महात्मा गांधी : एक प्रवासी भारतीय के सत्याग्रही बनने की यात्रा
9 जनवरी 1915, अरब सागर की शांति-सी लहरों के बीच एक जहाज धीरे-धीरे मुबंई के अपोलो बंदरगाह की ओर बढ़ रहा है, समुद्र के किनारे बड़ी संख्या में लोग जहाज की दिशा में टकटकी बांधे महात्मा, महात्मा के नारे लगा रहे हैं, सत्याग्रही की आवाजें महौल में जब-तब गूंज उठती हैं भीड़ का उत्साह बेकाबू होता जा रहा है, भीड़ के जुनून को देख लग रहा है, कि वे किसी देवदूत का इंतजार कर रहे हैं जो आजादी की कैद कर दी वहा उनके लिये खोल देगा, उन्हें बेडि़यों से आजाद कर देगा। लेकिन दूर जहाज पर लंदन के रास्ते दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौट रहा दुबला-पतला सा वह व्यक्ति चुपचाप खड़ा है, वह देख तो भीड़ की तरफ रहा है, उसकी नजरें भले ही उनकी तरफ हैं लेकिन मन कहीं और भटक रहा है, समुद्र शांत है लेकिन उसके मन में बंवडर उठ रहे हैं, उसके मन में लगातार बीते कम के साथ साथ आने वाले कल को लेकर विचारों का मंथन चल रहा है इन सबके मन में दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के हकों की सफल लड़ाई लड़कर वापस आने वाले सत्याग्रही को लेकर कितनी उम्मीदे हैं, यहां पर अपने देश में आजादी का शंखनाद करने को लेकर इतनी अपेक्षायें, आजादी की खुली हवा में सांस लेने की बैचेनी, इतने सपने, इतनी उम्मीदों को पूरा करने की जिम्मेवारी जनसमूह की बैचेनी लगातार उस व्यक्ति की बैचेनी भी, उनके मन में अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के पन्ने-दर-पन्ने खुलते जा रहे हैं...।
जहाज के डेक पर खड़े उस व्यक्ति की सूनी-सी आंखे नम हो रही हैं। यह व्यक्ति हैं गुजरात के मोहनदास करमचंद गांधी। केवल 24 वर्ष की उम्र में वर्ष 1893 में जो मोहनदास करमचंद गांधी एक प्रवासी भारतीय के रूप मे अपना देश छोड़ सात समंदर पार दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने गया वह 21 वर्ष बाद एक सफल वकील नहीं बल्कि एक महात्मा और सत्याग्रही बन लौटा है, वहीं नस्ली हिंसा के शिकार भारतवंशियों के अधिकारों की अहिंसक सफल लड़ाई लड़ने की गाथायें सुन-सुन कर, उसकेदेश के लोगों ने कितनी ही उम्मीदें लगा रखी हैं। जहाज के डेक पर खड़े इस दुबले-पतले व्यक्ति के मन में स्मृतियों की फिल्म-सी चल रही है।
जहाज पर खड़े महात्मा के मन में दक्षिण अफ्रीका प्रवास का एक-एक लम्हा मानो फिर से जिंदा हो उठा है। कैसा भाग्य चक्र था, जिसने उनके लिये एक अलग रास्ता निश्चित कर रखा था, उनका मन लगातार यादों में भटक रहा है। 1893 में एकाएक दक्षिण अफ्रीका के एक भारतवंशी कारोबारी दादा अब्दुल्ला को अपने संबंधियों से कारोबारी लेन-देन को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ने के लिये गुजराती भाषा जानने वाले वकील की जरूरत पड़ी और किसी ने उन्हें दूर देश गूजरात मे मोहनदास का नाम सुझाया। उन्होंने मोहनदास के दक्षिण अफ्रीका आने की यात्रा की व्यवस्था की और वे एस.एस.सफारी जहाज पर रवाना होकर 24 मई 1893 को डर्बन उतरे जहां सिर्फ वकालत ही नहीं बल्कि इस सदी के महानायक की भूमिका उनका इंतजार कर रही थी। वह समय ऐसा था जब कि वहां गिरमिटिए प्रवासी भारतीयों के साथ नस्लभेद और भेदभाव का मुद्दा गर्म था, रोजी-रोटी की खोज में अपने घरों से हजारों मीलू दूर गये इन भारतीयों की बदहाली की झलक उन्हें जाते ही मिल गयी, वहां जाने के चंद रोज बाद ही उनके मुवक्किल अब्दुल्ला उन्हें मुकदमे की सुनवाई से पहले अदालत दिखाने ले गये, लेकिन अदालत में घुसने से पहले उन्हें उनकी पगड़ी उतार उसे अदालत से बाहर रखने को कहा गया, मोहनदास ने साफ इंकार करते हुए कहा पगड़ी उतारना भारत में अनादर माना जाता है और वे अदालत के दरवाजे से बाहर ही लौट गये। एक स्थानीय अखबार “नटाल एड्वरटाईजर” द्वारा सम्मान को सर्वोपरि मानने वाले इस प्रवासी के आने की खबर फैल गयी। दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों के साथ हो रहे नस्ली भेदभाव के खिलाफ यह बीज था जो बाद में 7 जून 1893 को पीटरमेरिट्ज रेलवे स्टेशन पर फूटा जो अब इतिहास का एक अमिट पन्न बन चुका है। मोहनदास एक मुकदमे के लिये प्रिटोरिया जाने के लिये इस रेलवे स्टेशन से एक रेलगाड़ी पर सवार होने लगे, प्रथम श्रेणी का टिकट होने के बावजूद उन्हें तृतीय श्रेणी के डिब्बे में जाने को कहा गया जब उन्होंने इंकार किया तो उन्हें गाड़ी से बाहर फेंक दिया गया। ठंड से ठिठुरती रात में वे स्टेशन पर इस नस्ली भेदभाव के बारे में सोचते रहे, क्या करें वापस जायें, यहीं रह कर इसका मुकाबला करेंᣛ? आज भी इस स्टेशन पर एक पट्टिका लगी है जिसमें लिखा है- इसी जगह के पास 7 जून 1893 को एम.के. गांधी को रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी के डिब्बे से उतार दिया गया था, इस घटना ने उनकी जीवन धारा मोड़ दी, और नस्ली भेदभाव के खिलाफ उन्होंने लड़ाई छेड़ दी, और यहीं से उनका अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ।
गांधी के मन में एक-क-बाद एक स्मृतियां चल रही थीं। दक्षिण अफ्रीका में उनके भारतीय स्वाभिमान की खबरेंजोरों पर कही-सुनी जा रही थी। एक साल बाद 1894 में आपसी सुलह से उनके मूवक्किल अब्दुल्ला के पक्ष में अदालती फैसला हो गया, गांधी ने भी काम पूरा होने पर स्वदेश लौटने का मन बना लिया, अब्दुल्ला ने जाने से पहले उनके सम्मान में एक विदाई समारोह का आयोजन किया लेकिन उस समारोह में देश की नेशनल असेंबली में पेश किये जाने वाला वह बिल छाया रहा जिसमें भारतीयों को मतदाता सूची से हटाने का प्रावधान था। दावत में मौजूद कुछ भारतवंशियों ने गांधी जी से आग्रह किया कि वह उनकी तरफ से इस फैसले के खिलाफ मुकदमा लड़े। नियति सारे मोड़ एक विशेष दिशा में ले जा रही थी, गांधीजी ने अनुसार यह विदाई भोज एक कार्यकारिणी मीटिंग बन गया, ईश्वर ने दक्षिण अफ्रीका में मेरे जीवन की बुनियाद डाल दी थी और राष्ट्रीय आत्मसम्मान का बिरवा रोप दिया था। रात भर बैठ उन्होंने उस कानून के खिलाफ अपील तैयार की। महीने भर के अंदर लगभग 10,000 भारतवंशियों ने उस अपील पर हस्ताक्षर कर दिये, अपील के बाद वहां के कोलोनिअल सचिव लॉर्ड रिपन ने हालांकि उस समय उस फैसले पर क्रियान्वयन पर अस्थाई तौर पर रोक लगा दी लेकिन 1896 में सरकार ने एक कानून पास करके गैर-यूरोपियन मूल के लोगों के मत देने पर आखिरकार पाबंदी लगा ही दी। गांधी जी को लग गया था कि यहा लड़ाई लंबी होगी, उस रात विदाई भोज में शामिल कुछ लोगों के साथ ‘उन्होंने नटाल इंडियन कांग्रेस’ बनाई जिसने 1893 से 1906 के दौरान सत्याग्रह आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई। भारतवंशियों के हितों को लेकर किये जो रहे संघर्ष, निरंतर 1896 में कुछ समय के लिये गांधी स्वदेश आये और उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों की बदहाली और उनके साथ होने वाले नस्ली भेदभाव के बारे में भाषण दिये। वापसी में अपने परिवार पत्नी कस्तूरबा और दोनों बेटों के साथ वापस लौटने तक गोरी सरकार की दहशत उन्हें लेकर और बढ़ चुकी थी उन्हें बहाना बनाकर जहाज से उतरने नहीं दिया गया। आखिरकार बीस दिन तक उनके जहाज एस.एस. कोर्टलेंड तथा भारत से आये एक अन्य जहाज को समंदर में रोके जाने के बाद उन्हें समुद्र तट पर पैर रखने दिया गया। यह काल खंड और भी अधिक सरगर्मियों से भरा रहा।
17 अक्टूबर 1899 में दक्षिण अफ्रीका के युद्ध के बाद उन्होंने कुछ भारतवंशियों को उनकी असहमति के बावजूद अम्बुलेंस कोर बनाने के लिये मनाया, ताकि सौहार्दपूर्ण ‘इंडियन ओपिनियन’ निकाला जा सके जिसने वहा भारतवंशियों को वाणी दी। गांधीजी ने कहा भी इस प्रकाशन के बिना सत्याग्रह संभव नहीं था। 30 मई 1910 को सत्याग्रहियों के रहने के लिए टॉल्स्टाय फार्म उनके मित्र हरमन कलेन्बश ने सत्याग्रहियों के रहने के लिये दान में दे दिया जहां गांधी जी ने सारा काम स्वयं करना शुरू किया और दूसरों को भी यही करने को कहा। वे सोच रहे थे अपने हाथ से अपना काम स्वयं करने से गौरव पाने का अहसास मुझे यहीं से मिला। एक-के-बाद एक गोरी सरकार के काले कानून आ रहे थे गांधी के नेतृत्व में भारतवंशियों सत्याग्रही कहलाये। वर्ष 1914 में भारत लौटने से पहले गांधीजी ने सत्याग्रहियों को पृथ्वीका संभवत: सबसे शक्तिशाली यंत्र माना और भारत की स्वाधीनता संघर्ष ने यह सिद्ध भी कर दिया। सत्याग्रह के दौरान वर्ष 1908 से 1913 तक उन्हें चार बार जेल भी जाना पड़ा। कस्तूरबा को भी जेल हुई और वहां सात माह 10 दिन की कैद काटनी पड़ी लेकिन इसी सत्याग्रह करते हुए काटते, सत्याग्रहका सिलसिला जारी था। कोयला मजदूरों, गन्ने के खेतों में काम करने वाले कामगारों के गांधी की अगुआई में सत्याग्रह के साथ प्रदर्शन जारी थे। वर्ष 1913 में गांधीजी ने 2000 भारतीय कोयला खान मजदूरों और गन्ने के खेतों में काम कर रहे मजदूरों द्वारा किये जा रहे मार्च का नेतृत्व किया, आखिरकार 30 जून 1914 को गांधी जी व तत्कालीन कोलोनियल सेक्रेटरी जनरल स्मुट्स के बीच एक समझौता हुआ जिसके तहत भारतीयों के खिलाफ लगी शर्तों को कुछ, भारतवंशियों के लिय हालात कुछ बेहतर बनाने के संतोष के साथ गांधीजी ने स्वदेश लौटने का फैसला किया। 9 जनवरी 1914 को दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभवों को संजोये वे अब स्वदेश लैट रहे हैं... यादों मे डूबते-उतरते अब समंदर के साथ मन भी शांत होने लगा हैं, एक उजली-सी राह साफ नजर आने लगी है, एक नया विश्वास चेहरे पर चमकने लगा है... और फिर सत्याग्रह और अहिंसा का सबसे बड़ा सहारातो अब साथ है ही, और साथ है करोड़ो अपनों का भरोसा और आजादी की खुली हवा में सांस लेने की उनकी अदम्य इच्छा। जहाज तट को छू रहा है, अचानक देश में वापस आकर सब कुछ कितना अच्छा लग रहा है।
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