भारत में राजनैतिक दल पर निबंध : उनकी जवाबदेही और चुनौतियां
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतांत्रिक प्रणाली
में राजनीतिक दलों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वह राजनीतिक दल ही हैं जो
चुनाव में जनमत प्राप्त कर स्पष्ट जनादेश के लिये निर्धारित सीटों की संख्या
को पारकर सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करते हैं। भारत बहुदलीय प्रणाली वाला देश
है। जहाँ राष्ट्रीय व राज्य स्तर के राजनीतिक दल हैं। राष्ट्रीय दल वह हैं जो
चार या अधिक राज्यों में मान्यता प्राप्त हैं। राजनीतिक दलों के संबंध मं
राजवैज्ञानिकों ने अपना विचार रखा है। माईकल कार्टिस के अनुसार “राजनीतिक दल की सही रूप में परिभाषा प्रस्तुत करना बहुत कठिन है।” जब कि बर्क ने कहा है कि “राजनीतिक दल एकता बद्ध लोगों का ऐसा निकाय है जो किन्ही विशेष
सिद्धांतो पर राष्ट्रीय हित को बढ़ावा देने के लिए सहमत होते हैं।” और बेंजामिन कांसटैण्ट को शब्दों में "दल समान राजनीतिक सिद्धान्त में आस्था रखने वाले व्यक्तियों का
समूह है।"
इन सब से अलग अमेरिकी दृष्टिकोण है जहां राजनीतिक दल को सत्ता पाने
का उपकरण समझा जाता है। यहां राष्ट्रीय अथवा सार्वजनिक महत्व के उन सूत्रों को
कोई महत्व नहीं दिया जाता है। दल को केवल सत्ता के संघर्ष में भाग लेने का मंच
या तन्त्र समझा जाता है। यह वोट बढोरने का उपकरण मात्र है, यह चुनावों के समय लोगों का समर्थन जुटाने के लिए एक प्रकार का यन्त्र
है, यह उन हितों के एकत्र करने का उपकरण
मात्र है जो अपनी प्रबल अभिव्यक्ति की आकांक्षा करते है। ड्वेर्जर के शब्दों
में “ सामान्यता: हम
राजनीतिक दल की परिभाषा समाज के सक्रिय अभिकर्ताओं के मुखर संगठन के रूप में करते
हैं, वे जिनका सम्बन्ध प्रशासनिक शक्तियों
पर नियन्त्रण से है तथा जो जन समर्थन के लिए किसी अन्य समूह अथवा भिन्न विचार
रखने वाले समूहों के साथ प्रतियोगिता करते हैं इस कारण यह महान बिचौलिया है जो
सामाजिक शक्तियों पर तथा विचारधाराओं को अधिकृत प्रशासकीय संस्थाओं के साथ सम्बन्धित
करता है तथा उन्हे अपेक्षाकृत बृहत राजनीतिक समुदाय में राजनीतिक कार्यवाही से
जोड़ता है। ” “बिना राजनीतिक दलों
के न तो सिद्धान्तो की संगठित अभिव्यक्ति हो सकती है, न ही नीतियों का व्यवस्थित विकास, न संसदीय निर्वाचन के संवैधानिक साधन का अथवा अन्य किसी मान्यता
प्राप्त ऐसी संस्था का नियमित प्रयोग जिसके द्वारा दल सत्ता प्राप्त करते हैं, और उसे बनाये रखते है ” विभिन्न प्रजातांत्रिक देशों में दल प्रगाली का स्वरूप वहाँ की
सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों की देन है। यही कारण है कि संसार की भिन्न
भिन्न शासन प्रणालियों में दल प्रणाली का स्वरूप और उनका कार्यभाग भिन्न भिन्न
दिखाई देता है। नारमन डी पामर का कहना है कि“ जापान, फिलिपींस और इजराइल को छोड़ कर एशिया
के किसी भी देश में पश्चिमी ढंग की सुसंगठित तथा प्रभावशाली जनतंत्रीय प्रणाली का विकास नहीं
हुआ।”
भारत में राजनीतिक दल जो आज हमारे बीच विद्यमान हैं, उस रूप में उनका इतिहास उन्नीसवी सदी के आस-पास मिलता है आधुनिक
समाज में राजनीतिक दलों का गठन मनोवैज्ञानिक आधार अर्थात मानव स्वभाव में निहित
प्रवृत्तियों के आधार पर, जैसे मुस्लिम लीग, अकाली दल, जन संघ, हिन्दू महासभा आदि, क्षेत्रीयता के
आधार पर जैसे डी.एम. के तेलंगाना, असम गण परिषद, झा.मु. मो. आदि पर होता आया है। जाति भारतीय समाज की आधार भूत
विशेषता है यह हमेशा से राजनैतिक दलों के सामाजिक संगठन को प्रभावित करती रही है।
स्वतंत्रता से पूर्व जाति का आन्दोनल राजनीतिक गठन को प्रभावति करता रहा है।
दलित वर्ग कल्याण लीग, बहिष्कृत हितकारिणी सभा, जस्टिस पार्टी इसके प्रमुख उदाहरण रहे हैं। भारत में दल प्रणाली का
उद्भव कांग्रेस की स्थापना से माना जाता है। 1885 में इसका गठन हुआ। कांग्रेस के
ही नेतृत्व में हुए आन्दोलन के परिणाम स्वरूप भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त
हुई। कांग्रेस का प्रांरभिक उद्देश्य केवल ब्रिटिश शासन से भारतीयों को उचित सुविधाओं को प्राप्त करना ही रहा लेकिन 1920
तक सब कुछ धीमी गति से ही चलता रहा। 1920 में गांधी जी का राजनीतिक जीवन में
प्रवेश ने आन्दोलन को जनान्दोलन के रूप में परिवर्तित करने में अग्रणी भूमिका
अदा की। सर्वधर्म समभाव भाईचारे की भावना से लोगों को
प्रेरित कर लोगों को कांग्रेस से जोड़ने का कार्य सफलता पूर्वक किया। 1906 में
मुस्लिम लीग की स्थापना हुई जो प्रारंभ में कांग्रेस की तरह ब्रिटिश शासन में
विश्वास करते हुए अपने अधिकारों के हित के लिए कार्य करती रही और फिर एक राजनीतिक
दल के रूप में अस्तित्व में आकार द्विराष्ट्र सिद्धान्त का बीज बोया और
मुसलमानों के लिए एक अलग पाकिस्तान की माँग की। एक सांप्रदायिक संस्था जो
राजनीतिक दल के रूप में अपनी पहचान बना चुकी भी वे प्रतिक्रिया स्वरूपएक अन्य
सांप्रदायिक संस्था के रूप में 1916 में हिन्दू महा सभा के नाम से हिन्दुओं
द्वारा गठित की गई जिसका उद्देश्य हिन्दू संस्कृति, हिन्दू सभ्यता की रक्षा एवं उसका विकास के साथ साथ पूर्ण स्वराज्य
को प्राप्त करना था। कुछ वामपंथी दल की अस्तित्व में आये जैसे-1924 में साम्यवादी
दल, कांग्रेस से अलग हुए लोगो से 1934में
समाजवादी दल जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात राष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले
1951 में भारतीय जन संघ अस्तित्व में आया।
भारत का संविधान भारतीय नागरिकों को समुदाय बनाने की स्वतंत्रता
प्रदान करता है कोई भी नागरिक एक नया दल बनाने को स्वतंत्र है जिसके कारण बहुत से
दलों के अस्तित्व मे आने के बीज अंकुरित होने लगे। बहुदलीय प्रणाली के होने के
बाद भी सरकार बनाने में एक दलीय आधिपत्य का उदाहरण भी मिलता रहा। 1977 से 1980 को
छोड़कर प्रथम आम चुनाव 1952से 1989 तक कांग्रेस की ही केन्द्र से सरकार बनती रही, 1989-1990 के चुनाव के पश्चात जनता दल ने अपने सहयोगियों को लेकर
गठबंधन सरकार के रूप में आकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके एकाअधिकार पर विराम
लगाया। पिछले दो दशको से गठबंधन की राजनीतिक के जोर पकड़ने के बाद क्षेत्रीय दलों
की बैठ गहरी हो गई है। राजीव गांधी का अगुआई में कांग्रेस 200 की संख्या को छू न
पाई जबकि जनता दल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। जिसका परिणाम यह हुआ कि पहली
बार किसी भी पार्टी को स्पष्ट जनादेश न मिला। जनता दल के बी.पी. सिंह ने कुछ
क्षेत्रीय दलों को ले कर नेशनल फ्रंट का गठन किया जिसे भाजपा व अन्य दलों ने बाहर
से समर्थन दे कर सरकार बनाने में मदद की और वी.पी सिंह प्रधानमंत्री बने। पिछले दो
दशकों में क्षेत्रीय दल एक बड़े फैक्टर के रूप में आये हैं इनकी भुमिका सरकार
बनाने में अहम है इसलिए भाजपा हो या कांग्रेस किसी भी लोकसभा चुनाव से पूर्व
गठबंधन के लिए प्रयासरत रहती है जिससे कि सरकार बनाने में कोई कठिनाई न हो। दूसरे
शब्दों में यह कहा जा सकता है कि बड़े दलों में उपजे आन्तरिक असन्तोश ने
क्षेत्रीय दलों को अस्तित्व में आने को मौका दिया।
आबादी के मामले में दुनिया का पहला स्थान पाने की ओर अग्रसर भारत
में राजनीतिक दलों का संस्थ में निरंतर, वृद्धि हो रही हैं जुलाई 2015 तक नये संगठनों के दर्ज होने के बाद
देश में राजनीतिक दलों की कुल संख्या 1866 हो गई।
केन्द्र सरकार में नेतृत्व व लिए चुनावी घोषणापत्र और राजनीतिक दलों
की जवाबदेही को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने छ: राष्ट्रीय दलों को सुचना का अधिकार
कानून के तहत लाने के लिए उनका पक्ष जानने को नोटिस जारी किया हैं उनसे जानना चाहा
है कि क्यो न उन्हें आर टी आई कानून के तहत सार्वजनिक प्राधिकार घोषित किया जाय
ताकि वह अपनी परिसम्पत्तियों की घोषणा करने के लिए बाध्य हो क्योंकि आर टी आई
की धारा 2 (ज) में स्पष्ट है कि-
- संविधान द्वारा या उसके अधीन,
- संसद द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा
- राज्य विधान मण्डल द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा
- समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किये गये आदेश द्वारा, स्थापित या अन्तर्गत (1). कोई ऐसा निकाय है जो केन्द्रीय सरकार के स्वामित्वाधीन नियन्त्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा वित्तपोशित है, (2). कोई ऐसा गैर सरकारी संगठन है जो समुचित सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा वित्त पोशित है। सूचना का अधिकार कानून के बाहर नहीं क्योंकि राजनीतिक दल भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभ लेती है। यह बात अलग है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 का अनुच्छेद 8(1) में ऐसी व्यवस्था है जिसके तहत सूचना को साझा न किया जाय साथ ही धारा 7(9) भी है जो सार्वजनिक प्राधिकार को सूचना न प्रदान करने को बल मिलता है जिससे सार्वजनिक प्राधिकार के संसाधनों की बेतूकी तस्वीर सामने आती हो। राजनीतिक दल अपने स्तर पर सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के धारा 4(1) के तहत अपनी जानकारियों को अपनी वेवसाइटृस पर अधिकतम रूप में जारी करें जिससे कि जन सामान्य को जानकारी पाने के लिए सूचना का अधिकार 2005 के तहत आवेदन न करना पड़े।
केन्द्रीय सूचना आयोग में 2013 में स्पष्ट आदेश जारी किया था कि
राजनीतिक दल के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत सूचना प्रदान करना जरूरी
है लेकिन तमाम राजनीतिक दल इस आदेश के खिलाफ लामबंद हो गये। यह कितना उचित है कि राजनीतिक दलों को
नहीं बल्कि अफसरशाही को ही आर.टी. आई. के दायरे में लाया जाय। हर पार्टी इस बात
के लिए पूर्णतया प्रयासरत है कि उसे इस कानून के दायरे मे न लाया जाय। किसी भी
लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि उसके राजनीतिक दल जो
सरकार बनाने के लिए जोड-तोड़ करते हैं पर जनता के प्रति जवाबदेह होने से बचना
चाहते है। उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह होना होगा।
सुचना आयोग जिस प्रयास में सफल न हो सका उस प्रयास में सुप्रीम कोर्ट
कितना सफल होगा यह भविष्य के गर्भ में है। यू.पी.ए. सरकार ने तो कानून में आंशिक
संशोधन तक करने का मन बना लिया था जिससे कि इस कानून से बचा जा सके।चुनाव आयोग को
निर्वाचन खर्च के नाम पर जो ब्यौरा दिया जाता है वह कितना सही होता है यह सभी
जानते है यहां तक कि एक आम नागरिक भी इस सवाल पर जवाब देने को तैयार है। आगर
राजनीति व्यवसाय नहीं तो उसे पारदर्शी बनना ही होगा। तभी राजनीतिक दलों में जनता
के प्रति वफादारी रह सकेगी। यदि जनसामान्य को सूचना प्रदान किये जाने से बचे जाने
का समुचित प्रयास राजनीतिक दलों
द्वारा किया जा रहा है तो इसका आशय यही है कि लोकतंत्र सही मायने में असुरक्षित है
क्यों कि जनता की भागीदारी के सापेक्ष
राजनीतिक दलों की जवाबदेही नहीं और जनता के अधिकारों के सीमित करने के प्रयास हो
रहे हैं। फिर हमारे संविधान निर्माताओं का स्वप्न – “फार द पीपुल, बाई द पीपुल एण्ड आफ द पीपुल” का क्या होगा।
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