भाषा बहता नीर निबंध - कुबेरनाथ राय

भाषा बहता नीर कुबेरनाथ राय द्वारा लिखा गया एक निबंध है, जोकि कबीर दास जी के दोहे संस्कृति कूप जल है भाषा बहता नीर का हिस्सा है। In this ...

भाषा बहता नीर कुबेरनाथ राय द्वारा लिखा गया एक निबंध है, जोकि कबीर दास जी के दोहे संस्कृति कूप जल है भाषा बहता नीर का हिस्सा है। In this article, we are providing Bhasha Behta Neer Summary and Question answers in Hindi. 

    भाषा बहता नीर निबंध का सारांश

     'भाषा बहता नीर' निबंध का शीर्षक कबीर द्वारा कही गई एक काव्यपंक्ति का अर्भाश है। संस्कीरति कूप जल है, पर भाषा बहता नीर। लेखक कुबेरनाथ राय कबीर से सहमत तो है लेकिन दो बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं-एक तो यह कि संस्कृत कूप जल नहीं है क्योंकि उसकी भूमिका भारतीय भाषाओं और साहित्य के संदर्भ में बहुत विस्तृत है, वह समस्त भाषाओं की जननी है उसमें इतनी प्रजनन शक्ति है कि वह कुएँ का जल नहीं हो सकती। कुएँ का जल प्रवहमान नहीं सीमित है। दूसरा ‘भाषा वहता नीर' में 'नीर' को एक व्यापक संदर्भ में देखना होगा। यदि हम ऐसा नहीं करते तो अनेक भ्रमों की सृष्टि हो जाती है।

    संस्कृत की भूमिका विशाल और विस्तृत है क्योंकि वह भाषा रूपी नदी को सनाथ करने वाला पावस मेघ, तुहिन व्योम और हिमवाह है अर्थात् नदी का जीवन हिमवाह के पिघलने से ही संभव है। यदि वर्फ ठोस रूप में रहेगी तो सभी तृषित रहेंगे, और नदी मृत हो जाएगी। इसी प्रकार भाषा रूपी बड़ी नदियों का जल स्रोत संस्कृत रूपी हिमवाह है। संस्कृत के प्राणवान होने के फलस्वरूप भारतीय भाषा और संस्कृति, आचार और विचार आदि का अस्तित्व यूनान, मिस्र, रोम के मिट जाने पर भी बना हुआ है।

    पुनः ‘भाषा बहता नीर है' को व्यापक संदर्भ में देखने के लिये प्रकृति, पशु और पक्षी से संबंधित विभिन्न उपमान दिए गए हैं। जैसे भाषा मरुतप्राण है, खुले मैदान की ताजी हवा है, चिड़ियों का कलरोर (स्वर) पशुओं की हुंकार ओर तामसी गर्जन है। बच्चे की तोतली बोली, माँ का वात्सल्यपूर्ण उच्छवास है आदि। लेखक स्पष्ट करते हैं कि भाषा बहता नीर है तो उसमें किसी भी युग या क्षेत्र विशेष का शब्द समा सकता है जैसे बहते हुए जल में जल का कोई भी रूप उसमें मिलकर समरूप हो जाता है लेकिन उसके लिये तीन शर्ते हैं-अभिव्यक्ति के लिए उस शब्द की आवश्यकता, वाक्य विशेष में यह शब्द खप जाए और थोड़ी कोशिश करने पर उसका अर्थ समझ में आ जाए। सामान्यतः सरल भाषा का प्रयोग हो लेकिन आवश्यकता पड़ने पर तत्सम शब्दों को भी निस्संकोच प्रयोग में लाया जाए क्योंकि लेखक फिल्मकार नहीं-कि हमेशा मनोरंजन का ध्यान रखते हुए चालू शब्दों का प्रयोग करे। वह एक शिक्षक भी है, उसे समाज को नए शब्दों के प्रयोग से नया सिखाना है, जनमानस को समृद्ध करना है। कबीरदास और तुलसीदास जी ने भी अभिव्यक्ति के अनुरूप शब्दों का प्रयोग किया है। अतः निबंधकार का दायित्व भी कठिन है, उसे विषयानुरूप सटीक एवं सार्थक शब्दों का प्रयोग करके पाठकों के मानसिक बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना होता है। साहित्यकार और पाठक के बीच के संबंध में पाठक साहित्यकार की अंगुली पकड़कर चलता है तभी विषय को समझ पाता है।

    राष्ट्रभाषा हिन्दी की भूमिका आज बहुत बड़ी हो गई है क्योंकि आरंभिक काल में जैसे संस्कृत ज्ञान-विज्ञान की भाषा थी वैसे ही आज हिन्दी की स्थिति में भी वही समृद्धि होनी चाहिए थी। वैसे ही विभिन्न विषयों को समझने के लिये हिन्दी में पाठ्य-सामग्री तैयार हो, यह भाषा का वृहत्तर दायित्व है। हिन्दी की आंचलिक बोलियाँ जैसे भोजपुरी, मगही, अवधी, ब्रजभाषा, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, बंगला, असमिया आदि के शब्द उस भाषारूपी नदी के ही अंग है अतःउनका प्रयोग बेहिचक हो। 

    संस्कृत भाषा के समृद्ध होने का रहस्य है उसकी शब्द संपदा। उसमें जितने पर्यायवाची शब्द हैं वे कहीं-न-कहीं जनसामान्य द्वारा अपनाए जाने वाले सामान्य शब्द हैं। संस्कृत में चारों दिशाओं से शब्द ग्रहण किए गए, यही उसकी भूमावृत्ति हैं। लेखक हिन्दी भाषा के लिए भी इसी वृत्ति की आवश्यकता पर बल देता है। 

    भाषा बहता नीर के मुख्य बिन्दु 

    (i) लेखक के अनुसार कवीरदास द्वारा कही गई उक्ति में संस्कृत कूप जल है' यह भ्रामक है। यद्यपि भाषा बहता नीर से वे सहमत हैं। 
    (ii) संस्कृत की भूमिका अत्यंत विस्तृत है। वह भाषा रूपी नदी को जल संपन्न करने वाला ऐसा हिमवाह है जो स्वयं पिघलता है। संस्कृत भाषा में भी शब्दों के अनेक पर्यायवाची इस बात को पुष्ट करते हैं। 
    (iii) 'भाषा बहता नीर' का अर्थ सतही या हल्का न होकर गंभीर है। इसमें सब प्रकार के शब्दों को समाहित करते हुए सुगम, सरल भाषा का रूप बनता है। 
    (iv) अकारण भाषा को दुरूह अर्थात कठिन-जो जनसामान्य की समझ से परे हो- नहीं बनाना चाहिए। 
    (v) साहित्यकार चूँकि शिक्षक भी है इसलिए विषयानुरूप यदि तत्सम-प्रधान शब्दों का प्रयोग करना पड़े तो अनुचित नहीं क्योंकि हमेशा फिल्मकार की तरह चालू शब्दों के प्रयोग से साहित्य का काम नहीं चलता। 
    (vi) आज हिन्दी की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई है क्योंकि उसे भी संस्कृत की भाँति ज्ञान-विज्ञान का वाहक बनना है तभी भारत की राष्ट्रभाषा समृद्ध हो सकेगी। इस दायित्व की पूर्ति के लिए हिन्दी भाषा में भूमावृत्ति-जो संस्कृत की विशेषता है-को समाविष्ट करना होगा। 

    Bhasha Behta Neer Question & Answers

    प्रश्न – “राम-राम के पहर' का आशय स्पष्ट कीजिए।
    उत्तर- भाषा के विभिन्न रूपों का वर्णन करते हुए लेखक ने प्रभातकाल में (सूर्योदय पूर्व) प्रकृति में होने वाली क्रियाओं का उल्लेख किया है। चिड़ियों की चहचहाहट में भाषा का ऐसा रूप मिलता है जो उसी प्रकार पवित्र, सरल एवं सरस है जैसा रात्रि का वह अंतिम प्रहर जो सूर्य का स्वागत करने को तैयार है। संत जन उस काल में ईश्वर का स्मरण करते है अतः वह शुभ प्रहर “राम-राम का पहर है।"

    प्रश्न – भाषा को खुले मैदान की ताजी हवा क्यों कहा गया है?
    उत्तर- हवा के प्रवाह अथवा गति को कोई रोक नहीं सकता और यदि मैदान खुला हो, किसी प्रकार का प्रदूषण न हो, ऐसी हवा की ताज़गी तन और मन दोनों को स्वस्थ करती है। भाषा भी उसी तरह हृदयगत भावों को अभिव्यक्ति का रूप देकर ताज़गी उत्पन्न करती है।

    प्रश्न – भाषा माँ और बच्चे के बीच कैसा संबंध बनाती है ?
    उत्तर- माँ और बच्चे के बीच वात्सल्य की अनुभूति है, अपनी संतान के प्रति मोह का भाव है जिसे उसकी श्वासों की भाषा से समझा जा सकता है अर्थात् उस वात्सल्यपूर्ण भाषा का एक अलग रूप होता है जिसे वही समझता है जिसका हृदय उस माँ जैसा होगा। बच्चा भी अपनी माँ के स्पर्श से परिचित होता है।

    प्रश्न – 'तामसी' शब्द से तमस वृत्ति की प्रधानता व्यंजित होती है। इस आधार पर प्राणियों की वृत्तियों का स्पष्ट कीजिए।
    उत्तर- वृत्तियाँ इस प्रकार हैं
    सात्विक-सत् प्रधान शुद्ध, पवित्र भाव जिसमें किसी का अहित नहीं होता अर्थात् स्वार्थरहित।
    राजसिक-ऐश्वर्यसंपन्न जीवन जीने वाला व्यक्ति जो प्रायः अपने लाभ की बात सोचता है अर्थात् स्व की प्रधानता।
    तामसिक-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये किसी की हिंसा से भी परहेज न होगा। इसमें क्रोध की प्रधानता होती है जो पाप का मूल है।

    प्रश्न – दिए गए शब्दों के अर्थ स्पष्ट कीजिए'मुदितचक्षुसुख', 'शब्दहीनमौन' 
    उत्तर- ‘मुदितक्षुसुख'-नेत्रों में उस आनन्द और सुख का झलकना जो चिर प्रतीक्षित था।
    'शब्दहीनमौन'-जब वाणी रुंध जाती है, शब्द के बिना ही मौन समस्त भावों की अभिव्यक्ति कर देता है।

    प्रश्न – 'सरलता यदि दरिद्रता का पर्याय हो जाए तो हमें मंजूर नहीं-वाक्य को आरंभिक वाक्य मानकर एक अनुच्छ लिखिए।
    उत्तर- संस्कृत भाषा को केन्द्र में रखते हुए लेखक इस बात पर बल देते हैं कि सभी प्रान्तीय भाषाओं के शब्द किसी-न-किसी रूप में संस्कृत के पर्यायवाची शब्द हैं और विभिन्न बोलियों में कतिपय उच्चारण की भिन्नता से प्रयुक्त होते हैं अर्थात् संस्कृत ने सरलता और सहजता से वे सब शब्द अन्य भाषाओं या बोलियों को दिए क्योंकि उसमें 'भूमावृत्ति' का प्राधान्य है। इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि संस्कृत में दरिद्रता है, कि वह हिन्दी की तुलना में प्रयोग के लिये अक्षम है। उदाहरणतः कोई व्यक्ति यदि स्वभाव से ही अपनी वेशभूषा में सरल और सहज है तो इसका यह अर्थ कतई नहीं कि वह दरिद्र है, गरीब है, अक्षम है। निश्चित रूप से यह उसकी संपन्नता और समृद्धि का परिचायक है। अतः भाषा की विशेषताओं में सरलता और समृद्धि दोनों की आवश्यकता है।

    प्रश्न – हिन्दी की भूमिका आज बहुत बड़ी क्यों हो गई है?
    उत्तर- हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार जिस प्रकार बढ़ रहा है उसे देखकर लेखक यह मानते हैं कि उसे वी कार्य करना है जो कभी संस्कृत करती थी और आज अंग्रेजी (चाहे पूर्णतः नहीं) कर रही है। यदि हिन्दी को ज्ञान-विज्ञान के वाहक माध्यम भाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है तो निश्चित रूप से हिन्दी का व्यापक प्रसार होगा। सभी विषयों को समझने-समझाने के लिए अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है। यदि उसके साथ हिन्दी का प्रयोग हो तो जनसाधारण अधिक लाभान्वित होगा और हिन्दी भाषा अधिक संपन्न व उन्नत होगी। हिंदी में कई विषयों की सामग्री के अभाव में अधिकांश लोग ज्ञान प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। अतः आज हिन्दी को विविध विषयों के विश्लेषण की भाषा बनना होगा-वह भी सरल रूप में।

    प्रश्न – 'भाषा बहता नीर' से लेखक का क्या अभिप्राय है ?
    उत्तर- लेखक का अभिप्राय भाषा की प्रवाहमयता से है, विभिन्न व्यवधानों के बावजूद जो नदी के जल की भाँति गतिशील रहती है। नदी में कहीं-कहीं का जल आकर मिश्रित हो जाता है और उसका वेग बढ़ता रहता है उसी प्रकार किसी भी भाषा में जगह-जगह की बोलियों के शब्द मिलकर अपना अर्थ व्यंजित करते जाते हैं। इस प्रकार भाषा संपन्न होती रहती है। यदि उसमें यह क्षमता न हो तो वह भाषा निर्जीव हो जाएगी। लेखक ने 'कडली' शब्द के उदाहरण के माध्यम से इस बात को स्पष्ट किया है। केले के लिये संस्कृत शब्द 'कदली' है और उड़िया भाषा की सामान्य बोली का शब्द काँ के लोगों के उच्चारण के फलस्वरूप 'कडली' हो गया। अतः इस प्रवहमान भाषा में समस्त शब्द मिलकर ऐसे हो जाते हैं जैसे बहता हुआ जल।

    प्रश्न - भाषा की तुलना किस 'उपमान' से की गई है ? उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
    उत्तर- भाषा मरुतप्राण है अर्थात् जिस प्रकार सृष्टि की संरचना में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश-ये पंचतत्त्व हैं, सभी समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। वायु को जीव के लिये प्राणतत्व रूप माना गया है। लेखक भाषा को मानव के हृदयगत भावों को अभिव्यक्ति का रूप देने के लिये वायु अथवा प्राणतत्त्व मानते हैं। सभी प्राणी अभिव्यक्ति के लिये व्याकुल रहते हैं अतः भाषा उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण है जिस प्रकार शरीर को जीवित रखने के लिए वायु-जो प्राणतत्व है।

    आशय स्पष्ट कीजिए।
    “संदर्भ बदल देने से किसी भी बात का स्वाद और प्रहार भिन्न हो सकता है।"
    आशय-सामान्यतः प्रत्येक बात किसी-न-किसी संदर्भ से जुड़ी रहती है। यदि उसी संदर्भ में कथन का अर्थ लिया जाए तो पाठक अथवा श्रोता उससे उत्पन्न होने वाले आनन्द अथवा हास्य-व्यंग्य आदि से प्रभावित होता है लेकिन स्थिति विपरीत होते ही प्रभाव भिन्न हो जाता है। इस लेख में कबीर द्वारा कही गई पंक्ति को उद्धृत करते हुए लेखक ने उपर्युक्त बात कही है। यद्यपि उन्होंने स्पष्ट किया कि वे कबीरदास से सहमत तो हैं कि भाषा सरल, सहज, प्रवाहमयी होनी चाहिए किन्तु उसके पूर्वार्द्ध- संस्कृत कूप जल है' को वे भिन्न अर्थ में देखे जाने की ओर भी संकेत करते हैं। कबीर के युग अर्थात् भक्तिकाल के संदर्भ में यह बात सही है क्योंकि जन-जन तक अपने भावों को पहुँचाने के लिए उन्हें भाषा अर्थात् लोक-प्रचलित हिंदी भाषा ही अपेक्षित थी। जनसामान्य संस्कृत के ज्ञान से दूर था अतः यह उचित है। किन्तु यदि यह माना जाए कि संस्कृत से हिन्दी का कोई संबंध नहीं तो निश्चित रूप से इस बात में आपत्ति होगी। संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है तो वह कूप जल कैसे हो सकती है?

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