पर्वतीय स्थल की यात्रा का वर्णन : शिमला Meri Parvatiya Yatra par Nibandh
भगवान भास्कर की प्रचंड तप्त किरणों और लू की सन्नाटा मारती हुई झपटों से जब तन और मन व्याकुल हो गया। कूलर और वातानुकूलन का विज्ञान भी मन की अविरल शून्यता को समाप्त ना कर सका तो लगा पर्वत की श्रृंखलाओं में कुछ दिन बिता कर तन मन को आह्लादित किया जाए।
दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास सफलता के सोपान हैं। 2-4 मित्रों से पर्वत यात्रा की आकांक्षा प्रकट की तो वे भी तैयार हो गए। मित्रों के साथ यात्रा का अपना आनंद है यह सोच कर मन खुशी से नाच उठा।
1 जून की प्रातः कालीन दिल्ली-शिमला बस में चारों साथी उमंग और उत्साह से जा बैठे। बस चली। पंजाब रोडवेज की बस यात्रा विज्ञान का अपूर्व वरदान है। ध्वनि शून्य तथा झटकों रहित बस तेजी से दौड़ी मंजिल की ओर तीव्र गति से भागी जा रही है। ढाई घंटे तक की करनाल यात्रा तो सुखद रही पर करनाल से कालका तक की यात्रा में सूर्य देव ने अपनी क्रोधाग्नि से हंसमुख चेहरों को मुरझा दिया। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-
सूखा कंठ पसीना छूटा मृग तृष्णा की माया।
झुलसी दृष्टि अंधेरा दीखा, दूर गई वह छाया।।
साढ़े ग्यारह बजे बस ने कालका छोड़ दिया। कालका पर्वत यात्रा का आरंभ स्थल है। आगे प्रकृति की रमणीय स्थली पर्वत श्रंखलाएं ही आरंभ होगी यह सोचकर दिवाकर की दीप्ति से मन में विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा।
बस पर्वती मार्ग पर चल पड़ी है। चढ़ाई पर चढ़ रही है। इसलिए गति मैदानी सड़क से कुछ धीमी पड़ गई है। मृत्यु को निमंत्रण देते पहाड़ी मोड़ों पर बस की चाल को लकवा मार जाता था पर बस भागी जा रही थी अपने 2 घंटे के निर्धारित समय में सोलन पहुंचने के लिए।
लू के स्थान पर कुछ शीतल पवन हृदय को गुदगुदा जाती थी। आंखें चारों और फैली हरी हरी भूमि के सौंदर्य का आनंद लूट रही थी। दूर तक फैली झाड़ियां, लताएं ऊंचे वृक्षों के रूप में प्रकृति अपने विविध वेश में मन को मोह रही थी। लगता था-
मांसल सी आज हुई थी। हिमवती प्रकृति पाषाणी।
उधर सीढ़ी नुमा बलखाते छोटे खेत। प्रेमी पवन के झोंके से जुड़ती लताएं। वन्य पादपों पर पुष्पों के पीत मुकुट देखकर आंखें चकाचौंध हो रही थी पर ह्रदय तृप्त नहीं हो रहा था। आगे चले तो देखा पहाड़ों से जल स्त्रोत फूट रहा है। उसकी स्वच्छ निर्मल धारा को देखकर भारतेंदु की पंक्ति का स्मरण हो आया..
नव उज्जवल जल धार हार हीरक सी सोहती।
सोलन आया। बस आधा घंटा रुकी। यात्री उतरे। अल्पाहार के लिए दौड़े। वमन वाले साथी को कुल्ला करवाया। सोडा पिलाया। हमने भी चाय बिस्कुट लिए। तरोताजा हुए। दो बज रहे थे। भगवान भास्कर अपने पूर्ण प्रकाश की स्थिति में थे। पर थे वे तेजहीन। पहाड़ी शीतल पवनों ने उनके तप का हरण कर लिया था। इसलिए गर्मी भी सुखद नहीं लग रही थी।
सोलन में सुस्ताने और तरोताजा होने के बाद बस चल पड़ी अपने गंतव्य की ओर। असली पहाड़ी यात्रा का अनुभव तो अब शुरू हुआ था। छोटी सड़के, बल खाती सड़कें, सर्प सी मोड़ खाती सड़कें। 3 से 4 किलोमीटर बस चली और चक्कर काट कर सामने वाली सड़क पर। समतल भूमि पर पहुंचने में 50 डग चाहिए।
एक ओर ऊंचे पहाड़ और दूसरी ओर पाताल लोक। जरा सा ध्यान विचलित हुआ तो बस हो या कार, पशु या प्राणी पाताल लोक का वासी बन जाता है। हंस अकेला मृत्युलोक के द्वार खटखटाता है पर प्रकृति का रूप भी विचित्र है। पाताल लोक हो या पर्वत, पहाड़ियां सभी हरी-भरी हैं, हर कदम पर रूप बदलती हैं।
2 से 4 नर नारियों की वमन विह्लता ने प्रकृति के रूप सौंदर्य को निहारने में बाधा डाली तो शीतल पवन के झोंकों ने पर्वतीय प्रदेश में संध्या सुंदरी के प्रवेश की पूर्व सूचना दे दी। दूसरी ओर दीवारों पर चमकते विज्ञापनों ने सजग कर दिया अब शिमला दूर नहीं है।
शिमला समीप आ रहा था। बस चींटी की चाल चल रही थी। बस के साथ दौड़ते कुली खिड़कियों से यात्रियों को अपने टोकन देकर बुक कर रहे थे। बस स्टॉप पर बस रूकी। बस का दरवाजा खोलने से पहले उन्होंने आक्रमण कर दिया। किसी प्रकार से हम बस से उतरे। पवन के झोंकों से चित्तपट शांत हुआ पर कुलियों के दीन दुराग्रह ने उनकी पहचान बनाने के लिए विवश कर दिया।
मानव ने प्रकृति को अपना दोस्त बनाया है इसलिए यहां पहाड़ काटकर सुगम सीढ़ियों का निर्माण किया गया है। अभ्यस्त कुली सीढ़ियों पर जा रहे थे और हम चारों साथी यात्रा की थकावट मिश्रित से धीरे चल रहे थे। जैन धर्मशाला पहुंच कर कुलियों ने विदाई ली। हमने धर्मशाला की शरण ली। इस प्रकार पर्वतीय स्थल पर पहुंचकर यात्रा समाप्त की।
0 comments: