भारत की तटस्थता की नीति पर निबंध
भारतवर्ष युगों से विश्व को शांति का संदेश देता आ रहा है। यही कारण है कि उसने अहिंसा के शांतिपूर्ण मार्ग द्वारा मातृभूमि को विदेशियों के जाल से सरलता से मुक्त करा लिया। भारत की इच्छा है कि विश्व के सभी राष्ट्र ऐसा जीवन व्यतीत करें जैसा कि एक परिवार के सदस्य करते हैं। उनमें परस्पर सहयोग, सद्भावना और संवेदना हो। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का सदैव हितचिन्तन ही करे और यथाशक्ति समय आने पर उसकी सहायता भी। भारत यह कभी नहीं चाहता कि शोषण को प्रधानता दी जाये, एक राष्ट्र दूसरे का गला घोटे और जनता को भूखा मारा जाये। उसका सिद्धांत है-
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत ।।"
भारत विश्व की राजनीति में अब तक तटस्थ है। तटस्थ का साधारण अर्थ है, किनारे पर दृढ़ होकर रहने वाला। यह काम साधारण नहीं है। भारतवर्ष ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् निश्चित किया था कि वह विश्व की राजनीति में तटस्थ रहेगा आज तक वह इसी प्रतिज्ञा का निर्वाह करता चला आ रहा है। विश्व की दो महान् शक्तियाँ–अमेरिका और सोवियत रूस–परस्पर विरोधी शक्तियाँ हैं, परन्तु भारत ने किसी के साथ गठबन्धन करना कभी स्वीकार नहीं किया, बल्कि वह इन दोनों महान् राष्ट्रों की मैत्री का सदैव इच्छुक रहा है, यही कारण है कि भारत का जो आदर अमेरिका की दृष्टि में है, वही आदर और श्रद्धा रूस की दृष्टि में भी है। भारत के अमेरिका और रूस दोनों के साथ मित्रता के बड़े अच्छे सम्बन्ध हैं। भारत छोटे-छोटे राष्ट्रों के सार्थ भी सद्भावना मैत्री पूर्ण सम्बन्ध रख रहा है। वह सदैव समस्त राष्ट्रों का हित चाहता है, चाहे वह राष्ट्र अपनी शक्ति और सामर्थ्य में छोटे हों या बड़े। अपनी इसी विश्व बन्धुत्व की भावना के कारण वह दो परस्पर विरोधी राष्ट्रों का समान मित्र बना हुआ है और उसे उन सभी महान शक्तियों का सच्चा विश्वास भी प्राप्त है।
वास्तव में यह भारत की तटस्थ नीति का परिणाम है। अपनी इस विशेषता के कारण एक नवोदित राष्ट्र होते हए भी भारत ने विश्व की अनेक भयानक समस्याओं को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने में अपना अपूर्व सहयोग दिया है। भारत यद्यपि वैज्ञानिक शक्ति की दृष्टि से इतना अधिक समुन्नत राष्ट्र नहीं है। फिर भी अपने उच्चादर्शों के कारण ही विश्व के सभी राष्ट्रों पर उसका विशेष प्रभाव है। आज अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर भारत द्वारा जो मत प्रस्तुत किया जाता है, उसे सभी राष्ट्र ध्यानपूर्वक सुनते हैं और उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार-विनिमय करते हैं। आज विश्व के सभी राजनीतिज्ञ भारत की तटस्थता नीति की मुक्त कंठ से प्रशंसा और सराहना करते हैं। यदि भारत ने विश्व के किसी गुट के साथ गठबन्धन कर लिया होता तो उसी गुट के मित्र राष्ट्रों को सहानुभूति और सहयोग प्राप्त हुआ होता। भारत के लिए विदेशी सहायता का मार्ग चारों ओर से खुला है। दूसरे देशों के नेता हमारे यहाँ आते हैं और हमारे नेता भी दूसरे देशों में जाते हैं जिनका वहाँ की जनता हृदय खोलकर स्वागत करती है।
चार महान् राष्ट्रों ने 'शिखर सम्मेलन' के नाम से विश्व शांति की दिशा में, एक महत्वपूर्ण प्रयास किया था, परन्तु अमेरिका के अबुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार के कारण रूस क्षुब्ध हो उठा और वह सम्मेलन सफल न हो सका। तृतीय महायुद्ध की सम्भावनायें और भी अधिक बढ़ गई। परन्तु इस युद्ध में अमेरिका और रूस का ही बलिदान न होता बल्कि वह युद्ध विश्व के सभी राष्ट्रों की उन्नति में बाधक होता। भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्वर्गीय पण्डित नेहरू ने इस सम्बन्ध में कहा था कि–“महान् शक्तिशाली सभी राष्ट्रों को आपस में समझौता करना होगा। यों तो वर्तमान समय में विश्व का कोई राष्ट्र युद्ध से सहमत नहीं है, कोई भी राष्ट्र युद्ध नहीं चाहता किन्तु प्रत्येक देश को इस बात की आशंका बनी रहती है कि कहीं दूसरे गुट वाला अचानक आक्रमण न कर दे। इस संदेह से शस्त्रों के निर्माण की स्पर्धा जारी रहती है। भारत ने नि:शस्त्रीकरण की योजना का में समर्थन किया है, किन्तु जब तक परस्पर युद्ध के भय की भावना का विश्व से अन्त नहीं होगा, तब तक नि:शस्त्रीकरण की योजनायें कार्यान्वित नहीं हो सकेगी।" इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे देश के कर्णधार युद्ध के स्थान पर शांति चाहते हैं। भारत की तटस्थ नीति किसी विशेष भय के कारण या अपनी अकर्मण्यता के कारण नहीं है अपितु विश्व शान्ति तथा पारस्परिक सद्भावना स्थापित करने के लिए एक ठोस प्रयास है। आज भारतवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गाँधीवाद का प्रयोग कर रहा है। हमारी अहिंसा अशक्तों और अबलों की अहिंसा नहीं है, वह प्रेमजन्य है, वार भयजन्य नहीं। भारत केवल वाणी से ही शांति चाहता हो, ऐसी भी बात नहीं है, वह इस विचारधारा का कार्यरूप में परिणत भी कर रहा है। इस पवित्र कार्य में भारत को अन्य राष्ट्रों का सहयोग प्राप्त हो रहा है। उसने विश्व के सभी छोटे-बड़े राष्ट्रों को शांति के कार्य करने के लिए प्रेरणा भी दी है।
यदि भारत आज अपनी तटस्थता की नीति को छोड़कर किसी एक विशेष गुट के साथ सम्बन्धित हो जाता है तो इससे हम फिर परतन्त्र हो जायेंगे। हमारी नीति फिर परावलम्बी हो जायेगी। जिस परतन्त्रता के पाश को हमने बड़ी साधनाओं के बाद छिन्न-छिन्न किया है उसे फिर से स्वीकार कर लेना बुद्धिमानी नहीं होगी। सैनिक गुटबन्दी में सम्मिलित होने से हमारी वैदेशिक नीति पूर्णरूप से पराश्रित होगी और हमारी स्वतन्त्रता संकट में पड़ सकती है। भारत-चीन सीमा-विवाद का उल्लेख करते हुए स्वर्गीय पण्डित नेहरू ने कहा था, “हम चीन की समस्या शांतिपूर्वक ढंग से सुलझाना चाहते हैं। इसका अर्थ नहीं कि हम युद्ध से डरते हैं। हम यह भली-भाँति जानते हैं कि युद्ध करने वाले दोनों देशों में से किसी भी पक्ष के लिए युद्ध लाभदायक नहीं हो सकता और युद्ध के कारण समस्याओं का समाधान होने के बजाए ये अधिक कठिन हो जाती हैं।“ हमारी तटस्थता की नीति का अनुकरण एशिया के अरब, अफ्रीका आदि के प्रायः अधिकांश देश कर रहे हैं, इससे इस नीति की सफलता स्पष्ट ही है। यदि हम किसी देश के साथ सैनिक गठबन्धन कर लेते हैं तो यह निश्चय है कि वह सामरिक अड्डे हमारे देश में बनाएगा, हमें कुचक्रों और षडयन्त्रों में फंसना पड़ेगा। सेना पर हमें आधकाधिक व्यय करना पड़ा, जैसा कि जापान और पाकिस्तान को अमेरिका में गठबन्धन के कारण करना पड़ रहा है। दिन पर दिन इन देशों में हवाई अड्डे बनाए जा रहे हैं। जिनका उपयोग कुकृत्यों के लिए ही होता है। भारत एक तटस्थ देश है। आज उसके ऊपर कोई देश न दबाव ही डाल सकता है और न युद्धात्मक अड्डे का निर्माण ही कर सकता है और न इस प्रकार की कोई सुविधा हो मांग सकता है कोई भी राष्ट्र हमारे हवाई अड़ों से उचित उड़ान के अतिरिक्त और लाभ प्राप्त नहीं कर सकता।
भारत की तटस्थता की नीति भारत की स्वतन्त्रता और उसकी सार्वभौमिकता के लिये एक दृढ़ पदन्यास है। इसी नीति से उसे विश्व में आदर और सम्मान प्राप्त हुआ है और निश्चय है कि यदि इसी नीति का भविष्य में दृढतापूर्वक निर्वाह किया गया तो एक दिन वह आयेगा जब उसकी प्रचीन विश्व-गुरु की उपाधि उसे पुनः प्राप्त हो जायेगी। देश की तटस्थता की नीति के विषय में स्वर्गीय पण्डित नेहरू ने कांग्रेस के 50 वें अधिवेशन में सन् 1954 में कहा था, वे शब्द आज भी भारतीयों के कर्ण कुहरों में ज्यों के त्यों गूंज रहे हैं। वे शब्द इस प्रकार थे-
“हमने तटस्थता की नीति न केवल इसलिए अपनाई है कि हम विश्व शांति के लिए उत्सुक हैं बल्कि हम अपने देश की पार्श्व-भूमि को नहीं भूल सकते। हम उन तत्वों को नहीं छोड़ सकते जिन्हें हमने अब तक अपनाया था। हमें विश्वास है कि आजकल की समस्यायें शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाई जा सकती हैं। केवल युद्ध का न होना ही शांति नहीं है, बल्कि शान्ति एक मानसिक स्थिति है जो आजकल के शीतयुद्ध जगत में नहीं पाई जाती। यदि युद्ध प्रारम्भ हो जाए तो हम उसमें सम्मिलित नहीं होना चाहते। ऐसा हमने घोषित किया है क्योंकि हम शान्ति के क्षेत्र को विकसित करना चाहते हैं।"
पाकिस्तान में हुई क्रान्ति के फलस्वरूप नवोदित बंगला देश के निर्माण तथा पाकिस्तान द्वारा किये गये नृशंस नरसंहार के कारण भारत में आए हुए एक करोड़ के लगभग शरणार्थियों की भयावह समस्या एवं अमेरिका से मिलकर पाकिस्तान का भारत पर आक्रमणकारी षड्यन्त्र, आदि गहन समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए भारतवर्ष ने अगस्त 1979 में यद्यपि रूस के साथ बीस वर्षों के लिए सन्धि कर ली थी, फिर भी इस सन्धि से भारत की तटस्थता की नीति पर कोई आँच नहीं आती। भारत-रूस सन्धि के पश्चात् प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी के बाद प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी ने गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलनों में बड़ी निर्भीकता के साथ भारत की तटस्थता और गुटों से पृथक् रहने की नीति का समर्थन किया। वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री वी० पी० सिंह ने भी तटस्थता या गुट-निरपेक्षता को ही भारत की विदेश नीति का प्रमुख आधार बनाया है।
वर्तमान समय में भारत विश्व के तटस्थ देशों का मुखिया है। विश्व के सभी तटस्थ देश भारत का नेतृत्व सहर्ष स्वीकार करते हैं । सन् 1989 में बेलग्रेड में निर्गुट देशों का एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी हो चुका है। जिसमें भारत ने अपनी तटस्थता की नीति व पंचशील के सिद्धान्तों का पालन करते हुए विश्व के परतन्त्र राष्ट्रों की स्वाधीनता का प्रबल समर्थन किया। अफ्रीका में होने वाले जातिगत अत्याचारों की भर्त्सना की है। आज यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत अपनी अभूतपूर्व तटस्थ-नीति का पालन करके शान्ति व सुरक्षा की दिशा में विश्व का पथ प्रदर्शन करता रहेगा।
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