करुणा निबंध का सारांश - Karuna Nibandh ka Saransh: करुणा की मूलभूत अनुभूति 'दुःख' से होती है। जब बच्चे को सम्बन्ध ज्ञान कुछ-कुछ होने लगता है। तभी दुःख
करुणा निबंध का सारांश - Karuna Nibandh ka Saransh
करुणा निबंध का सारांश- करुणा की मूलभूत अनुभूति 'दुःख' से होती है। जब बच्चे को सम्बन्ध ज्ञान कुछ-कुछ होने लगता है। तभी दुःख के उस भेद की नींव पड जाती है जिसे करुणा कहते है। जब माँ झूठ-मूठ करके रोने लगती है तब बच्चे भी रो पडते हैं। दुःख की श्रेणी में प्रवृत्ति के विचार से करुणा का उल्टा क्रोध है। क्रोध में दूसरों को हानि पहुँचाने की भावना होती है और करुणा में दूसरों की भलाई करने की। मानव दूसरों के दुःख से दु:खी और दूसरों के सुख से सुखी होने लगता है। लेकिन दूसरों के दुःख से दुःखी होने का नियम बहुत व्यापक है और दूसरों के सुख से सुखी होने का नियम परिमित है। दूसरों के दुःख के परिज्ञान से जो दुःख होता है वह करुणा, दया आदि नामों से पुकारा जाता है।
संसार में प्रत्येक प्राणी के जीवन का उद्देश्य दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति है। अतः संसार का उद्देश्य सुख की स्थापना और दुःख का निश्यच हुआ। करुणा मानव में शील और सात्विकता उत्पन्न करतीहैं। शुक्ल जी करुणा की तीव्रता को 'जीवन निर्वाह की सुगमता और कार्य विभाग की घनिष्ट सम्बन्ध हैं।' दोनों में दूसरों को दुःख न पहुँचाने का भाव होता है। किसी प्राणी में करुणा की भावना देखकर उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। इसलिए क्रोध, भय, ईर्ष्या, घृणा आदि भावों से करुणा ही सात्विकता का आदि संस्थापक भाव सिद्ध होती है।
करुणा का विषय दूसरे का दुःख है। प्रिय के वियोग से उत्पन्न दुःख में भी करुणा की भावना रहती है। प्रिय के सुख का अनिश्चय, अनिष्ट की आशंका, मिलन का अनिश्चय आदि भाव वियोग की दशा में करुणा का विषय दूसरे का दुःख है। प्रिय के वियोग से उत्पन्न दुःख में भी करुणा की भावना रहती है। प्रिय के सुख का अनिश्चय, अनिष्ट की आशंका, मिलन का अनिश्चय आदि भाव वियोग की दशा में करुणा की भावना उत्पन्न कर देते हैं। करुणा मनुष्यों के अन्तःकरण में सात्विकता की ज्योति जगाती है। इसी कारण जैन और बौद्ध धर्म में करुणा को बडी प्रधानता दी गई है। गोस्वामी तुलसीदास का कथन है -
पर उपकार सरिस न भलाई।
पर पीडा सम नहिं अधमाई ॥ - रामचरित मानस
राम और सीता के वन चले जाने पर कौसल्या उसके सुख के अनिश्चय पर दुःखी होती है -
वन को निकर गये दोउ भाई।
सावन गरजै, भादौ बरसै, पवन चले पुरवाई।
कौन बिरिछ तर भीजत है हैं राम लखन दोउ भाई। - गीतावली
श्री कृष्ण के गोकुल से मथुरा चले जाने पर यशोदा करुणा - विलाप करती हैं -
प्रात समय उठ माखन रोटी को बिन माँगे देहैं ?
को मेरे बालक कुँवर कान्ह को छिन छिन आगे लै है।
और उद्धव से कहती हैं -
सँदेसो देवकी सों कहियो
हों तो छाप, तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो ॥
सामाजिक जीवन की स्थिति और पुष्टि के लिए करुणा का प्रसार आवश्यक है। करुणा द्वारा ही हम दूसरों की सहायता करने को तत्पर हो जाते हैं। दुःखी व्यक्ति जितना ही असहाय और असमर्थ होगा, उतनी ही अधिक उसके प्रति हमारी करुणा होगी। एक अनाथ अबला को मार खाते देख हमें जितनी करुणा होगी उतनी एक सिपाही या पहलवान को पिटते देख कर नहीं होती। दूसरों के विशेषतः अपने परिचितों के, थोडे क्लेश या शोक होने पर जो वेगरहित दुःख होता है, उसे सहानुभूति कहते हैं।
मनुष्य के प्रत्यक्ष ज्ञान में देश और काल की परिमिति अत्यन्त संकुचित होती है पर स्मृति अनुमान या दूसरों से प्राप्त ज्ञान के सहारे मनुष्य का ज्ञान इस परिमिति को लांघना हुआ अपना देशकाल सम्बन्धी विस्तार बढ़ाता है। उपयुक्त भाव प्राप्त करने के लिए यह विस्तार बढ़ाता है। उपयुक्त भाव प्राप्त करने के लिए यह विस्तार कभी -कभी आवश्यक होता है। किसी मार खाते हुए अपराधी के विलाप पर हमें दया आती है, पर जब हम सुनते हैं कि कई स्थानों पर कई बार वह बडे बडे अत्याचार करेगा, तो हमें अपनी दया की अनुपयुक्तता मालूम हो जाती है।
मनुष्य की सजीवता मनोवेग या प्रवृत्ति में ; भावों की तत्परता में है। यदि मनोवेग न हों तो स्मृति, अनुमान, बुद्धि आदि के रहते भी मनुष्य बिलकुल जड हैं। मनुष्य हृदय को दबाकर केवल क्रूर आवश्यकता और कृत्रिम नियमों के अनुसार ही चलने पर विवश और कठपुतली सा जड होता है। उसकी भावुकता का नाश होता है। पाषण्डी लोग मनोवेगों का सच्चा निर्वाह न देख, हताश हो मुँह बनाकर कहने लगे हैं- “करुणा छोडो, प्रेम छोडो, आनन्द छोडो। बस हाथ पैर हिलाओ, काम करो।"
बहुत से ऐसे अवसर आ पडते हैं जिनमें करुणा आदि मनोवेगों के अनुसार काम नहीं किया जा सकता। जीवन में मनोवेगों के अनुसार परिणामों का विरोध प्राय: तीन वस्तुओं से होता है - 1. आवश्यकता, 2. नियम और 3. न्याय। यहाँ शुक्लजी एक उदाहरण देते हैं - हमारा कोई नौकर बहुत बुड्ढा और कार्य करने में अशक्त हो गया है जिस से हमारे काम में हर्ज होता है। हमें उसकी अवस्था पर दया आती है, पर आवश्यकता के अनुरोध से उसे अलग करना पडता है। करुणा का विषय दूसरे का दुःख है; अपना दुःख नहीं। आत्मीय जनों का दुःख एक प्रकार से अपना ही दुःख है।
न्याय और करुणा का विरोध प्रायः सुनने में आता है। यदि अपराधि मनुष्य बहुत रोता, गिडगिडाता और कान पकडता है तथा पूर्ण दण्ड की अवस्था में अपने परिवार की ओर दुर्दशा का वर्णन करता है, तो न्याय पूर्ण निर्वाह का विरोध करुणा कर सकती है।
करुणा सेंत का सौदा नहीं है, यदि न्यायकर्ता को करुणा है तो वह उसकी शान्ति पृथक रूप से कर सकता है।
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