स्वतंत्रता एवं अनुशासन पर निबंध - Essay on Freedom and Discipline in Hindi: ‘स्वतंत्रता' एवं 'अनुशासन' यदि इन दोनों के शाब्दिक अर्थ की ही व्याख्या की
स्वतंत्रता एवं अनुशासन पर निबंध - Essay on Freedom and Discipline in Hindi
‘स्वतंत्रता' एवं 'अनुशासन' यदि इन दोनों के शाब्दिक अर्थ की ही व्याख्या की जाये तो ऐसा अनुभव होगा कि यह शब्द परस्पर विरोधी है जबकि वास्तविक स्थिति यह नहीं है। स्वतंत्रता एवं अनुशासन एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप में सम्बन्ध रखते है चूँकि अनुशासनविहीन स्वतंत्रता स्वच्छता का रूप ले लेगी और स्वतंत्रता-विहीन अनुशासन यातना बन जायेगा। इन कारण दोनों में परस्पर समन्वय बनाये रखना आवश्यक है। सबसे पहले हम इस बात की चर्चा करेंगे कि अनुशासन स्वतंत्रता का अर्थ क्या है ?
अनुशासन का अर्थ (Meaning of Discipline in Hindi)
अनुशासन मस्तिष्क आचरण व अभिवृत्ति का प्रशिक्षण है। जब तक बालक के चिन्तन, दृष्टिकोण व व्यवहार में स्थायी परिवर्तन न हो तब तक अनुशासन नहीं आ सकता। अनुशासन का अभिप्राय मूल प्रवृतियों का शोधन है। वास्तव में मानव की पाशविक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करना व उसमें मानवोचित का सृजन करना ही अनुशासन है। वांछित आदतों के माध्यम से सहज प्रवृत्तियों का रूपान्तर करना अनुशासन है। नियमों के अंतर्गत प्रदान की गई स्वतंत्रता अनुशासन है। अनुशासन एक शिष्ट आचरण है, जिसमें आत्म संयम व आत्म नियंत्रण किया जाता है।
स्वतंत्रता से अभिप्राय (Meaning of Freedom in Hindi)
भारतीय सविधांन द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक तत्वों के द्वारा अधिकार प्रदान किये गये हैं, जिनसे भारतीय नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है, भारतीय नागरिकों को जाति, धर्म, लिंग, रंग व क्षेत्र के आधार पर किसी भी प्रकार का कोई बन्धन नहीं लगाया जा सकता है। वह कभी भी भ्रमण या निवास कर सकता है। लेकिन साथ ही कानून ने उस पर यह भी नियंत्रण लगाया है कि इससे किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता या देश के लिए खतरा उत्पन्न होता है, तब उसको अनुशासित किया जा सकता है।
स्वतंत्रता व अनुशासन में संबंध (Relationship between Freedom and Discipline in Hindi)
स्वतंत्रता व अनुशासन दोनों के ही यदि हम संकुचित अर्थ पर दृष्टि डालें तो हमें ऐसा प्रतीत होगा कि इन दोनों के मध्य सम्बन्ध नहीं है और यदि दोनों के व्यापक अर्थ पर विचार करें तो ऐसा लगेगा कि दोनों एक ही हैं। जब हम स्वतंत्रता को स्वच्छन्दता से अलग समझते हैं व अनुशासन को अधिनायकवादी दृष्टिकोण से पृथक समझते हैं तो इन दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता वरन् अपने व्यापक अर्थ में एक समान प्रतीत होते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि स्वतंत्रता में अनुशासन समाहित है और अनुशासन में स्वतंत्रता निहित होनी चाहिए। इसी कारण हम यह कहते हैं कि अनुशासन व स्वतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू है, जिन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है।
कुछ व्यक्ति अनुशासन को प्रायः बन्धन या परतंत्रता के रूप में देखते हैं। उनका विचार है कि किसी दूसरे के बनाये गये नियमों के अन्तर्गत हमें नहीं रहना चाहिए। चूँकि इससे हमारी स्वतंत्रता का हनन होता है। यदि बालक को पग-पग पर उसके व्यवहार के लिए टोका जायेगा या उसे नियमों का अनुपालन करने को कहा जायेगा तो उसका व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है। व्यक्तित्व के समुचित विकास हेतु यह आवश्यक है कि बालक को स्वतंत्र छोड़ा जाए, परन्तु स्वतंत्रता से पूर्व उसे आत्म-अनुशासन व आत्म-नियंत्रण का प्रशिक्षण देना अनिवार्य है। आत्म-अनुशासित व्यक्ति स्वतंत्रता का दुरूपयोग कदापि नहीं करेगा और अपने व्यक्तित्व का सही ढ़ंग से विकास कर पायेगा। बर्टेण्ड रसेल ने ठीक ही कहा है, “जिस व्यक्ति की वाणी पर प्रतिबंध लगा हो, जिसके नियम किसी कठोर नीति के द्वारा निर्मित किये गये हों, जिसकी बाल्यावस्था शिष्टाचार के नियमों से बाँध दी गई हो, जिसकी युवावस्था निर्दयी, रूढ़िवादिता के अन्तर्गत प्रशिक्षित की गई हो, उसमें इस प्रकार के वातावरण के प्रति विद्रोह की भावना उत्पन्न होगी तथा उसमें वही तीव्र क्रोध उद्वेलित होगा जैसा कि हाथ-पैर बँधे एक शिशु को क्रोध आता है। इस क्रोध के वशीभूत होकर वह विध्वंसात्मक कार्यों की और प्रेरित होगा।” अतः हम कह सकते हैं कि बालक पर आवश्यकता से अधिक नियंत्रण रखना सदैव घातक होता है। यह बादल के अन्दर नकारात्मक या ध्वंसात्मक क्रियाओं को जन्म दे सकता है।
रूसो, फ्रॉबेल, माण्टेसरी आदि शिक्षाविदों ने 'स्वतंत्र अनुशासन' का नारा दिया। जॉन ड्यूवी ने 'बालक को बचाओ' (Save the Child) की बात कही। इन सभी विचारकों का मत था कि बालक को हमें पूर्ण रूप से स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। उसके अन्दर स्वाभाविक रूप से शुभ-अशुभ, उचित अनुचित व अच्छे-बुरे का विकास होना चाहिए। इन भावनाओं का विकास उन्हें अनुशासन में रखने में सहयोग देगा। परन्तु इसके साथ ही हमें प्रो0 वाग्ले का यह कथन भी नहीं भूलना चाहिए कि “बालक अपरिपक्व एवं निःसहाय है। अतः उसे लम्बी रस्सी नहीं दी जानी चाहिए कि वह अपने आप को टाँग दे। "
अतः आवश्यकता इस बात की है कि न तो उसे अधिक नियमों के बन्धन में बाँधा जाये और न ही उसे पूर्ण स्वतंत्र छोड़ दिया जाय वरन् हमें इनका मध्यवर्गीय मार्ग अपनाना होगा व बालक में आत्म- नियंत्रण की क्षमता उत्पन्न करनी होगी जो उसके व समाज के दोनों के हितों के लिए आवश्यक है। सबसे अच्छा तरीका है ‘“डण्डा हाथ में रखो जरूर परन्तु उससे छात्र को मारो नहीं, उसे रास्ता दिखाओ” आज का शिक्षक भी यह जानता है कि दण्ड देना अपराध समान है। वह छात्रों को पूर्ण स्वतंत्रता देता है। तब आज के विद्यालयों में अनुशासनहीनता की समस्या क्यों उत्पन्न हो रही है, अब हम इस पर विचार करेंगें।
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