ग्‍लोबल वार्मिंग : कारण प्रभाव उपाय तथा निष्कर्ष

ग्‍लोबल वार्मिंग : कारण प्रभाव उपाय तथा निष्कर्ष : भूमंडलीय तापमान में वृद्धि को ही वैज्ञानिक शब्‍दावली में ‘ग्‍लोबल वार्मिंग’ कहा जाता है। ग्‍लोबल वार्मिंग के लिए मुख्‍यत: कार्बन डाइऑक्‍साइड मीथेन, नाइट्रेस ऑक्‍साइड, क्‍लोरो फ्लोरोकार्बन, हेलोन इत्‍यादि गैसें उत्‍तरदायी हैं। इस गैसों का सान्‍द्रण वायुमंडल में निरंतर बढ़ता जा रहा है। ये गैसें वायुमंडल में ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करती हैं। परिणामस्‍वरूप पृथ्‍वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्‍सर्जन में विकसित देश अग्रणी हैं, जो कि विश्‍व का 2/3 भाग उत्‍सर्जित करते हैं। यूएसए 25 से 30 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्‍सर्जन करता है, जबकि रूस का योगदान 15 प्रतिशत है। विकासशील देशों में चीन अग्रणी है जो लगभग 12 प्रतिशत गैसों को उत्‍सर्जित करता है।

ग्‍लोबल वार्मिंग : कारण प्रभाव उपाय तथा निष्कर्ष

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ग्‍लोबल वार्मिंग का अर्थ : भू-मण्‍डल के निरन्‍तर बढ़ते हुए तापमान को ग्‍लोबल वार्मिंग या वैश्‍विक उष्‍णता कहा जाता है। ग्‍लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख विश्‍वव्‍यापी पर्यावरणीय समस्‍या है। सौर विकीर्ण ऊर्जा का लगभग 51 प्रतिशत भाग लघु तरंगों के रूप में वायुमंडल को पार कर पृथ्‍वी के धरातल पर पहुंचता है। पृथ्‍वी का वायुमंडल लघु तरंग का सौर्यिक विकिरण के लिए पारगम्‍य होता है। अत: सौर विकिरण बिना किसी रुकावट के धरातल पर पहुंचता है लघु तरंगें पृथ्‍वी से टकराकर ऊष्‍मा में परिवर्तित हो जाती हैं यह ऊष्‍मा दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण द्वारा पुन: वायुमंडल में उपस्‍थित कुछ गैसें ऊष्‍मा की दीर्घ तरंगों (पार्थिव विकिरण) को अवशोषित कर लेती हैं तथा ऊष्‍मा की दीर्घ तरंगों को वायुमंडल से बाहर जाने से रोक देती हैं। पार्थिव विकिरण अवरुद्ध में वायुमंडल ग्रीन हाउस के शीशे की भांति काम करता है। शीत एवं शीतोष्‍ण कटिबन्‍धीय क्षेत्रों में निर्मित कांच के घरों में उष्‍णता बनी रहती है क्‍योंकि कांच लघु प्रकाश तरंगों के लिए पारदर्शी तथा दीर्घ ऊष्‍मीय तरंगों के लिए अपारदर्शी होता है। अत: सूर्य से आने वाली लघु प्रकाश तरंगें कांच को पार कर कांच घर के वातावरण को गर्म करती हैं। भीतर प्रवेश कर चुकी ऊष्‍मा जब दीर्घ तरंगों के रूप में बाहर निकलने को बढ़ती है, तो कांच की दीवारें उन्‍हें बाहर निकलने से रोक देती हैं। जिससे कांच घर के भीतर के तापमान में अपेक्षाकृत वृद्धि हो जाती है। ठीक उसी प्रकार वायुमंडलीय गैसें लघु तरंग विकिरण (सौर्यिक विकिरण) के लिए पारदर्शी होती हैं, किन्‍तु दीर्घतरंग विकिरण (पार्थिव विकिरण) के लिए अपारदर्शी होती हैं। अत: सौर विकिरण ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में वायुमंडल को पार कर भूतल पर पहुंच जाती है, किन्‍तु दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण पुन: वायुमंडल से बाहर नहीं जा पाती हैं।जिससे पृथ्‍वी के तापमान में वृद्धि हो जाती है। इसे हरित गृह प्रभाव कहा जाता है।

वायुमंडल में उपस्‍थित कार्बन डाइ ऑक्‍साइड (co2, 0.03%) गैस पृथ्‍वी के तापमान को बढ़ाने वाली प्रमुख गैस है। इसके अलावा मीथेन (CH4), क्‍लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC), नाइट्रस आक्‍साइड, हेलोन (अग्‍निशमन यंत्रों से प्राप्‍त) आदि गैसें भी भूमंडलीय तापमान वृद्धि में योगदान देती हैं। ये गैसें दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण को वायुमंडलीय से बाहर जाने से रोक देती हैं। पारिणामस्‍वरूप तापमान बढ़ने से पृथ्‍वी का ताप संतुलन बिगड़ जाता है। भूमंडलीय तापमान में इस वृद्धि को ही वैज्ञानिक शब्‍दावली में ग्‍लोबल वार्मिंग कहा जाता है।

भू-मण्‍डलीय तापमान में वृद्धि की प्रवृत्‍ति
वायुमंडल में ग्रीन गैसों का निरंतर बढ़ता हुआ सान्‍द्रण भू-मंडलीय तापमान में वृद्धि के लिए उत्‍तरदायी है। 1861 के बाद पृथ्‍वी के तापमान में निरतंर वृद्धि हो रही है, क्‍योंकि 1861 से तापमान संबंधी उपकरणों द्वारा अंकित विश्‍वसनीय आंकड़े उपलब्‍ध हैं। ग्‍लोबल वार्मिंग के संबंध में उचित जानकारी प्राप्‍त करने हेतु संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने 1988 में ‘Inter-Government Panel on Climate Change (IPCC)’ का गठन किया गया। प्रारंभिक अनुमान के अनुसार 1861 से 1990 तक पृथ्‍वी के औसत तापमान में 0.60C की वृद्धि हुई जो 2020 तक बढ़कर 1.50C तक होने की संभावना है। धरती के बढ़ते तापमान पर अब तक के सर्वाधिक विश्‍वसनीय आंकड़े जुटाते हुए IPCC ने 3 फरवरी 2007 को पेरिस मे एक रिपोर्ट में ग्‍लोबल वार्मिंग के लिए मानव समाज को प्रमुख अभियुक्‍त माना गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार 1900 से 2006 तक पृथ्‍वी के औसत तापमान में 0.70C से 0.80C तक वृद्धि हो चुकी है तथा यह अनुमान व्‍यक्‍त किया गया है कि सन् 2100 तक पृथ्‍वी के तापमान में 1.10C से  6.40C तक वृद्धि हो सकती है। एक अनुमान के अनुसार 20वीं शताब्‍दी पिछले 1000 वर्षों में सबसे गर्म शताब्‍दी रही है जबकि 1990 का दशक सबसे गर्म दशक रहा है। 1998 का वर्ष अब तक का सर्वाधिक गर्म वर्ष माना जाता है। स्‍मरणीय तथ्‍य यह है कि अब तक के सर्वाधिक गर्म 10 वर्ष 1994 के बाद ही पड़े। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2007 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहने की संभावना है। 1950 ई. के बाद पृथ्‍वी के औसत तापमान में 0.10C की दर से दशकीय वृद्धि अंकित की गयी है। इस प्रकार प्रथ्‍वी के औसत तापमान में निरंतर वृद्धि ग्‍लोबल वार्मिंग का सूचक है।


ग्‍लोबल वार्मिंग के कारण

पृथ्‍वी के तापमान में हो रही वृद्धि के लिए निम्‍न कारण उत्‍तरदायी हैं:
(1) ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि- ग्‍लोबल वार्मिंग के लिए मुख्‍यत: कार्बन डाइऑक्‍साइड मीथेन, नाइट्रेस ऑक्‍साइड, क्‍लोरो फ्लोरोकार्बन, हेलोन इत्‍यादि गैसें उत्‍तरदायी हैं। इस गैसों का सान्‍द्रण वायुमंडल में निरंतर बढ़ता जा रहा है। ये गैसें वायुमंडल में ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करती हैं। परिणामस्‍वरूप पृथ्‍वी का तापमान बढ़ता जा रहा है।
  • कार्बन डाइऑक्‍साइड (CO2): ग्‍लोबल वार्मिंग के लिए मुख्‍य उत्‍तरदायी गैस CO2 है। वायुमंडल में इस गैस का मुख्‍य स्‍त्रोत है- जीवाश्‍म ईंधन का जलना। इसके अलावा प्राणियों में श्‍वसन क्रिया, ज्‍वालामुखी उदगार वनस्‍पति के सड़ने-गलने से भी CO2 वायुमंडल में पहुचती है। एक अनुमान के अनुसार 1750-200 की अवधि में वायुमंडल में CO2 की सान्‍द्रता में 34 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जो पिछले 420000 वर्षों में सर्वाधिक है। पिछले 20 वर्षों की अवधि में लगभग 75 प्रतिशत CO2 का उत्‍सर्जन जैविक ईंधन के जलाने से हुआ है। विभिन्‍न अध्‍ययनों के अनुसार पृथ्‍वी के तापमान में वृद्धि करने में CO2 का योगदान लगभग 60 प्रतिशत है।
  • क्‍लोरो-फ्लोरोकार्बन (CFC): क्‍लोरो-फ्लोरो कार्बन 20वीं शताब्‍दी की देन है। इसका निर्माण रासायनिक अभिक्रिया द्वारा होता है। ये पदार्थ वायुमंडल की ओजोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं। सीएफसी का प्रयोग रेफ्रिजरेटरों, ऐरोसोल एयर कंडीशनरों, फोम-रेग्‍जीन बनाने, स्‍प्रे आदि में होता है। ग्‍लोबल वार्मिंग में इसका योगदान 24 प्रतिशत है। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के अनुसार विश्‍व के देशों ने (CFC) के हानिकारक प्रभावों से बचने के लिए इसके स्‍थान पर HCFC (हाइड्रो-क्‍लोरोफ्लोरोकार्बन) का प्रयोग करने का निर्णय लिया था। HCFC सक्रियता अवधि (15 वर्ष) यद्यपि (CFC) से बहुत कम (60-130 वर्ष) है, किन्‍तु दोनों की रेडियोएक्‍टिव शक्‍ति में कोई विशेष अंतर नही है।       
  • मीथेन (CH4): मीथेन गैस कार्बन व हाइड्रोजन के संयोग से बनती है। वायुमंडल मे इसकी मात्रा 0.002 प्रतिशत है। मीथेन के मुख्‍य स्‍त्रोत धान की खेती, पशुपालन, प्राकृतिक दलदली भूमियां, कोयला खनन, जैविक पदार्थों का जला आदि है। वायुमंडल में मीथेन गैस की सान्‍द्रता में 1750-2000 की अवधि में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह गैस अपनी विकिरणशीलता के कारण CO2 से 20 गुना अधि‍क ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करती है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करने में मीथेन का योगदान 10 प्रतिशत है। इस गैस का जीवनकाल 11 वर्ष माना जाता है। विभिन्‍न स्‍त्रोतो से प्रतिवर्ष लगभग 52.2 करोड़ टन मीथेन वायुमंडल में पहुंचती है।
  • नाइट्रस ऑक्‍साइड:  यह गैस मुख्‍यत: नाइट्रोजनयुक्‍त उर्वरकों के प्रयोग, जैविक पदार्थों तथा जीवाश्‍म ईंधन के जलाने से उत्‍पन्‍न होती है। 1750-2000 की अवधि मे इस गैस की सांद्रता में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वायुमंडल में इस गैस की मात्रा बहुत कम है, किन्‍तु ग्रीन हाउस प्रभाव की दृष्टि से यह गैस CO2 से 320 गुना अधिक खतरनाक है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करने में इस गैस का योगदान 6 प्रतिशत तथा वायुमंडलमें इसका जीवनकाल 150 वर्ष का माना जाता है।
  • हेलोन: हेलोन ग्रीन हाउस प्रभाव में वृद्धि करने वाला एक रेडियोधर्मी तत्‍व है। हेलोन 1301 तथा हेलोन-1211 का उपयोग अग्‍निशमन उपकरणों एवं वायुयानों में किया जाता है। यह ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाता है। 1990 में हेलोन-1301 एवं हेलोन-1211 की वायुमंडल में सान्‍द्रता क्रमश: 2ppm तथा 1.7ppm थी, इनका जीवनकाल क्रमश: 25 वर्ष एवं 110 वर्ष माना जाता है। हेलोन-1301 की रेडियोएक्‍टिव CO2 से 16000 गुना अधिक है।

ग्रीन हाउस गैसों के उत्‍सर्जन में विकसित देश अग्रणी हैं, जो कि विश्‍व का 2/3 भाग उत्‍सर्जित करते हैं। यूएसए 25 से 30 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्‍सर्जन करता है, जबकि रूस का योगदान 15 प्रतिशत है। विकासशील देशों में चीन अग्रणी है जो लगभग 12 प्रतिशत गैसों को उत्‍सर्जित करता है। भारत 3 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्‍सर्जन करता है तथा 2020 तक इसके दोगुना हो जाने की संभावना है।

(2) ओजोन परत में छिद्रीकरण- ओजोन परत के छिद्रीकरण से तात्‍पर्य वायुमंडल की ओजोन परत में ओजोन नामक विशिष्‍ट गैस की कमी हो जाने से है। ओजोन एक त्रि-परमाणिवक गैस है, जिसमें ऑक्‍सीजन के तीन परमाणु (O3) होते हैं, ओजोन वायुमंडल में धरातल से 20 से 35 किमी में ऊँचाई तक सर्वाधिक (0.02-0.3 ppm) पाई जाती है। इसी भाग को ओजोन परत कहा जाता है। जो समताप मंडल का ही एक भाग माना जाता है। यह परत सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों (300 nm से कम तरंगदैर्ध्‍य वाली किरणें) को पृथ्‍वी के वायुमंडल मे आने से रोककर सुरक्षा कवच की तरह कार्य करती है, किन्‍तु विगत कुछ दशकों से मानवीय क्रियाकलापों द्वारा उत्‍सर्जित हानिकारक रसायनों यथा-क्‍लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रेट ऑक्‍साइड, कार्बन टेट्रा क्‍लोराइड, क्‍लोरो फार्म और क्‍लोरीन इत्‍यादि के कारण ओजोन के विनाश से ओजोन परत पतली होती जा रही है, जिसे ओजोन छिद्रीकरण कहते हैं, ओजोन छिद्रीकरण को ग्‍लोबल वार्मिंग का एक प्रमुख कारण माना जाता है। ओजोन परत में क्षरण मुख्‍यत: अंटार्कटिका क्षेत्र पर सबसे ज्‍यादा माना जा रहा है। इसी कारण अंटार्कटिका महाद्वीप पर तापमान में वृद्धि के कारण बर्फ की चादर पिघलती जा रही है तथा आइसबर्ग टूटकर समुद्र में खिसक रहे हैं। इस प्रकार ओजोन परत के क्षरण से हानिकारक पराबैंगनी किरणें सीधे पृथ्‍वी के धरातलपर पहुंचेंगी परिणामस्‍वरूप तापमान में वृद्धि होने के अलावा त्‍वचा कैंसर, मोतियाबिन्‍द आदि रोगों में वृद्धि होगी, मानव के प्रतिरक्षा तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, फसलोत्‍पादन एवं वनों का क्षेत्रफल घट जाएगा।

(3) निर्वनीकरण-उष्‍णकटिबंधीय क्षेत्रों में वनों की अंधाधुंध एवं अविवेकपूर्ण कटाई को भी ग्‍लोबल वार्मिंग का कारण माना जाता है। जनसंख्‍या मे तीव्र वृद्धि के साथ वनों की अंधा-धुंध कटाई ने विकट पर्यावरणीय समस्‍याएं उत्‍पन्‍न कर दी हैं। आवास एवं कृषि योग्‍य भूमि में विस्‍तार के कारण 20वीं शताब्‍दी में उष्‍ण कटिबंधीय वनों की कटाई हो रही है। सन 1980-90 के मध्‍य एशिया में निर्वनीकरण की दर 1.2 प्रतिशत अमरीका में 0.8 प्रतिशत तथा अफ्रीका में 0.7 प्रतिशत थी। वन CO2 का अवशोषण एवं मानव के लिए जीवनदायी O2 गैस का उत्‍सर्जन करते हैं, निर्वनीकरीण द्वारा वानस्‍पतिक आवरण मे आ रही कमी के कारण वनस्‍पति द्वारा CO2 का पर्याप्‍त अवशोषण नहीं हो पा रहा है। परिणामस्‍वरूप वायुमंडलीय में CO2 की सान्‍द्रता बढ़ती जा रही है जिस कारण पृथ्‍वी के सतह का तापमान बढ़ती जा रहा है। वर्तमान में वनों के कटाव की दर 2.23 प्रतिशत प्रतिवर्ष है।

ग्‍लोबल वार्मिंग का प्रभाव
ग्‍लोबल वार्मिंग वर्तमान शताब्‍दी की सबसे विकट विकट पर्यावरणीय समस्‍या है। अभी हाल ही में 3 फरवरी 2007 में IPCC की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 21वीं सदी के अंत मे समुद्री जलस्‍तर में 18 से 58 सेमी तक वृद्धि होने की आशंका है। परिणामस्‍वरूप तटीय क्षेत्रों का जलमग्‍न होना बड़ी संख्‍या में जनसंख्‍या का विस्‍थापन होगा। एक अनुमान के अनुसार 20वीं शताब्‍दी में समुद्री जलस्‍तर में अनुमानत: 0.। से 0.2 मी. की वृद्धि हुई है।
  1. समुद्री जलस्‍तर में वृद्धि- वैश्‍विक उष्‍णता के कारण ध्रुवीय क्षेत्रों तथा पर्वतीय हिमनदोंके पिघलने से समुद्री जलस्‍तर के ऊपर उठनेकी आशंका है। IPCC की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 21वीं सदी के अंत मे समुद्री जलस्‍तर में 18 से 58 सेमी तक वृद्धि होने की आशंका है। परिणामस्‍वरूप तटीय क्षेत्रों का जलमग्‍न होना बड़ी संख्‍या में जनसंख्‍या का विस्‍थापन होगा। एक अनुमान के अनुसार 20वीं शताब्‍दी में समुद्री जलस्‍तर में अनुमानत: 0.1 से 0.2 मी. की वृद्धि हुई है।
  2. समुद्री जलस्‍तर में वृद्धि के कारण विश्‍व के लगभग 27 देश एवं कई द्वीप प्रभावित होंगे। तटीय जलमग्‍नता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले देश बांग्‍लादेश, मिस्‍त्र, थाइलैंड, चीन और इंडोनेशिया हैं। भारत का तटीय क्षेत्र भी प्रभावित होगा जो अत्‍यंत उपजाऊ एवं सघन जनसंख्‍या घनत्‍व वाला क्षेत्र है। समुद्री जलस्‍तर में वृद्धि के कारण मालद्वीप के 9 द्वीप तथा प्रशांत महासागर का किकीबाटी द्वीप डूब चुके हैं। जबकि कई द्वीप डूबने के कगार पर हैं।
  3. तापमान वृद्धि का बुरा प्रभाव समुद्री जीवोंपर भी पड़ेगा। उत्‍तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों पर रहने वाले सील, पेंग्‍वीन, व्‍हेल आदि समुद्री जीवों के नष्‍ट हो जाने की आशंका है। इनके अलावा करोड़ों समुद्री जीवों एवं मछलियों का जीवन प्रभावित होगा।
  4. ग्‍लोबल वार्मिंग के कारण कई प्रकृतिक आपदाओं का प्रकोप बढ़ेगा। तापमान में वृद्धि के कारण मौसम में लगातार अभूतपूर्व परिवर्तन हो रहे हैं। परिणामस्‍वरूप अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अकाल, लू और गर्म हवाओं का प्रकोप बढ़ाने की संभावना है।
  5. वैश्‍विक उष्‍णता के कारण जमीन की उर्वरता घटने की आशंका है। परिणामस्‍वरूप फसलोत्‍पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। पृथ्‍वी के कई हिस्‍सों में एक ही मौसम दीर्घकाल तक बना रहेगा। सर्दी है तो सर्दी के कारण फसलों को गर्मी रहेगी। लगातार गर्मी से फसलों को नमी नहीं मिलेगी। वैश्‍विक उष्‍णता का प्रभाव गेहूं, चावल, मक्‍का, आलू आदि पर अधिक पड़ेगा, संक्षेप में धरती बंजर होती जाएगी।
  6. पृथ्‍वी के बढ़ते तापमान के कारण जैव विविधता, के नष्‍ट हो जाने की आशंका है। कई जीव-जन्‍तु और वनस्‍पतियाँ जलवायु में परवर्तन के कारण विलुप्‍त हो जाएंगी। सूखा एवं आग लगने से वनों को अत्‍यधिक हानि होगी, कई जीव-जन्‍तु भी नष्‍ट होंगे।
  7. तापमान में वृद्धि और असामान्‍य परिवर्तन के कारण विश्‍व की प्रसिद्ध प्रवाल भित्‍तियां कुछ दशकों में नष्‍ट हो जाएंगी। आस्‍ट्रेलिया के उत्‍तरी-पूर्वी भाग में समुद्र तट के समीप 345000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैली प्रवाल भित्‍तियों के एक दिन पूर्णत: नष्‍ट होने की आशंका है, जो करोड़ो समुद्री जीवों को संरक्षण प्रदान करती है। (IPCC रिपोर्ट-2007)
  8. IPCC की 2007 की रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक एक अरब 10 करोडद्य लोगों को पीने के लिए पानी नसीब नहीं होगा तथा 20 करोड़ से 60 करोड़ लोगों को अनाज उपलब्‍ध नहीं होगा। पेयजल और खाद्यान्‍न संकट पृथ्‍वी के बढ़ते तापमान का ही परिणाम होगा। यह मानवता के लिए भयानक दृश्‍य का संकेत है।
  9. तापमान में वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनद निरंतर पिघलते जा रहे हैं। जिन नदियों का उदगम स्‍त्रोत पर्वतीय हिमनद है, उनमें भयंकर बाढ़ आने की आशंका है तथा कुछ के नष्‍ट हो जाने से नियतवाही नदियों के सूखने का अंदेशा है। हिमालय क्षेत्र में कई हिमनद सिकुड़ते जा रहे हैं। इसके अलावा मौसम में बदलाव के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में कम बर्फबारी के कारण भी हिमक्षेत्र के संकुचित होने की आशंका है।
  10. तापमान में वृद्धि से मानव स्‍वास्‍थ्‍य को भी गंभीर खतरा है। जलवायु में परिवर्तन के कारण मध्‍य एवं उच्‍च अक्षांशों में कई जलजनित और कीटाणुजनित रोगों के फैलने की आशंका है। त्‍वचा कैंसर एवं आंखों से संबंधित बीमारियां बढ़ेंगी।
  11. तापमान में वृद्धि के कारण मध्‍य अक्षांशीय प्रदेशों में एयरकंडीशनर, पंखों, कूलर आदि के अधिक प्रयोग से विद्युत खपत बढ़ेगी। जिससे ऊर्जा संकट उत्‍पन्‍न हो जाएगा।

ग्‍लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के उपाय
  1. ग्‍लोबल वार्मिंग के लिए मुख्‍य उत्‍तरदायी गैस CO2 मात्रा में कमी लाने के लिए जीवाश्‍म ईंधन के दहन में कमी लानी होगी। इसके स्‍थान पर वैकल्‍पिक ऊर्जा स्‍त्रोतों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाना चाहिए।
  2. वनों की अंधाधुंध कटाई पर रोक तथा वृक्षारोपण द्वारा वन क्षेत्र में विस्‍तार करना।
  3. जनवंख्‍या की तीव्र वृद्धि पर प्रभावी अंकुश लगाया जाना चाहिए, क्‍योंकि IPCC की 2007 की रिपोर्ट में ग्‍लोबल वार्मिंग के लिए मानव के क्रियाकलापों को सबसे प्रमुख कारण माना है।
  4. प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग तथा वैकल्‍प‍िक स्‍त्रोत का विकास करना।
  5. क्‍लोरोफ्लोरोकार्बन CFC जैसे मानवजनित घातक रसायनों के उत्‍पादन को सीमित करना तथा उनके नवीन एवं कम हानिकारक विकल्‍प ढ़ूंढना।
  6. कृषि उत्‍पादन में प्रयुक्‍त रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का सीमित उपयोग तथा जैविक खाद का अधिकाधिक प्रयोग को बढ़ावा देना।
  7. उद्योगो एवं स्‍वचालित वाहनों में ऐसे परिष्‍कृत उपकरणों को लगाया जाय, जिससे प्रदूषित गैसों का उत्‍सर्जन कम से कम हो तथा वायुमंडल मे छोड़ने से पूर्व उनका परिष्‍कार करना।
  8. ग्रीन हाउस गैसों का सबसे अधिक उत्‍सर्जन करने वाले विकसित देशों को मानव जाति के हित मे इन गैसों के उत्‍सर्जन में कटौती करनी चाहिए तथा पर्यावरण की सुरक्षा हेतु उचित उपाय करने चाहिए।
  9. पर्यावरण प्रदूषण रोकने तथा ग्रीन हाउस गैसो के उत्‍पादन पर रोक लगाने वाले अन्‍तर्राष्‍ट्रीय कानूनों एवं संधियों का कठोरतापूर्ण पालन तथा इनका उल्‍लंघन करने वाले देशों के विरुद्ध कड़े प्रतिबंद्ध लगाने चाहिए।
  10. पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने हेतु जन-सहभागिता कार्यक्रमों को संचालित करना।

निष्कर्ष
पृथ्‍वी का बढ़ता हुआ तापमान वर्तमान विश्‍व की सबसे बड़ी पर्यावरणीय समस्‍या है। यह समस्‍या मानवीय क्रियाकलापों की देन है। निस्‍संदेह विकास की धारा को मोड़ा नहीं जा सकता है, किन्‍तु इसे मानवीय हित में इतना नियन्त्रित तो अवश्‍य ही किया जा सकता है, जिससे पृथ्‍वी पर मंडरा रहे इस गंभीर संकट को दूर किया जा सके। ऐसे विकास का कोई औचित्‍य नहीं है, जिस कारण मानव का अस्‍तित्‍व ही खतरे मे पड़ जाय। पृथ्‍वी मानव के अलावा असंख्‍य जीव-जन्‍तुओं एवं वनस्‍पतियों का भी घर है। अत: मानव को अपनी करतूतों पर लगाम लगानी चाहिए तथा जियो और जीने दो के सिद्धान्‍त का पालन करते हुए पर्यावरण सुरक्षा में जुट जाना चाहिए।

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HindiVyakran: ग्‍लोबल वार्मिंग : कारण प्रभाव उपाय तथा निष्कर्ष
ग्‍लोबल वार्मिंग : कारण प्रभाव उपाय तथा निष्कर्ष
ग्‍लोबल वार्मिंग : कारण प्रभाव उपाय तथा निष्कर्ष : भूमंडलीय तापमान में वृद्धि को ही वैज्ञानिक शब्‍दावली में ‘ग्‍लोबल वार्मिंग’ कहा जाता है। ग्‍लोबल वार्मिंग के लिए मुख्‍यत: कार्बन डाइऑक्‍साइड मीथेन, नाइट्रेस ऑक्‍साइड, क्‍लोरो फ्लोरोकार्बन, हेलोन इत्‍यादि गैसें उत्‍तरदायी हैं। इस गैसों का सान्‍द्रण वायुमंडल में निरंतर बढ़ता जा रहा है। ये गैसें वायुमंडल में ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करती हैं। परिणामस्‍वरूप पृथ्‍वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्‍सर्जन में विकसित देश अग्रणी हैं, जो कि विश्‍व का 2/3 भाग उत्‍सर्जित करते हैं। यूएसए 25 से 30 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्‍सर्जन करता है, जबकि रूस का योगदान 15 प्रतिशत है। विकासशील देशों में चीन अग्रणी है जो लगभग 12 प्रतिशत गैसों को उत्‍सर्जित करता है।
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