भारतीय संस्कृति में वृक्षों का महत्व पर निबंध। Bhartiya Sanskriti mein Vrikshon ka Sthan
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में वृक्षों में देवताओं का स्थान दिया गया है। वृक्षों की पूजा की जाती थी और उनके साथ मनुष्यों की भाँति आत्मीयता बरती जाती थी। उनके सुख-दुःख का ध्यान रखा जाता था। वर्षा में जलवर्षण के आघात से, शिशिर में तुषारपात और ग्रीष्म में सूर्यातप से वृक्षों उसी प्रकार बचाया जाता था जिस प्रकार माता-पिता अपने बच्चे को बचाते हैं। देवता की भाँति पीपल के वृक्ष की पूजा-अर्चना होती है, स्त्रियाँ व्रत रखकर उसकी परिक्रमा करती हैं और जलार्पण करती हैं। केले के वृक्ष का पूजन भी शास्त्रों में उल्लिखित है। तुलसी के पौधे की पूजा उतना ही महत्त्व रखती थी जितना कि भगवदाराधन। बेल के वृक्ष के पत्तों की इतनी महिमा थी। कि वे भगवान शिव के मस्तक पर चढ़ाये जाते हैं। “सर्वरोगहरो निम्ब:" कहकर नीम के वृक्ष को प्रणाम किया जाता था। संध्या के उपराप्त किसी वृक्ष के पत्ते तोड़ना निषेध है और यह कहकर मना कर दिया जाता था कि अब सो रहे हैं। हरे वृक्ष को काटना पाप समझा जाता था। लोग कहा करते थे कि जो हरे वृक्ष को काटता है उसकी संतान मर जाती है, सूखे वृक्ष घरेलू उपयोग के लिए भले ही काट लिये जाते हों। कदम्ब वृक्ष को भगवान् कृष्ण का प्रिय समझकर जनता उसे श्रद्धा से प्रणाम करती थी। अशोक का वृक्ष शुभ और मंगलदायक समझा जाता था। तभी तो माता सीता ने “तरु अशोक मम करहु अशोका” कहकर अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी। यह था भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में हमारी वन सम्पदा का महत्त्व। उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के मध्य तक वृक्ष काटने वाले मनुष्य को अपराधी समझा जाता था और वह दण्डनीय अपराध होता था।
औद्योगीकरण का नवीन वैज्ञानिक यग आया, ये सारी परम्परायें ‘पुराण-पंथी' समझी जाने लगीं। जनसंख्या की वृद्धि से जनता के लिए आवास योग्य भूमि और कृषि योग्य भूमि की खोज शुरू हुई। वृक्षों और वनों को काटा गया। वहाँ आवास बस्तियाँ बसीं, कृषि योग्य भूमि को कृषि के लिए दिया गया। सघन वन-कुँजों का स्थान प्रासादों और फैक्ट्रियों ने ले लिया। वृक्ष, निर्दयता के साथ काट डाले गए। उनसे जो भूमि प्राप्त हुई वह नवीन, नवीन उद्योगों की स्थापना में काम आई। फिर भी यदि बची, तो उसमें जनता के लिए आवास गृह बना दिए गए या फिर कृषि के लिये दे दी गई। जिन वृक्षों की शीतल और सुखद छाया में थका राही विश्राम कर लेता था वहाँ अब फैक्ट्रियाँ हैं, उद्योग संस्थान हैं और आवास गृह हैं।
परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष की जलवायु में नीरसता एवं शुष्कता आ गई। प्राकृतिक सुरम्यता एवं रमणीयता का अभाव मानव हृदय को खटकने लगा । समय पर वर्षा होने में कमी आ गई। भूमिक्षरण प्रारम्भ हो गया। वृक्षों से ऑक्सीजन मिलने में कमी आ गई। वातावरण की अशुद्धि का मानव के स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव पड़ने लगा। ईधन के भाव तेज हो गये और भूमि की उर्वरा शक्ति में कभी आ गई। भारत सरकार ने अन्वेषणों के आधार पर इस तथ्य का अनुभव करते हुए 1950 से वन महोत्सव' की योजना का कार्यक्रम प्रारम्भ किया। नए वृक्ष लगाए जाने लगे। वृक्षारोपण की एक क्रमबद्ध योजना प्रारम्भ हुई। परन्तु आवश्यक सिंचन और देख-रेख के अभाव में वे लगते भी गए और सूखते भी गए और उखड़ते भी गये।
वृक्षों से मानव को अनेक लाभ हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों ने सिद्ध कर दिया है कि सूर्य के प्रकाश में वृक्ष ऑक्सीजन का उत्सर्जन तथा कार्बन-डाई-ऑक्साइड का शोषण करते हैं। जिसके फलस्वरूप वातावरण में इनका संतुलन बना रहता है। इससे वातावरण की शद्धि होती है मानव का स्वास्थ्य सुन्दर होता है, फेफड़ों में शुद्ध वायु जाने से वे विकार ग्रस्त नहीं हो पाते। वृक्षों से तापमान का नियन्त्रण होता है, देश में चलने वाली गर्म और ठण्डी हवाओं से वृक्ष ही मनुष्य की रक्षा करते हैं। वृक्षों से हमें भयानक से भयानक रोगों को दूर करने वाली अमूल्य औषधियाँ प्राप्त होती हैं। वृक्ष हमें ऋतु के अनुकूल स्वास्थ्यप्रद फल प्रदान करते हैं जिनसे हमें आवश्यक विटामिन प्राप्त होते हैं। वृक्षों से हमें श्रेष्ठ खाद भी मिलता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। वृक्षों से जो पत्ते, फल एवं डंठल समय-समय पर टूटकर पृथ्वी पर गिरते रहते हैं वे मिट्टी में सड़ जाने के बाद उत्तम खाद के रूप में प्रयोग किए जा सकते है।
वृक्षों से सबसे बड़ा लाभ यह है कि वे वर्षा कराने में सहायक सिद्ध होते हैं। मानसूनी हवाओं को रोककर वर्षा करना वृक्षों का ही काम है। वृक्षों के अभाव में वर्षा का अभाव हो जाना स्वाभाविक है, वर्षा के अभाव में अधिक अन्नोत्पादन सम्भव नहीं। वृक्ष देश को मरुस्थल होने से बचाते हैं। जिस भूमि पर वृक्ष होते हैं वहाँ भयंकर घनघोर वर्षा में भूमिक्षरण (कटाव) नहीं हो पाता क्योंकि वर्षा का पानी वेग से पृथ्वी पर नहीं आ पाता, उस वेग को वृक्ष स्वयं ही अपने ऊपर वहन कर लेते हैं। वृक्ष युक्त भूमि वर्षा के जल को अपने ही अन्दर रोककर उसे सोख लेती है। घरेलू कामों के लिए ईंधन, गृह-निर्माण के लिये लकड़ी और घर को सजाने के लिए फर्नीचर की लकड़ी भी हमें वृक्षों से ही प्राप्त होती है। ग्रीष्मकाल में वृक्ष ही हमें सुखद छाया प्रदान कर सुख और शान्ति पहुँचाते हैं। अनेक वृक्षों की पत्तियाँ पशुओं के चारे (भोजन) के काम में लाई जाती हैं। ऊंट तो नीम की पत्तियों को बड़े चाव से खाता है। काष्ठ शिल्प के लिए तथा कागज बनाने के लिए वृक्षों से ही हमें कच्चा माल प्राप्त होता है। आँवला, चमेली आदि के तेल भी हों वृक्षों की सहायता से ही मिलते हैं। शीतलता और सुगन्धि विकीर्ण करने वाला गुलाब जल भी हमें गुलाब के फूलों से मिलता है।
इतना ही नहीं वृक्षों से हमें नैतिक शिक्षा भी मिलती है। मनुष्य के निराशाओं से भरे जीवन में आशा और धैर्य की शिक्षा विद्वानों ने वृक्षों से सीखना बताया है। मनुष्य जब यह देखता है कि कटा हुआ वृक्ष भी कुछ दिनों बाद हरा-भरा हो उठता है तो उसकी समस्त निराशायें शान्त होकर धैर्य और साहस भरी आशायें हरी-भरी हो उठती हैं
छिन्नोऽपिरोहति तरु क्षीणोष्युचीयते पुनश्चन्द्रः ।।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न ते विपदा।।
जब इस श्लोक के भाव को चिन्तित व्यक्ति सुन लेता है तो उसके मुख पर मलीनता के स्थान पर मुस्कराहट नर्तन करने लगती है। नैतिक शिक्षा के साथ ही साथ वृक्षों से हमें पर-कल्याण और परोपकार की शिक्षा मिलती है। जिस प्रकार वृक्ष अपने पैदा किए हए फलों को स्वयं नहीं खाते इसी प्रकार पुरुषों की विभूति भी दूसरों के कल्याण के ही लिए होती है।
पिवन्ति नद्यः स्वयमेव नाभ्यः, स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
नादन्ति शस्यै खल वारिवाहाः, परोपकाराय सताम् विभूतयः ।।
अथवा
वृक्ष कबहूँ नहिं फल भखें, नदी न सिंचै नीर।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
अतः यह सिद्ध सत्य है कि वृक्ष किसी भी देश की नैतिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि के मूल स्रोत हैं।
भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी से ही वन नीति लागू है। इस नीति को 1952 में तथा 1988 में संशोधित किया गया जिसके मुख्य आधार वनों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास हैं। संशोधित नीति के लक्ष्य थे—(1) पारिस्थितिकीय संतुलन, (2) प्राकृतिक संपदा का संरक्षण, (3) भूमि के कटाव तथा वनों के क्षरण पर नियन्त्रण, (4) व्यापक वृक्षारोपण, (5) मरुस्थल के प्रसार को रोकना, (6) देश की आवश्यकता के लिए वन उत्पादों में वृद्धि, (7) ग्रामीण और आदिवासी जनता की ईंधन तथा चारे की आवश्यकता की आपूर्ति, (8) वन उत्पादों का उचित दोहन, (9) इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जनता का सहयोग प्राप्त करना।
1950 में केन्द्रीय व मण्डल की स्थापना की गयी "अधिक वक्ष लगाओ आन्दोलन प्रारम्भ किया गया जिसे “वन महोत्सव” का नाम दिया गया। यह प्रत्येक वर्ष पूरे देश में 1 जुलाई से 7 जुलाई तक मनाया जाता है। जिसके लिए सरकार नि:शुल्क अथवा नाम मात्र के मूल्य पर पौधे बाँटती है। सन् 1980 में वन संरक्षण अधिनियम पास किया गया जिसे 1988 में संशोधित किया गया। सन् 2003 में वन संरक्षण नियमन अधिसूचना जारी की गयी। इसके उपरान्त संयुक्त वन प्रबन्ध की अवधारणा प्रारम्भ की गयी। सभी 28 राज्यों ने संयुक्त वन प्रबन्ध प्रस्ताव पारित कर दिया तथा देश भर में 84632 संयुक्त वन प्रबन्धन समितियाँ बनाई गयीं। देश भर में लगभग 73 लाख हैक्टेयर भूमि को इस कार्यक्रम के अन्तर्गत लाया गया है तथा 85 लाख परिवार इस कार्य में संलग्न हैं।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत “समन्वित वन सुरक्षा योजना" सभी राष्ट्रों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों में लागू की गयी है। राष्ट्रीय वनरोपण एवं पारिस्थितिकी विकास मण्डल (N.A.E.B.) को स्थापना सन् 1952 में की गई। इसके सात क्षेत्रीय केन्द्र हैं जो विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों में स्थित हैं। इसके अतिरिक्त बोर्ड के राष्ट्रीय वनारोपण कार्यक्रम के अन्तर्गत 814 वन विकास एजेंसियों का गठन किया गया है। यह निरन्तर चलने वाली योजना है। दसवीं योजना में देश के 25 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षारोपण का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। वन प्रबन्धन को विद्यमान व्यवस्था की समीक्षा हेतु सुझाव देने के लिए मुख्य न्यायाधीश श्री वी० एस० किरणपाल की अध्यक्षता में दिसम्बर 2002 में राष्ट्रीय वन आयोग का गठन किया गया।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि वृक्षारोपण का राष्ट्र की उन्नति के लिए कितना महत्त्व है और किस प्रकार भारत सरकार तथा राज्य सरकारें मिलकर इस कार्य में संलग्न हैं। आशा की जाती है कि निकट भविष्य में ही वृक्षारोपण द्वारा न केवल पर्यावरण प्रदूषण पर काबू पाया जा सकेगा अपितु भूमि संरक्षण तथा आर्थिक क्षेत्र में उन्नति एवं रोजगार के अवसर बढाने में सहायक होगा।
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