध्यवर्ग (माणिक मुल्ला) तथा सामंतवर्ग (जमींदार) उसका उद्धार करने में असफल रहे अंत में श्रमिक वर्ग (रामधन) ने उसको नयी दिशा सुझायी।" इससे यह समझना गलत होगा कि लेखक मार्क्सवाद के विरुद्ध है। वह मार्क्स की मूल भावना का समर्थन करता है, हाँ समस्याओं के रूप, कारण और समाधान हर समाज में भिन्न हो सकते हैं इस बात को समझना चाहिए। साथ ही पूर्वाग्रहों और मातग्रहों से भी ऊपर उठने की आवश्यकता है। इस बात को भारती ने उपन्यास के आरंभ में निवेदन' में स्पष्ट कर दिया है- “पिछले तीन-चार वर्षों में मार्क्सवाद के अध्ययन से मझे जितनी शांति, जितना बल और जितनी आशा मिली है, हिंदी की मार्क्सवादी समीक्षा और चिंता से उतनी ही निराशा और असंतोष। अपने समाज. अपनी जन-संस्कति और उसकी परंपराओं से वे नितांत अनभिज्ञ रहे हैं। अतः उनके निष्कर्ष ऐसे ही रहे हैं कि उन पर या तो रोया जा सकता है या दिल खोल कर हँसा जा सकता है फिर उसकी कमियों की ओर इशारा करने पर वे खीज उठते हैं, वह और भी हास्यास्पद और दयनीय हैं।"
5. उपन्यासकार की यह स्पष्ट मान्यता है कि रचना का सामाजिक उद्देश्य अवश्य होना चाहिए-“जो कुछ लिखता हूँ उसमें सामाजिक उद्देश्य अवश्य है पर वह स्वांत सुखाय भी है। यह अवश्य है कि मेरे ‘स्व' में आप सभी सम्मिलित हैं, आप सभी का सुख दुःख, वेदना-उल्लास मेरा अपना है.............” कहानी की अंतर्वस्तु के संबंध में माणिक मुल्ला का यह प्रश्न कि यह ठीक है कि प्रेम जीवन में महत्त्वपूर्ण है परन्तु अन्य अनेक ऐसे विषय हैं जो प्रेम के बराबर या उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और कहानियों के विषय बन सकते हैं, भी इसी सामाजिक सोद्देश्यता पर ही बल देता है.......“मेरी दूसरी शंका कथावस्तु की प्रेम संबंधी अनिवार्यता के विषय में थी।.......सैर-सपाटा, खोज, शिकार, व्यायाम, मोटर चलाना रोजी-रोज़गार, ताँगेवाले रूक्केवाले और पत्रों के संपादक, सैकड़ों विषय हैं जिन पर कहानियाँ लिखी जा सकती हैं, फिर आखिर प्रेम पर ही क्यों लिखी जाएँ? 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' में भी सभी कहानियों का मुख्य विषय प्रेम ही है परंतु वास्तव में लेखक ने उनके माध्यम से हमारे मध्यवर्गीय समाज की संरचना, रूढ़ियाँ, अंधविश्वास, मानसिकता इत्यादि की पड़ताल का प्रयत्न किया है। अज्ञेय जी के शब्दों में “वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचना है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।"
सूरज का सातवाँ घोड़ा का उद्देश्य
'सूरज का सातवाँ घोड़ा' की सभी कहानियों का अवसान निराशा में होता है। जमुना का तन्ना से विवाह नहीं हो पाता, उस के बढे पति का देहांत हो जाता है, तांगेवाला रामधन उसकी इस स्थिति का लाभ उठा लेता है। इधर तन्ना और लिली का वैवाहिक जीवन सुखपूर्ण नहीं रह पाता, लिली अपने बच्चे के साथ उसे छोड़ कर चली जाती है। तन्ना की मृत्यु हो जाती है. स्वाभिमानिनी सत्ती का साथ माणिक छोड़ देता है. उसे महेसर दलाल के हाथों बिकना और बाद में भीख माँगने को मजबूर होना पड़ता है। क्या लेखक का उद्देश्य समाज में फैले अंधकार को ही चित्रित करना रहा है? वास्तविकता यह नहीं है। लेखक की आस्था भविष्य के प्रति है। वर्तमान परिस्थितियाँ चाहे जितनी अंधकारमय, निराशापूर्ण हों, पर आगामी संतति से प्रकाश की आशा की जा सकती है-“अब बचा है सिर्फ एक घोड़ा जिसके पंख अब भी साबुत हैं, जो सीना ताने, गरदन उठाये आगे चल रहा है। वह घोड़ा है भविष्य का घोड़ा, तन्ना, जमुना और सत्ती के नन्हें निष्पाप बच्चों का घोड़ा, जिनकी जिंदगी हमारी जिंदगी से ज्यादा अमन-चैन की होगी, ज्यादा पवित्रता की होगी, उसमें ज्यादा प्रकाश होगा, ज्यादा अमृत होगा। वही सातवाँ घोड़ा हमारी पलकों में भविष्य के सपने और वर्तमान के नवीन आकलन भेजता है ताकि हम वह रास्ता बना सकें जिन पर होकर भविष्य का घोडा आयेगा. इतिहास के वे नये पन्ने लिख सकें जिन पर अश्वमेध का दिग्विजयी घोड़ा दौड़ेगा।" उपन्यास के शीर्षक में भी लेखक की यही आस्था, भविष्य के प्रति यही विश्वास निहित है।
COMMENTS