शारीरिक शिक्षा की आधुनिक अवधारणा (Sharirik Shiksha ki Aadhunik Avdharna) शारीरिक शिक्षा की वर्तमान अवधारणा की प्रवृत्ति यह है कि संज्ञा के रूप में 'शि
शारीरिक शिक्षा की आधुनिक अवधारणा (Sharirik Shiksha ki Aadhunik Avdharna)
शारीरिक शिक्षा की आधुनिक अवधारणा
शारीरिक शिक्षा की वर्तमान अवधारणा की प्रवृत्ति यह है कि संज्ञा के रूप में 'शिक्षा' पर अधिक बल दिया जाता है जबकि विशेषण के रूप 'शारीरिक पर अपेक्षाकृत कम अर्थात् आधुनिक संकल्पना में शारीरिक शब्द की अपेक्षा शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता है। शारीरिक शिक्षा को केवल शारीरिक, मानसिक, सामाजिक या नैतिक आधार पर नहीं बाँटा जा सकता। यह भी कहा जाता है कि शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य शिक्षा है न कि केवल स्वास्थ्य शारीरिक प्रशिक्षण या शारीरिक क्रियायें।
अधिकांश शिक्षाशास्त्री ऐसे हैं जो शारीरिक शिक्षा को सामान्य शिक्षा का अभिन्न अंग मानते हैं। यदि हम शारीरिक शिक्षा को अधिक प्रभावी बनाना चाहते हैं तथा अपने देश के प्रत्येक युवा का सर्वांगीण विकास चाहते हैं तो शारीरिक शिक्षा को वास्तविक रूप में सामान्य शिक्षा का अभिन्न अंग समझना आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा का कोई एक विशेष क्षेत्र नहीं है वरन् यह सामान्य शिक्षा ही है । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जब-जब शारीरिक शिक्षा को अलग-अलग रूप में सोचा गया, तब-तब यह विषय विकलांग हुआ है।
शारीरिक शिक्षा की आधुनिक अवधारणा केवल शारीरिक क्रियाओं पर ही बल न देकर इसे सामान्य शिक्षा का एक अंग स्वीकार करती है तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति में अनेक गुणों का विकास करने का प्रयास करती है। इस शिक्षा से व्यक्तियों की मूल प्रवृत्तियों, भावनाओं एवं संवेगों को न केवल दिशा ही प्राप्त होती है, अपितु उनमें बहादुरी, ईमानदारी, आपसी भाईचारा तथा नेतृत्व जैसे गुण उभरते हैं।
आधुनिक युग में यह धारणा विकसित हुई है कि बच्चों को केवल सैद्धान्तिक विषयों का ज्ञान देकर शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है। बच्चे का सम्पूर्ण विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि बच्चे को सैद्धान्तिक विषयों का ज्ञान न हो जाये। इसीलिये इन परम्परागत विषयों के ज्ञान के साथ-साथ खेलकूद के 'व्यावहारिक एवं शैक्षिक पद पर उतना ही ध्यान दिया जाना आवश्यक होने लगा है जितना कि बच्चे को गणित या अन्य किसी भाषा का ज्ञान देना होता है। बच्चों में उदण्डता एवं अनुशासनहीनता इसलिये पनपती है क्योंकि उन्हें शारीरिक शिक्षा के बारे में भ्रमपूर्ण स्थिति रही है। खेलकूद के माध्यम से उनकी शारीरिक शक्ति में तो वृद्धि हो जाती है परन्तु इस शक्ति को उचित दिशा न मिल पाने के कारण वे असामान्य व्यवहार की ओर प्रवृत होने लगते हैं। यह भी एक गलत सोच का परिणाम है । खेलकूद तो बच्चों के असामान्य व्यवहार एवं अनुचित लक्षणों के समाधान का एक उचित माध्यम है। खेलकूद से जो नियमों में रहकर क्रियाओं के करने का प्रशिक्षण दिया जाता है उससे बच्चों में अनुचित व्यवहार करने की आशंका नहीं रहती है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शारीरिक विकास को सामान्य शिक्षा का ही एक अभिन्न अंग माना जाना चाहिए तथा इसे शिक्षा के क्षेत्र में अनावश्यक बोझ नहीं समझा जाना चाहिये। इसे शिक्षा के सामान्य लक्ष्य एवं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये। इस सन्दर्भ में कोबेल एवं फ्रांस ने ठीक ही लिखा है, "आज भी खेल को किसी असुर का आविष्कार मानकर तिरस्कृत किया जाता है तथा शारीरिक शिक्षा को शिक्षा का एक अनावश्यक भाग माना जाता है। निःसन्देह यह सोच उचित नहीं है तथा इसका प्रमुख कारण व्यावसायिक स्थापनाओं की होड़ है। शारीरिक शिक्षा को एक मौलिक शिक्षा के रूप में स्वीकार किये जाने की आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों को चलाने हेतु उपयुक्त साधन जुटाकर तथा पर्याप्त समय देकर हम सबको इस आधुनिक विचारधारा को आगे बढ़ाना चाहिये। खेलों तथा शिक्षा के टकराव के बजाय एक खिलाड़ी के शरीर में विद्वान का मस्तिष्क होना अच्छा आदर्श है।
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