यदि मैं डॉक्टर होता पर निबंध। If I Were A Doctor Essay in Hindi : यदि मैं डॉक्टर होता तो व्यक्तित्व सजा कर रखता। अपने क्लीनिक को साफ सुथरा बनाकर रखता। क्लीनिक का फर्नीचर बहुकीमती रखता ताकि उस पर बैठने वाले रोगी को सुख की अनुभूति हो। रोगियों के स्वागत और उन्हें क्रम से भेजने के लिए विनम्रता और मधुरता की मूर्ति किसी सुंदर रिसेप्शनिस्ट को रखता ताकि उसके व्यवहार और सौंदर्य से प्रभावित होकर आने वाले रोगी बिना दवा के ही कुछ क्षण आराम महसूस करें। मैं रोगी से यथासंभव प्रेम से बात करता। उसे अपने रोग को समझाने का अवसर देता। खुद भी ध्यान से उसकी बातें सुनता। दवाई का पर्चा लिखने में जल्दी ना करके, बीमारी के संबंध में उसके प्रश्नों का उत्तर देता और स्वयं उसके लिए जो सावधानियां हैं उनके बारे में सचेत करता। विशेषतः पथ्य के संबंध में हिदायतें जरूर देता किंतु बातूनी मरीज को उसकी बीमारी समझा कर चलता करने की चेष्टा भी करता। क्योंकि समय बहुमूल्य है जिसकी कीमत कोई चुका नहीं सकता।
भगवान और डॉक्टर की हम समान आराधना करते हैं, किंतु करते तभी हैं जब हम संकट में होते हैं, पहले नहीं। संकट समाप्त होने पर दोनों की समान उपेक्षा की जाती है। ईश्वर को भुला दिया जाता है और डॉक्टर को तुच्छ मान लिया जाता है।
यदि मैं डॉक्टर होता तो व्यक्तित्व सजा कर रखता। अपने क्लीनिक को साफ सुथरा बनाकर रखता। क्लीनिक का फर्नीचर बहुकीमती रखता ताकि उस पर बैठने वाले रोगी को सुख की अनुभूति हो। रोगियों के स्वागत और उन्हें क्रम से भेजने के लिए विनम्रता और मधुरता की मूर्ति किसी सुंदर रिसेप्शनिस्ट को रखता ताकि उसके व्यवहार और सौंदर्य से प्रभावित होकर आने वाले रोगी बिना दवा के ही कुछ क्षण आराम महसूस करें।
मैं रोगी से यथासंभव प्रेम से बात करता। उसे अपने रोग को समझाने का अवसर देता। खुद भी ध्यान से उसकी बातें सुनता। दवाई का पर्चा लिखने में जल्दी ना करके, बीमारी के संबंध में उसके प्रश्नों का उत्तर देता और स्वयं उसके लिए जो सावधानियां हैं उनके बारे में सचेत करता। विशेषतः पथ्य के संबंध में हिदायतें जरूर देता किंतु बातूनी मरीज को उसकी बीमारी समझा कर चलता करने की चेष्टा भी करता। क्योंकि समय बहुमूल्य है जिसकी कीमत कोई चुका नहीं सकता। शेक्सपियर के शब्दों में ‘More needs she the divine than the physician. उसे डॉक्टर की अपेक्षा ईश्वरीय कृपा की अधिक आवश्यकता है।
रोगी की परीक्षा करते हुए मैं अपने मित्र या संबंधियों का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करता। केवल मेरे और मरीज सिवा तीसरे की उपस्थिति मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। क्योंकि तीसरे व्यक्ति की उपस्थिति में रोगी अपने रोग की चर्चा खुलकर नहीं कर पाता। आपातकालीन केस के सिवा पंक्ति के बिना देखना मुझे अच्छा नहीं लगता।
यदि रोगी के घर जाकर उसे देखना पड़ता तो मैं उस को प्राथमिकता देता। इसलिए नहीं की फीस मिलेगी बल्कि यह सोचकर कि प्राय आपातकाल और अपरिहार्य परिस्थिति में ही कोई रोगी डॉक्टर को घर पर बुलाता है। मरीज को देखने के बाद उसके सामने ही फीस की मांग नहीं करता क्योंकि मरीज के सामने फीस मांगने से मरीज पर अच्छा असर नहीं पड़ता।
नारी रोगियों से विशेषतः युवतियों से मनसा, वाचा, कर्मणा थोड़ा सचेत होकर व्यवहार करता क्योंकि चरित्र पर लगाया लांछन, स्पष्टीकरण के साबुन से नहीं धुलता।
मैं देखता हूं कि आज के डॉक्टर रोगी को रोग का नाम या सही बीमारी स्वयं समझते हुए भी नहीं बताते मैं ऐसा नहीं करता। अपनी जेब गर्म रखने और रोगी को सदा सहमा रखने के लिए बीमारी को बड़ी बताते हैं उसी दृष्टि से इलाज भी करते हैं। मुझे याद है मेरे एक मित्र को बुखार नहीं टूट रहा था तो डॉक्टर ने टी.वी. घोषित कर दिया था। मैं ऐसा काम नहीं करता क्योंकि ऐसा करना रोगी के साथ ही नहीं अपनी आत्मा के साथ भी धोखा करना है।
दूसरी और रक्तचाप आज का आम रोग है और आज का डॉक्टर ब्लड प्रेशर के लेने के बाद कभी नहीं बताता कि ब्लड प्रेशर कितना है। वह ऊपर का जरा ज्यादा है या नीचे का कुछ कम है आदि भ्रमात्मक वाक्य बोलता है। मैंने एक बार एक विख्यात अस्पताल में एक मरीज को परिचारिका से इस भी बात पर झगड़ते हुए देखा मैं इस प्रकार के व्यवहार को प्रवंचना समझता हूं।
आज के डॉक्टरों का एक और सनकीपन है। बीमारी समझ में नहीं आए तो परीक्षणों पर उतर आते हैं। ब्लड टेस्ट कराओ, यूरिन और स्टूल टेस्ट कराओ, एक्स-रे करवाओ। अब तो अल्ट्रासाउंड भी करवाए जाने लगे हैं। फलतः रोगी का पैसा और समय नष्ट हो रहा है, मानसिक तनाव बढ़ रहा है डॉक्टरों को क्या चिंता? यह ठीक है कि टेस्ट जरूरी है पर अपनी जगह। बीमारी समझने के लिए टेस्ट और रोग पकड़ने के लिए टेस्ट में अंतर है। मैं अनिवार्य स्थिति में ही ऐसे परीक्षण करवाता।
यदि मैं समझता कि रोगी का रोग मेरी समझ में या पकड़ में नहीं है तो उसे किसी अन्य डॉक्टर से इलाज करवाने की सलाह देता।
फीस लेना डॉक्टर का अधिकार है। प्रतिष्ठा के नाम, रोग विशेष के नाम पर अथवा बढ़ती महंगाई की दुहाई देकर फीस को बढ़ाना मैं अन्याय समझता। एक सामान्य फीस, मध्यमवर्ग व्यक्ति जिसका भार सहज उठा सकता हो मेरे डेली चार्जेस होते। अपने रोगी के कपड़े उतरवाने की चेष्टा करना मेरे धर्म के विरुद्ध होता।
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